व्यंग्य

मेरा गुरु महान

guru                                   

मेरे  देश मे गुरु घंटालों का,

मेला लगा है।

कहीं बाबा निर्मल,

कहीं आसाराम तो,

कहीं रामपाल हैं।

कहीं आनन्दमयी तो,

तो कहीं निर्मला मां हैं।

सबने लोगों के मन पर,

झाडू लगाई हैं ।

साबुन से घिसा,निचोड़ा,

दिमाग़ की कर दी धुलाई।

अब कोरा काग़ज़,

जो चाहें लिख दो,

भक्त जयकारा ही करेंगे।

उनके लियें जियेंगे,

उनके लियें मरेंगे,

वो कहें तो पहाड़ चढ़ेगें,

वो कह दें तो समंदर मे डूबेगें,

वो चाहें तो आतंक भी फैलायेंगे।

गुरु उनकी रक्षा कर सकें ,

या ना करें सकें,

वो गुरु के लियें,

जान पर खेल जायेंगे।

 

गुरु भी तरह तरह के,

यहाँ मिलते हैं।

कुछ बुरे कुछ बहुत बुरे भी,

फलते हैं।

अच्छे भले लोगों का,

यहाँ नहीं काम है।

 

एक थे सत्य साँई बाबा,

बड़े गुणी बड़े चमत्कारी!

कहीं से विभूती,

कहीं से अंगूठी निकाली!

बड़े बड़े धनी उनके पुजारी,

पुट्टापर्थी मे एक दुनियाँ संवारी।

अस्पताल स्कूल कौलिज बनवाये,

मरने के बाद करोड़ों,

कमरे मे कहाँ से आये?

कोई भक्त हिसाब तो बताये!

 

कोई कोई गुरु तो,

धन भी नहीं जोड़ते,

ये तो केवल सत्ता का,

सुख ही हैं भोगते।

समाज सुधारक हैं,

शिक्षाविद भी है ये,

सलाह हर विषय पर ,

मुफ्त मे बाँटते,

बस एक अर्ज़ी लगादो,

दरबार मे,

चुटकी मे उलझन सुलझती,

प्यार मे!

ये सबको अंगूठे पे नचाते हैं,

मदारी- झबूरे का रिश्ता निभाते हैं।

भक्त जीते मरते ,

इनही गुण गाते हैं।

लोकतन्त्र के एक कोने मे,

कोई तानाशाह रहते है,

जो सुनते नहीं सिर्फ़ सुनाते हैं,

उनके साये मे लोग किसान या,

मज़दूर भी बन जाते हैं।

बाहर आते ही,

अपने रूप मे आजाते हैं।

सुबह शाम बस,

राधास्वामी राधास्वामी

गाते हैं।