मुचकुंद दूबे के लालन शाह

प्रो. मुचकुंद दूबे ने हिंदी में वह काम कर दिखाया है, जो रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लालन शाह फकीर के लिए बांग्ला में किया था। लालन शाह एक बाउल संत थे, जिनका जन्म 1774 में हुआ माना जाता है और निधन 1890 में याने उन्होंने 116 साल की उम्र पाई। आज बांग्लादेश के घर-घर में उनके गीत गाए जाते हैं, चाहे वह घर मुसलमान का हो, हिंदू का हो या ईसाई का ! माना जाता है कि उन्होंने 10 हजार गीत बनाए थे। टैगोर ने 1915 में पहली बार उनके 20 गीत छपवाए।

लालन के गीतों की रक्षा वेदों की तरह श्रुति परंपरा में ही हुई है। प्रो. दूबे ने लालन को बांग्लाभाषियों के संसार से ऊपर उठाकर अब विश्व-स्तर तक पहुंचा दिया है। अब लालन विश्व में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा में पढ़े और सुने जाएंगे। उन्होंने लालन के 105 गीतों का हिंदी में अनुवाद किया है। इस अनुवाद की खूबी यह है कि हर बांग्ला गीत की पंक्ति में जितनी मात्राएं हैं, उतनी ही मात्राएं हिंदी पंक्तियों में हैं। शब्द का क्रम भी मूल बांग्ला की तरह ही है।

इसीलिए इन गीतों को जब आप हिंदी में सुनेंगे तो सुर, लय और ध्वनियां लगभग एक-जैसी होंगी। कल राष्ट्रपति भवन में इस ग्रंथ के विमोचन के पश्चात बांग्ला मूल और हिंदी अनुवाद में युति का आनंद लोगों ने तब उठाया, जब बांग्लादेश की प्रसिद्ध गायिका फरीदा परवीन ने लालन के गीत को दोनों भाषाओं में गाया। भारतीय विदेश मंत्रालय के सर्वोच्च पद (विदेश सचिव) पर रहे और कई देशों में राजदूत रहे, मुचकुंद दुबे ने इस ग्रंथ में अपने भाषा-ज्ञान और विलक्षण काव्य -प्रतिभा का प्रदर्शन किया है।

लालन शाह फकीर हिंदू थे या मुसलमान, इसका ठीक-ठीक पता किसी को नहीं है लेकिन वे बाउल संत थे, यह बात सब जानते हैं। बाउल का अर्थ क्या है? बावला ! याने मदमस्त, बेफिक्र, पागल ! बंगाल और असम में कई बाउल संतों की संगत करने का मौका मुझे मिला है। वे हाथ में इकतारा लिये गाते-गाते मस्त हो जाते हैं। वे न मंदिर-मस्जिद जाते हैं, न पूजा-पाठ और नमाज को मानते हैं। न उन्हें स्वर्ग-नरक में विश्वास होता है न पुनर्जन्म में !

वे ब्रह्मचर्य को काफी महत्व देते हैं और इसी देह में रहते हुए मोक्ष-प्राप्ति या ब्रह्म-साक्षात्कार की इच्छा रखते हैं। लालन शाह ने कबीर की ही तरह सभी धर्मों के पाखंडों पर जमकर प्रहार किया है। प्रो. दूबे ने मूल बांग्ला, उसी को देवनागरी में और फिर उसका हिंदी अनुवाद देकर अद्भुत कार्य किया है। मेरे-जैसा आदमी इस उम्र में यह पुस्तक पढ़कर बांग्ला भाषा सीख सकता है। मैंने तो बांग्ला-मूल का आनंद भी साथ-साथ लिया। यह ग्रंथ छापकर साहित्य अकादमी ने भारत-बांग्लादेश संबंधों को ही घनिष्ट नहीं बनाया है बल्कि सारी दुनिया में फैले हिंदीभाषियों के लिए बाउल विचारधारा का खजाना खोल दिया है।

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