मृतकों के चित्रों पर पुष्पमाला व पुष्प चढ़ाना अवैदिक कृत्य

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मनमोहन कुमार आर्य

एक आर्य विद्वान ने हमारा ध्यान आर्यजनों द्वारा अपने प्रिय परिवारजनों की मृत्यु आदि के बाद आयोजित श्रद्धांजलि आदि कार्यक्रमों में उनका चित्र रखने, उस पर पुष्पमाला डालने व पुष्प चढ़ाने की अवैदिक परम्परा की ओर आकर्षित किया है। उन्होंने हमसे हमारा पक्ष पूछा था जो हमने उन्हें अवगत करा दिया है और इसी लिये इस विषय की चर्चा कर रहे हैं।

 

इस विषय में हमें पूरी स्थिति पर ध्यान देना होगा। हमारा उद्देश्य पूर्व व भावी किसी आर्यजन की भावनाओं को ठेस पहुंचाना कदापि नहीं है। हम जो करें उससे पूर्व हम सिद्धान्त के विषय में चिन्तन कर लें। प्रमाणों को पता कर लें या स्वयं देख लें। यदि हमें लगता है कि यह वेद और ऋषि मान्यताओं के अनुकूल है, तो फिर वह अवश्य करणीय होगा और यदि हमारी आत्मा ही हमें उस कार्य को अवैदिक बताये तो ऐसी स्थिति में उसका करना करणीय नहीं हो सकता। इसका प्रभाव यह होता है कि ऐसे आयोजन में जो सिद्धान्त को जानने व समझने वाले आर्यजन होते हैं उनकी आत्मा व मनों में इसको लेकर विचार व मंथन उत्पन्न होता है। अधिकांश सोचते तो हैं कि यह सिद्धान्तों के विपरीत है परन्तु वह कहते किसी को कुछ नहीं है, उसे चलने देते हैं। हमें व्यक्तिरूप से लगता है कि यह अवसर भी किसी को रोकने व टोकने का नहीं होता क्योंकि परिवारजन गहरे आत्मीय भावों से भरे हुए होते हैं व ऐसे समय पर उनका विवेक लगता है कि साथ न दे।

 

इस विषय पर विचार करने के लिए हमें यह समझना है कि हमारे परिवार के दिवंगत मनुष्य की जो कीमत व महत्व था, उसके अर्थात् उसकी आत्मा के, अपने शरीर में विद्यमान होने के कारण से ही था। आत्मा थी तो उसे नये वस्त्र प्रदान करने और रोगी होने पर सस्ती व खर्चीली सभी प्रकार की चिकित्सा आदि कराते थे। अनेक वस्तुयें उन्हें भेंट की जाती थीं। वह उन्हें स्वीकार करते थे और धन्यवाद करने के साथ उनका निजी जीवन में उपयोग भी करते थे। आत्मा के शरीर से पृथक हो जाने को ही हम मृत्यु मानते हैं। उसके बाद उस दिवंगत आत्मा के शरीर का एक ही मूल्य होता है कि वेद विहित विधि-विधान से उसकी अन्त्येष्टि कर देना। सभी आर्यजन ऐसा ही करते हैं और संस्कारविधि में दिये गये विधान से अन्त्येष्टि कर देते हैं। स्वामी दयानन्द जी महाराज ने संस्कारविधि में स्पष्ट कहा है कि अन्त्येष्टि सम्पन्न हो जाने के बाद दिवंगत आत्मा के लिए परिवारजनों द्वारा किसी अन्य कृत्य, दशमी, तेरहवी व बरसी, चौथा, उठाला आदि करने की आवश्यकता नहीं है। वह लिखते हैं कि तीसरे दिन श्मशान भूमि में जाकर शवदाह के स्थान से अस्थियों को चुन कर उसे वहीं किसी स्थान पर रख आना चाहिये।

 

कुछ लोग अस्थियों को हरिद्वार व किसी अन्य नदी में ले जाकर प्रवाहित करते हैं, वह भी हमें पौराणिक वा अन्ध श्रद्धा से युक्त कर्म व कार्य लगता है। अस्थियों व राख को किसी वन व उद्यान में ले जाकर उसे किसी नये पौंधे के नीचे डालकर उस वृक्ष के पौधे को लगाना भी हमें वैदिक सिद्धान्तों की दृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता। इसके पीछे जो भावना है वह सिद्धान्त की दृष्टि से उचित नहीं। यह भी एक प्रकार की अवैदिक परम्परा ही है। उससे न तो मृतक को और न उनके पारिवारिकजनों को कोई लाभ होता है। शव की राख व अस्थियों को किसी नदी में प्रवाहित करने से तो जल प्रदुषण ही होता है। लोग कई बार नदियों के जल को भरकर घर ले आते हैं, यदा कदा किसी पौराणिक कृत्य करते हुए उसका आचमन करते हैं वा उसे पीते भी हैं। ऐसा जल पीना हमें किसी भी प्रकार से उचित प्रतीत नहीं होता। यह भी हमारी व पीने वालों की अन्ध श्रद्धा ही होती है। यह बात अलग है कि किसी एक व कुछ नदियों के जलों को लम्बी अवधि पर रखने पर वह प्रदुषित व कीटाणुओं से युक्त न होता हो परन्तु यदि उसमें मृतक की राख व अन्य अशुद्धियां मिली हैं तो वह आचमन करने योग्य तो कदापि नहीं होता, ऐसा हम अनुभव करते हैं।

 

हम सभी जानते हैं कि मरने के बाद जीवात्मा का कुछ समय बाद उसके प्रारब्ध व कर्मानुसार पुनर्जन्म हो जाता है। मरने के बाद क्योंकि शरीर छूट गया होता है, इसलिए हम अनुभव करते हैं कि जीवात्मा को किसी भी प्रकार के सुख, दुख व पारिवारिक जनों की भावनाओं की किसी प्रकार से भी अनुभूति नहीं होती। पुनर्जन्म के सिद्धान्त से ही मृतक श्राद्ध का भी स्वतः खण्डन हो जाता है। जब मृतक का शरीर अन्त्येष्टि करके जला दिया गया और उसका कुछ ही काल बाद पुनर्जन्म वा गर्भवास हो जाता है, फिर उसके लिए श्राद्ध के नाम पर ब्राह्मणों व किसी अन्य को भोजन कराना उचित नहीं होता। यह अन्धविश्वास मात्र होता है। हां, यदि मृतकों के परिवार जन चाहें तो वर्ष में एक वा अनेक बार उनकी स्मृति व अकारण ही गरीबों को एकत्रित कर उन्हें भोजन करा सकते हैं और उनकी आवश्यकता की वस्तुओं की जानकारी लेकर उन्हें प्रदान कर सकते हैं। उन निर्धनों व उनके बच्चों को पढ़ा भी सकते हैं। यदि ऐसा करेंगे तो यह अधिक उपयुक्त एवं शुभ परिणामकारी हो सकता है।

 

उपर्युक्त विवेचन से यह ज्ञात होता है कि मृतक जीवात्मा की स्मृति में कार्यक्रम आयोजित कर उसके चित्र पर फूलमाला एवं फूल चढ़ाने की न तो आवश्यकता है न इससे किसी प्रकार का लाभ होता है। यह अवैदिक व अवैज्ञानिक परम्परा है। कुछ लोग चित्र पर फूल चढ़ा कर वहां चित्र के सामने हाथ जोड़ कर खड़े भी रहते हैं। यह भी घोर अवैदिक एवं अज्ञानपूर्वक कृत्य है। आर्यों को चाहिये कि वह अपने परिवार में किसी वियोग के अवसर पर इस प्रक्रिया को न होने दें व इसका स्वरूप बदले दे। इसका समाधान यह हो सकता है कि बड़ा सा चित्र बनवा या छपवा कर उसे पीछे लगाया वा टांगा जा सकता है जहां तक कोई आगन्तुक बन्धु न पहुंच सके। आरम्भ, मध्य व अन्त में पुरोहित से से इस विषय की संक्षिप्त चर्चा भी कराई जा सकती है। श्रद्धांजलि सभा, पगड़ी व उठाला आदि की रस्म में चित्र रखा तो जा सकता है परन्तु उस पर पुष्पमाला व पुष्प चढ़ाना हमें वैदिक सत्य परम्पराओं की दृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता। अतः इसे आर्यजनों को, यदि कहीं ऐसा होता हो, तो यथाशीघ्र बन्द कर देना चाहिये।

 

हम यह जानते हैं कि ऐसे समय पर मनुष्य दिवंगत के प्रति अपनी गहरी आत्मीय भावनाओं से भरा हुआ होता है। उस समय उसे कुछ कहना व बताना उचित नहीं होता है। कहेंगे तो उसे अधिक दुःख हो सकता है और परिणाम अच्छे नहीं होगें। अतः अन्य अवसरों पर आर्यजनों को इसकी परस्पर व सत्संग आदि में भी चर्चा कर लेनी चाहिये जिससे हमें अपने वैदिक कर्तव्यों का ज्ञान रहे और हम व हमारे बड़े ऐसे कृत्यों को परिवारों में न होने दें। हमने अपने विचारों को यहां स्पष्ट किया गया है क्योंकि हम से अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए कहा गया था। यदि इससे किसी को लाभ होता है तो अच्छी बात है। यदि कोई हमारी बात व भावना को समझ न पाये और उसे दुःख पहुंचता हो तो हम उसके प्रति सहानुभूति रखते हुए उसका धन्यवाद ही करेंगे। ओ३म् शम्।

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  1. महोदय ३ दिनों के बाद उस अस्थि संचय का क्या करे ये स्पष्ट करे

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