साहित्‍य

  हिन्दी लेखन में मेरी रुचि 

डॉ. मधुसूदन

न प्रवक्ता होता, न हिन्दी लेखन में मैं रुचि लेता. पहले टिप्पणियों में  विचार  रखा करता था.  एक बार प्रवक्ता ने दीर्घ टिप्पणी को ही आलेख बना दिया. तो  मुझे साहस हुआ और मैं आलेख भेजने  लगा. वर्ष के अंत में प्रवक्ता ने लेखकीय सम्मान दिया, और मेरा उत्साह बढा.

जन्मा  गुजराती परिवार में. शालेय शिक्षा  मराठी में हुई.शाला में दो वर्ष  ही हिन्दी  पाठ्य क्रम का एक विषय रहा. अतः  हिन्दी  विशेष पढ़ नहीं पाया.

पर मेरी हिन्दी अच्छी थी. कारण था संघ शाखा.शाखा में हिन्दी  चलती थी. अनायास अभ्यास हो जाता था.  इसी हिन्दी के बल पर और शाखा  के प्रोत्साहन पर, शाला में  आयोजित हिन्दी वक्तृता में भाग लिया, और पहला पारितोषिक मिला; मराठी में भी भाग लिया, तो, दूसरा  पारितोषिक मिला .उस समय ९वी वा १० वी कक्षा में था.

रवीन्द्र नाथ ठाकुर की ग्यारह कहानियों की हिन्दी पुस्तक पारितोषिक में मिली . और  मराठी में, साने गुरुजी की ’समाज धर्म -मानव धर्म; दोनों पुस्तकें  पढने का प्रयास किया, पर  विशेष समझ नहीं पाया, फिर भी पुस्तकों  में प्रायोजित भाषा  से प्रभावित था. और  उनके संस्कृतनिष्ठ शब्दों से सम्मोहित था. वैसे ८ वी कक्षा से ही संस्कृत पढाई गई थी. और  काफी रोचक रीति से, प्रतिबद्ध संस्कृत शिक्षक  पढाते थे. फलस्वरूप  हिन्दी और मराठी वक्तृता में , मुझे संस्कृत का आश्रय काम आया.
गुजराती, मराठी वा हिन्दी वक्तृत्व में एक  रहस्य जाना था. इस रहस्य के लिए मेरे हिन्दी शिक्षक को  कृतज्ञता पूर्वक श्रेय देता हूँ. जब कोई शब्द न मिले, तो संस्कृत का शब्द लगा देता था. और सभी  भाषाओं में  वक्तृता का स्तर  ऊंचा  उठ जाता था. जो बात मराठी की थी वही बात हिन्दी और गुजराती की  थी.   इन तीनो भाषाओं पर कुछ अधिकार और अनुभव से कह रहा  हूँ. पर आज निःसंदेह मानता हूँ, कि, यही  सारी प्रादेशिक भाषाओं के विषय में भी सत्य है. ऐसा  भारत की एकता का यह चमत्कारी सूत्र आज तक क्यों ओझल रहा?
यह, ध्रुव सत्य, जो  देश की एकता को प्रोत्साहित करना चाहते हैं, जान ले, कि, संस्कृत को प्रोत्साहित करने से ही हमारी प्रत्येक प्रादेशिक भाषा  जो संस्कृत शब्दों से , सिंचित और समृद्ध  है,  राष्ट्र की एकता का प्रबल कारण सिद्ध होगी.
मेरी  भुलेश्वर सायं शाखा (मुम्बई) में हिन्दी  ही चलती थी. भुलेश्वर  व्यापारी वर्ग से भरा हुआ था.  मेरी शाखा में स्वयंसेवक  अधिकतर गुजराती, सिंधी, हिन्दी,पंजाबी और मराठी भाषी थे. आज लिखते समय सर खुजला कर सोच रहा हूँ, शाखा में  तिल मात्र भेदभाव   नहीं  था.  प्रत्येक  भाषा और जाति के स्वयं-सेवक  होते थे. पर कभी किसी की जाति पूछी नहीं जाती थी. परिचय करते समय भी जाति का उल्लेख नहीं होता था.

पर संघ से बाहर ही, जातियों को आरक्षित, पिछडी, दलित, हरिजन, इत्यादि नाम देकर जाति भेद को उकसा कर पोषण दिया गया है.

जिस औषधि से जाति भेद मिटना  चाहिए था, वही  भेद बढ रहा है. जन जन में वैमनस्य  भी घटने के बदले बढ रहा है.

इस से विपरित, संघ कभी जाति पूछता ही नहीं. न भेद को  अधोरेखित कर उजागर करता है. और इसी  शांत प्रक्रिया द्वारा संघ जाति भेद मिटाने में सफल है.और  वयंकार  जगाकर विशुद्ध  राष्ट्रीयता दृढ करने में सफल है.शाखा में, स्वयंसेवक को सहायता  आवश्यक हो,  तो, बिना जाति का विचार किए,  दी  भी जाती थी.  इस बात का पता चार से बढ कर  छः कानों  तक भी नहीं पहुँचता  था. इसे शाखा में अंगांगी भाव कहा जाता है. शरीर का एक अंग क्षतिग्रस्त होने पर उसी शरीर का दूसरा अंग (उदा. हाथ ) उस अंग को सहलाता है. इस में कोई नीचता-वा ऊचता का भाव ही नहीं होता.
पर, ऊंचे मंच पर खडे होकर अन्य संस्थाएँ  कहती है; “आओ, तुम हरिजन हो, या नीची जाति के हो ” हम तुम्हें सहायता  दिलवा कर  बराबरी का अधिकार देंगे. और तुम्हें  समानता  दिलाने के लिए संघर्ष करेंगे.

पर, ऐसे संघर्ष से  समाज में शत्रुता जन्मती है.  वास्तव में, इसी में भेद के बीज छिपे हैं. फल स्वरूप, हम अपने  बंधुओं को हीनता का आभास कराते हैं. साथ संघर्ष से  समाज में, प्रेम नहीं  शत्रुता बढती है. विपरीत परिणाम निकलता है.

इस संघर्षवादी पश्चिमी विचारधारा  के अनुकरण ने परिवार और समाज को   विगठन  के द्वार ला खडा  किया  है. समन्वयवादी भारत भी  पथभ्रष्ट  हो रहा है. पश्चिम खाई में गिर चुका है. ऊपर उठ नहीं सकता. भारत अब भी समय है,  संभल जाए.
कुछ विषयान्तर हो गया.  मूल भाषा पर विचार चल रहा है. संघ के,  उत्सवों पर प्रतिष्ठित और  समर्पित  वक्ता  शाखा पर आते और भिन्न भिन्न  विषयों पर  शुद्ध हिन्दी में बौद्धिक देते.  पश्चात दूसरे दिन,  उन पर चर्चा और विचार किया जाता था.
जब ९ वी कक्षा में था तब  प्रथम वर्ष संघ शिक्षा वर्ग के लिए चुना गया, और  पुणे गया तो संस्कृत-निष्ठ हिन्दी की  सम्मोहिनी  से विद्ध हो कर ही लौटा.

प.पू. गुरुजी, मा.पण्डित सातवलेकर,  मा. बाबा साहेब आपटे, मा.भय्याजी दाणी, मा.अप्पाजी जोशी, मा. दीनदयाल जी, मा.  अटलजी और ऐसे  ढेर सारे प्रथम पंक्ति के  हिन्दी वक्ताओं को सुना.ऐसे ज्ञान का उत्सव  ३० दिन तक चला.  उन व्याख्यानों में संस्कृत शब्दों की  प्रचुरता, अर्थवाहिता  एवं गुणदर्शक  सौन्दर्य  और गेयता से भारित था. गीतों में भी संस्कृत की प्रास शक्ति का परिचय होता था. मैं ने मेरी  वही में  वहाँ के सारे व्याख्यानों का विवरण लिख लिया .  जब घर गया तो फिर से उन्हें सुवाच्य अक्षरों में  लिखा. जिसके फल स्वरूप वो व्याख्यान प्रायः कण्ठस्थ हो गए. जब आगे मुझे विस्तारक के नाते कोंकण में दापोली भेजा गया तो वो सारे कण्ठस्थ व्याख्यान काम आए. मैं १० वी कक्षा में पढता था, पर शिविर का संचालक नियुक्त हुआ था.

शिविर के समारोप के दिन रत्‍नागिरि  से वक्ता आनेवाले थे. कुछ कारणवशात आ नहीं पाए.

तो मधुकर राव झवेरी ( बन गया ) को वक्ता बनना पडा. मैं ने डॉक्टर साहब के अंतिम बौद्धिक का उल्लेख करते हुए प्रस्तुति की. जो काफी प्रभावी रही. मेरा संघ शिक्षा वर्ग  के बौद्धिकों का विवरण जो दो बार लिखने से परिमार्जित हुआ था, मस्तिष्क में पडा था. प्रभाव जमा गया.

आगे मराठी और गुजराती में कविताएँ लिखी ; और  दोनो में संस्कृत शब्दों के प्रयोग से सफलता पाई.

एक बार मुम्बई में, गणेशोत्सव में मैंने गुजराती कविता प्रस्तुत की और  सफल  गुजराती साहित्यिक श्री. चुनिलाल  मडिया ने मेरी कविता  का उल्लेख कर, मुझे नवोदित कवि के नाते सम्मान दिया.

पिता जी,  मैं उनकी उपस्थिति से विचलित न होऊँ, इस लिए बिना बताए आ कर श्रोताओं में, बैठे थे. घर जाने पर माता जी ने बताया था. पिताजी का प्रोत्साहन शब्दों में कठिनाई से व्यक्त होता था. उनकी उस सम्मेलन में, उपस्थिति ही मेरा पारितोषिक था.

शाला के वार्षिक सामयिक में दो बार मराठी कविताएँ प्रकाशित  हुयी थी. मैं प्रोत्साहित था.

सांप्रत  हिन्दी लेखन की प्रेरणा का संकेत स्व. पूज्य  अशोक जी  सिंघल का था.  मैं प्रवक्ता में लिखने वाले डॉ. राजेश कपूर जी के आग्रह पर, वक्तव्य के लिए,  हिमाचल प्रदेश वि. वि. के आमंत्रण पर,  २०११ में सोलन (हि. प्र.) गया, तब अशोक जी  से भेंट करने पहुँचा  तो अशोक जी ने  प्रवक्ता में प्रकाशित  मेरे ३-४ आलेख देख कर मुझे लेखन में प्रेरित किया.

साथ  वि. हि. परिषद अमरीका के  भगीरथ संगठक, डॉ. महेश मेहता जी का प्रोत्साहन भी  रहा.

अधिकतर  हिन्दी का  ही लोकप्रिय  वक्ता रहा हूँ.  परिषद में और जन जन में कविताओं के लिए और वक्ता के नाते  काफी आमंत्रित रहा हूँ. जिसका श्रेय भी संघ, परिषद और  अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति को है.

अमरीका में  विश्व विद्यालय में, प्राध्यापक  होने के कारण, अंग्रेजी में  निर्माण अभियांत्रिकी पढाने का और  संशोधन-लेखन  का अनुभव है. अमरीका के  गुजराती सामयिको में  कुछ आलेख, और कविताएँ भेजी हैं.

गुजराती के प्रतिष्ठित कवि ’माधव रामानुज’ जी की प्रस्तावना सहित गुजराती में  मेरा  कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है. Indian Family System नामक संकलन  में  अंग्रेज़ी आलेख  काफी सराहा गया है.  WAVES की ,   Vedanta Congress की, गुजराती साहित्य परिषद की, और अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति  की गोष्ठियों में, अनेक बार  वक्ता रहा हूँ, कविताएं भी प्रस्तुत की हैं.  अंग्रेज़ी में  संशोधन और  विभिन्न सांस्कृतिक विषयों पर आलेख लिखे  हैं. अभियान्त्रिकी के कार्यका उल्लेख इस आलेख में अनुचित है.

अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति द्वारा  ही ’हिन्दी रत्न’ से सम्मानित हूँ. और प्रवक्ता की ओर से लेखकीय सम्मान भी मिला है. विश्व हिन्दू परिषद (यु. एस. ए. ) द्वारा  दार्शनिक एवं चिंतक  के नाते सम्माना गया हूँ. “……..As a true scholar who thinks deep and a philosopher with a gaze at the horizon and beyond, ….इन शब्दों में परिषद का प्रशंसा युक्त  स्वर्ण रंगी फलक  मिला है. उसी में आगे लिखा है “….enlivening this journey with your wit, subtle humor and splendid, insightful poetry…..”भारतीय विचार मंच (सदर्न कॅलिपॉर्निया) की ओर से भी सम्माना गया हूँ. अन्य छोटे बडे सम्मान भी मिले हैं.

मैं ने मानदेय  की माँग कभी नहीं की. इस परदेश में, जब “कृण्वन्तो विश्वं आर्यं ” को उजागर  करने का अवसर  सामने हो, उसे  क्षुद्र मानदेय के लिए खोया न जाए. बिना माँगे मानदेय कभी कभी मिला है. विशेषतः  भारतेतर संस्थाएँ  बिना माँगे मानदेय देती है. ऐसा मानदेय  जन हितैषी कामों में लगा दिया है. मानदेय सहित कभी कभी सपत्‍निक  प्रवास व्यय भी मिला है.

और  एक ही सप्ताहांत में, शुक्रवार की संध्या एक, शनिवार को तीन, और रविवार के सबेरे एक मिलाकर कुल पाँच प्रस्तुतियाँ  कर पाया हूँ. पर  ऐसे व्याख्याता ही रहा था.  प्रवक्ता के कारण हिन्दी लेखक भी बन पाया.
संपादक  श्री. संजीव सिन्हा, और साम्प्रत  संपादक श्री. भारत भूषण  एवं  नेपथ्य में रहने वाली प्रवक्ता की प्रबंधक  मंडली  सभी धन्यवाद के अधिकारी  हैं.

विभिन्न गोष्ठियों में  हिन्दी में  ही वक्तव्य देने की हठ-धर्मिता  के लिए, पहिचाना जाता हूँ.  कुछ बंकिम  (टेढा) बिहारी  हूँ, और यह टेढेपन का बंकिम (बाँका) पर्याय मेरे नाम मधुसूदन को  सार्थक करता है. मैं  हिन्दी का प्रखर पुरस्कर्ता हूँ.