मेरी मां लिखा करती थी,
रोज़ डायरी का इक पन्ना,
ये सिलसिला कब शुरू हुआ,
कैसे शुरू हुआ ये तो याद नहीं,
पर तब तलक चलाता रहा..
जब तक होशो हवास थे।
कितने साल तक लिखा ,क्या लिखा,
ये तो पता नहीं,
पर कुछ किस्से, कहानी और कविता
सुना देतीं वो खुद ही कभी कभी।
शादी ब्याह में या तीज त्योहार पर भी
लोक धुनों पर जड़दिया करती थीं ,
अपने शब्द वो कभी कभी
पर डायरी से बाहर कोई पन्ना ,
आया कभी नहीं।
उस डायरी को छूने का हक़ नहीं था,
किसी को भी।
वो तो चली गईं, कई दशक गुज़र गये,
न जाने कौन से उद्गार भरे हों,
किसके लिये हो क्रोध और किससे हों नाराज़!
ये जानने की हिम्मत हममे न कल थी न आज है।
तीस सालों से ये रहस्य बक्से में बन्द हैं।
न ताला लगा है, न चाबी ही गुम है,
और न विरात का कोई झगड़ा!
दोनो भाई भी चले गये,
पर बक्सा अभी भी बंद है।
शायद आने वाली कोई पीढ़ी,
ये बक्सा खोल के देखे,
जिन्हे देखा नहीं कभी उनको ,
पढ़कर ही कोई देखले!