मुस्लिम साम्प्रदायिकता का भयावह चेहरा- कश्मीर

-विनोद कुमार सर्वोदय-
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जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री एवं केन्द्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला द्वारा यह कहना कि यदि मोदी प्रधानमंत्री बने तो जम्मू-कश्मीर भारत से अलग हो जायेगा, उनके दिमागी दिवालियापन की जानकारी देता है। फारूक अब्दुल्ला ने कहा कि कश्मीर से हिन्दुओं का पलायन भूतपूर्व राज्यपाल जगमोहन जी के कार्यकाल में शुरू हुआ था। शायद वह यह भूल गये कि उनके पिता शेख अब्दुल्ला के समय में भी हिन्दुओं पर भीषण अत्याचार धर्म के नाम पर किये गये थे तथा उन्हें वहां से पलायन के लिये विवश किया गया था।

फारूक अब्दुल्ला जी को कश्मीर में हुए पाकिस्तानी मुस्लिमों के आक्रमण का इतिहास भी जानना चाहिये। जब कश्मीर पर पाकिस्तानी कबाईली लुटेरों और पाकिस्तानी सेना ने (1947 अक्टूबर में) आक्रमण किया और वहां हजारों हिन्दुओं का नरसंहार, माँ-बहनों का अपहरण, बलात्कार, हिन्दू युवतियों को मुसलमान बनाकर पाकिस्तानी लुटेरों के घरों में रहने के लिये विवश किया जा रहा था तब फारूक अब्दुल्ला के पिता शेख अब्दुल्ला ने भारतीय फौज को हिन्दुओं की रक्षा के लिये वहां पर कोई कार्यवाही नहीं करने दी। जिसके परिणाम स्वरुप आज जम्मू-कश्मीर के बडे प्रांत गिलगित, ब्लतिस्तान आदि पूरे के पूरे क्षेत्र पाकिस्तान के अधिकार में चले गये जिसे आज पीओके कहा जाता है।

उसके उपरान्त 1980 के दशक में कश्मीर से लाखों हिन्दुओं को धर्म के आधार पर अपनी ही मातृभूमि से बेदखल करके नारकीय जीवन जीने को विवश कर दिया गया। कश्मीर में हिन्दुओं पर जिहादी आतंकवादियों व मुसलमानों द्वारा भीषण अत्याचार किये गये उनके घरों को आग लगा दी गई, उनकी सम्पति लूट ली गई, उनकी बहू-बेटियों के साथ सामूहिक बलात्कार किये गये। उस समय घाटी की दीवारों पर लिखा जाता था तथा मस्जिदों से लाउडस्पीकरों से नारे लगाये जाते थे कि ‘हिन्दुओं घाटी छोड़ दो और अपनी औरतों को हमारे लिये छोड जाओं’। इन्हीं अत्याचारों के कारण कश्मीर घाटी से हिन्दुओं को अपने परिवार के प्राणों की रक्षा के लिये पलायन करना पड़ा।

जम्मू-कश्मीर में मुफ्ती महुम्मद सईद एवं अब्दुल्ला परिवार के शासन काल में लगभग 1000 खतरनाक आतंकवादियों को रिहा किया जा चुका है तथा 7000 से अधिक आतंकवादियों को पुनर्वास सहायता के रुप में 800 करोड़ रुपये बांटे गये एव उन्हें सरकारी नौकरियों दी गई (साभार पंजाब केसरी, 28/5/2012)। पिछले लगभग 15 वर्ष पूर्व के आंकडों के अनुसार भारत की केन्द्र सरकार ने 95 हजार करोड़ रुपया कश्मीरी मुसलमानों की सहायतार्थ बांटा। फिर भी आज कश्मीर में इस्लामी कट्टरपन्थियों का ही बोलबाला है। हिन्दुस्तान मुर्दाबाद और पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगाए जाते हैं, वहां पर हिन्दुओं व भारत को काफिर कहा जाता है, भारत के राष्ट्रीय ध्वज को जलाना और पाकिस्तानी ध्वज फहराना आम बात है। सुरक्षाबलों पर आये दिन पथराव होते हैं। परन्तु केन्द्र सरकार फिर भी कश्मीर घाटी के लोगों के लिये अपार धन राशि खर्च करती आ रही है।
कश्मीर से जो मुसलमान आतंकवादी बनने के लिये पाकिस्तान गये, जिन्होंने देश के शत्रु से हथियार लेकर भारत पर आक्रमण किया, सैंकड़ों निर्दोष नागरिको एवं सुरक्षाबलों की हत्या की उनको पुनर्वास नीति के अंतर्गत कश्मीर में ही वापस आर्थिक सहायता देकर बसाया जा रहा है, क्या यह उनको भारत के विरुद्ध हथियार उठाने का पुरस्कार नहीं दिया गया? वहीं दूसरी तरफ भारतभक्त हिन्दू जिनको इस्लामी कट्टरता के कारण अपना घर छोडना पड़ा उनके लिये कोई क्यों नहीं सोचता? क्या इसलिये की कि वह हिन्दू हैं?

कश्मीर में पिछले 3 दशकों से साम्प्रदायिकता का खुला खूनी खेल खेला जा रहा है, जबकि गुजरात में नरेन्द्र मोदी जी के शासनकाल में पिछले 12 वर्षों में सिर्फ 2002 में एक दंगा हुआ जिसकी शुरुआत भी कट्टरपंथी मुस्लिमों ने निर्दोष रामभक्तों को जिंदा ट्रेन में जलाकर की, जिसका रोना कथित धर्मनिरपेक्ष आज तक रो रहे हैं तथा मुस्लिमों की हत्याओं के झूठे आंकडों (इन दंगों में 800 के लगभग मुस्लिम हताहत हुए थे जिनको बढा-चढ़ा कर हजारों की संख्या में बताया जा रहा है) द्वारा ये कथित धर्मनिरपेक्ष, मानवाधिकारवादी समाज व विश्व को गुमराह कर रहे है। परन्तु मुस्लिम समाज की कट्टरता व साम्प्रदायिकता के जिस भयावह चेहरे का कश्मीर में प्रदर्शन हुआ उसमें वहां की सरकारों की जवाब देही पर देश-विदेश में किसी भी मानवाधिकारवादी ने अभी तक कोई आवाज नहीं उठाई क्यों?

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