भारत के अधिकांश भागों पर 700-800 वर्षो तक
शासन करने वाले आक्रान्ताओं के वंशजों को भारत की मुख्य धारा से अलग मान कर उन्हें दीन-हीन समझना क्या अनुचित नहीं ? इस्लाम के शासन में प्रायः अधिकांश मुख्य सरकारी पदों पर मुसलमान ही होते थे। हिन्दुओं की ही स्थिति अत्यधिक दयनीय होती थी। इस्लाम से छुटकारा मिला तो अंग्रेजों ने शासन किया। फिर भी हिन्दुओं की स्थिति अधिक नहीं सुधरी। बल्कि मुसलमानों की आक्रामकता व जिद्द के कारण उन्हें एक तिहाई भारत भूमि का भाग देने पर भी लगभग 3 करोड़ मुसलमान शेष भारत को इस्लामिक बनाने के लिए यहीं रुक गए, जिसके परिणामस्वरूप आज लगभग इनकी संख्या 25 करोड़ से ऊपर हो चुकी हैं।
क्या यह पूर्णतः सिद्धान्त के विरुद्ध नहीं था? मुसलमानों को दुर्बल व उपेक्षित मान कर उन पर दया करने वालों को पुनः विचार करना होगा? सन् 1947 के विभाजन की पूर्व संध्या पर लाखों निर्दोष हिन्दुओं की हत्या के रक्तरंजित इतिहास से स्पष्ट होता है कि मुसलमान सदा सम्पन्न, सशक्त व आक्रामक रहें। क्या केवल जिहादी सोच वाला दुर्बल व असहाय समाज अपने से अधिक सामर्थ्य वालों का यों ही कत्लेआम करके लूटमार करने का दुःसाहस कर सकता है? लेकिन एक भ्रमित व उदार विचारधारा के वशीभूत हमारे नेताओं ने मुसलमानों को पिछड़ा, निर्धन व उपेक्षित आदि मान लिया। फलस्वरूप स्वतंत्रता के बाद से अभी तक भी मुसलमानों को विशेष लाभान्वित किया जाता आ रहा है। जबकि आज भी भारत में निर्धन हिन्दुओं की संख्या मुसलमानों से अधिक है तो फिर उन हिन्दुओं की विशेष सहायता क्यों नहीं की जाती? यह दोगलापन क्यों ?
साप्ताहिक पत्रिका ‘पाञ्चजन्य’ 21.10.2012 में प्रकाशित प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ.सतीश चंद्र मित्तल के एक लेख “मजहबी, उन्मादी तथा राष्ट्र विरोधी खतरा” के अनुसार “जमात-ए-इस्लामी” की स्थापना 26 अगस्त 1941 को लाहौर में हुई थी, जिसका उद्देश्य विश्व में “इस्लामी राज्य की स्थापना” करना था, के संस्थापक मौलाना अबुल आला मौदूदी का स्पष्ट विचार था कि “जो भी लोग अपने को नेशनलिस्ट (राष्ट्रवादी) या वतनपरस्त (देशभक्त) कहते हैं, वे बदकिस्मत लोग या तो इस्लाम की नसीहतों से कतई नावाकिफ (अनजान) हैं या दीगर मज़हबों (अन्य मत-पंथो) का अलिफ, वे, पे (क, ख, ग) भी नहीं जानते या वे बिल्कुल सिफर ( शून्य) हैं। एक मुसलमान सिर्फ एक मुसलमान ही हो सकता है, इसके अलावा (अतिरिक्त) कुछ नहीं। अगर वह कुछ होने का दावा करता है तो मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि वह पैगम्बर साहब के मुताबिक (अनुसार) मुसलमान नहीं है।” मौलाना मौदूदी ने राष्ट्रवाद को शैतान तथा देशभक्ति को शैतानी वसूल (बड़ी बुराई) बतलाया। उन्होंने ‘नेशनलिस्म’ को मुसलमानों के लिए एक जहालत (मूर्खता) बतलाया। इस्लाम और राष्ट्रीयता दोनों भावना तथा अपने मकसद के लिहाज (उद्देश्य की दृष्टि से) एक दूसरे के विरोधी है। जहां राष्ट्रीयता है वहां इस्लाम कभी फलीभूत नहीं हो सकता और जहां इस्लाम है वहां राष्ट्रीयता के लिए कोई जगह नहीं है। राष्ट्रीयता की तरक़्क़ी (उन्नति) के मायने है कि इस्लाम के फैलाने का रास्ता बंद हो जाये और इस्लाम के मायने (अर्थ) है कि राष्ट्रीयता की जड़ें बुनियाद (नींव) से उखाड़ दी जाय। उन्होंने पाकिस्तान की मांग का विरोध किया था और कहा था कि इस्लाम विश्व का मजहब है तथा इसे राष्ट्रीय सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। परंतु पाकिस्तान बनने के बाद वे वहां चले गए और वहां इस्लामी राज्य की स्थापना में सक्रिय रहें। पर भारत में नए रूप में जमात-ए-इस्लामी-ए-हिन्द 1948 में बनाई गयी और उसके नेता मौलाना अबुल लईस नदवी को बनाया गया। इन्होंने भी रामपुर सम्मेलन में लगभग उसी भाषा का प्रयोग करते हुए कहा था कि “मुसलमानों के लिए बाजिव (उचित) है कि वे एक ऐसी पार्टी की शक्ल में उठ के खड़े हों जिसका मुल्क या मुल्की सरहद (देश की सीमाओं) से न कोई सरोकार हो न ही उसे कुछ लेना-देना हो। इस्लाम यह बर्दाश्त (सहन) नहीं कर सकता कि मुसलमान नेशनलिस्म या वतनपरस्ती (देश के प्रति निष्ठा) के लिए इस्लाम के असूल (कानून) छोड़ दें, मुसलमान को तो सिर्फ मुसलमान ही रहना है।” इस जमात के नेताओं ने पाकिस्तान बनने के बाद भी स्वयं को इस्लाम का सच्चा प्रतिनिधि व संदेशवाहक बताते हुआ यह भी दोहराया कि राष्ट्रवाद में सिवाय तबाही के कुछ नहीं मिलेगा। जमात में मुसलमानों को जीवन का उद्देश्य पूरी तरह से कुरान और शूरा के अनुसार चलने को बताया जाता है। ध्यान रहे कि भारत में जिहाद तथा मज़हवी उन्माद फैलाने में इस जमात के ही छात्र संगठन स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) का विशेष हाथ रहा है, जो आज अपनी इस्लामिक
आतंकी गतिविधियों के कारण ही प्रतिबंधित है।
ऊपरोक्त के अतिरिक्त अगर गहराई से अन्य मौलानाओं और मुस्लिम नेताओं के विचारों व इस्लामिक विद्याओं का अध्ययन किया जाय तो उनकी सोच भी मौलाना मौदूदी व उनके उत्तराधिकारियों आदि के विचारों की पोषक ही हैं ?
यह अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण व अमानवीय है कि मजहबी वर्चस्व स्थापित करने के लिए यह जमात पंथनिरपेक्षता में विश्वास नहीं करती। जो कि सर्वथा भारतीय संविधान के प्रतिकूल है। इसलिये राष्ट्रीय एकता, अखंडता व प्रभुसत्ता के लिए ऐसे सभी संगठनों से सावधान रहने की आवश्यकता है जो राष्ट्रवाद व देशभक्ति में विश्वास नहीं करते और जो भारत के इस्लामीकरण में ही समस्त समस्याओं के सामाधान को ही मुख्यधारा समझ कर देश के संविधान की भी उपेक्षा करते आ रहे है।
अतः जब यह सर्वविदित है कि विश्व में सर्वत्र मुसलमान की मुख्यधारा केवल इस्लाम है और इसके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं तो फिर हम व हमारा राष्ट्रवादी नेतृत्व कब तक मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने की मृगमरीचिका से बाहर नहीं निकलेगा? उन्हें नित्य कोई न कोई प्रलोभन दिया जाता रहे और वे फिर भी भारतीय संस्कृति व राष्ट्रीय अस्मिता से अपने को दूर रखें और संविधान की भी उपेक्षा करें तो इसमें किसका दोष है? हमारे नीति नियन्ताओं को निष्पक्ष रूप से इस दिग्भ्रमित विचारधारा को त्यागना होगा। उन्हें यह सोचना चाहिये कि कट्टरपंथियों को अपने में सम्मलित करने और अलगाववाद को दूर करने के लिए एक समान नीतियों व योजनाओं का निर्माण कैसे हो? वैसे भी धर्म/पंथनिरपेक्ष देश में धर्मों के आधार पर योजनाएं बनाना असंवैधानिक है। अतः मुसलमान को दीन-हीन मानना सर्वथा अशुद्ध होगा। उनकी मज़हवी रूढ़िवादिता और कट्टरता को वस्तु मान कर उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। इसलिये मुसलमानों की मुख्यधारा स्वतः ही एक मृगमरीचिका बन गयी है।
विनोद कुमार सर्वोदय
(राष्ट्रवादी चिंतक व लेखक)
गाज़ियाबाद