संघ प्रचारक का पीएम बनना और प्रणाम कर संसद की प्राण प्रतिष्ठा करना

-प्रवीण गुगनानी-
modi bowed

दो प्रतीकात्मक घटनाएं जिनसे भारत बदलेगा:-

नरेन्द्र दामोदर दास मोदी के प्रधानमन्त्री बननें की संभावनाएं तप गुजरात विधानसभा चुनाव २०१२ के बाद यानि लगभग दो वर्षों पूर्व ही जन्म लेकर बलवती होनें लगी थी. नरेन्द्र भाई मोदी के प्रधानमंत्री बनने की चर्चा अवश्य ही सतह पर थी, किन्तु सतह के नीचे कहीं कुछ था जिससे कि इस व्यक्ति के प्रधानमन्त्री बनने के नाम मात्र से कुछ लोगों के पेट में मरोड़, नीचे में पेचिश, दिमाग में तपिश और ह्रदय में सांप लोटने लगते थे! वस्तुतः नरेन्द्र मोदी का संघ का प्रचारक रहना इन विरोधियों के कष्टों का मूल कारण था. देश में आरएसएस के विरोधियों ने जिस प्रकार संघ के विरुद्ध योजनाबद्ध होकर सतत-निरंतर एक भ्रामक वातावरण निर्मित किया था, उससे ही नमो के नाम को लेकर हंगामा बरपने लगता था. संघ के वे राजनैतिक विरोधी जिन्होंने संघ का तनिक सा भी अध्ययन किया हो, वे भयभीत रहते और जानते थे कि संघ के अंदरूनी ढांचे से विधिवत घोषित “प्रचारक” का व्यक्तित्व कैसा होता है? वे यह भी जानते थे कि यदि एक “प्रचारक” को भाजपा का शीर्ष पुरुष बनाया गया तो भाजपा पवित्रीकरण और लक्ष्य के प्रति समर्पण की पराकाष्ठा पर पहुंचेगी और तब एक प्रचारक की भाजपा को परास्त करना दुष्कर ही नहीं, बल्कि असंभव भी होगा! संघ विरोधी यह भी जानते थे कि आरएसएस का राष्ट्रवादी विचार यदि इस देश के नागरिकों में व्याप्त होने लगा तो वह एक सुनामी बन कर इस देश से छदम धर्मनिरपेक्षता, स्वार्थ परक राजनीति, परिवारवाद, भ्रष्टाचार आदि अनेकों दोषों और दोषियों को निर्ममता से बहा ले जाएगा! और ऐसा हुआ भी. एक प्रचारक आवश्यक रूप से स्वयंसेवक होता है और विरोधी यह जानते हैं कि स्वयंसेवक होने का नशा ऐसा सिर चढ़ कर बोलता है कि प्रधानमन्त्री रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिका के स्टेटिन आयलैंड में भाषण देते हुए कहा था कि मैं पहले स्वयंसेवक हूं और फिर भारत का गौरवशाली प्रधानमन्त्री. वस्तुतः एक स्वयंसेवक में यह भाव उस प्रार्थना से आ जाता है जिसे वह प्रतिदिन शाखा में सस्वर पाठ करता है और जो “नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे” से प्रारम्भ होकर “समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम्” पर भारत माता की जय के साथ समाप्त होती है.

एक प्रचारक का आचरण कैसा होता है, संसद भवन में प्रवेश के प्रथम दिन इस आचरण का अल्प परिचय देखकर पूरा देश गदगद, अभिभूत, भावूक और प्रसन्न हो गया. जब एक प्रचारक रहे व्यक्ति नरेन्द्र मोदी ने संसद में प्रवेश के समय संसद की पेढ़ी को माथा टेक कर प्रवेश किया तब लगा कि सात दशकों बाद इस भवन में प्राण प्रतिष्ठा होनें जा रही है. यही वह प्राण शक्ति होगी जिससे देश में आमूल चूल परिवर्तन होगा. इस देश के सामनें संघ “प्रचारक” रहे नरेन्द्र मोदी का परिचय संसद में प्रथम दिवस उनके बरबस ही छलक आये आसुओं से ही हो जाता है और इन अभूतपूर्व वाक्यांशों से भी जो उन्होंने प्रथम दिन संसद के केन्द्रीय कक्ष में कहे. देश का बिगड़ा मूड ठीक होने लगा और आशा का संचार होने लगा जब देश के प्रधानमन्त्री ने कोयल के नम्र स्वर में यह भीष्म वचन कहे कि “देशवासियों! निराशा छोड़ दीजिये, कि आप एक कदम चलें, यह देश सवा सौ करोड़ कदम चलेगा, कि मैं परिश्रम की पराकाष्ठा कर दूंगा, कि भाजपा मेरी मां है, कि मेरी सरकार सभी की सरकार है और सभी राजनैतिक दलों का मुझ पर अधिकार है, कि इस देश में जो जो भी अच्छा हुआ है उस अच्छे को करने वाले बधाई के पात्र हैं. भला इस देश की राजनीति में ऐसे वाक्य और ऐसा आचरण एक प्रचारक को छोड़कर और कौन प्रस्तुत कर सकता था ?

एक सामाजिक, सांस्कृतिक संगठन के रूप में विगत नब्बे वर्षों से राष्ट्र में जागृत, चैतन्य और ज्योतिर्मय भूमिका निर्वहन करने वाले इस संगठन को समझ पाना भी टेढ़ी खीर ही है. संघ कब, क्या, क्यों, कैसे, कहां, कितना बोलेगा, दिखेगा और करेगा यह एक अबूझ पहेली ही है. किन्तु यह एक सुखद तथ्य है कि सामान्य नागरिकों के लिए संघ अबूझ पहेली तो हो सकता है किन्तु रहस्यमय नहीं हैं, संघ अपने स्वाभाविक या यूं कहें सरल, सहज, सुबोध रूप में अपने कार्यों से समाज में व्याप्त रहता है. आज संघ समाज शक्ति और अपने इन प्रचारकों के दम पर ही अपने लगभग एक सैकड़ा सम्वैचारिक संगठनों और सहस्त्रों प्रकल्पों और आयामों के दम पर समाज के हर क्षेत्र में अपने संगठन और विचार को एक शलाका के रूप में आकार दे चुका है. जो राष्ट्रीय सेवक संघ को जानते हैं संभव है कि वे वे प्रचारकत्व को थोड़ा बहुत समझते हों, किन्तु जिनका संघ से अल्प परिचय या अपरिचय है उनके मन में कौतुहल और जिज्ञासा रहती है कि आखिर ये संघ का प्रचारक होता क्या है? आज जब इस देश के सर्वोच्च विधायी पद पर एक संघ का एक प्रचारक विराजमान हो गया है तब स्वाभाविक ही है कि देश में आरएसएस के प्राण तत्व यानि “प्रचारक” की अवधारणा को लोग समझें और जानें. मोटे तौर पर कहा जा सकता है कि संघ का प्रचारक वह स्वयंसेवक होता है जो अपना सामान्यतः अपनी नई आयु के समय में ही अपने परिवार को छोड़ कर संगठन को कुछ वर्ष या जीवन दान कर संघ कार्य को ही अपना लक्ष्य और संघ आज्ञा को ही अपनी नियति और सीमा मान लेता है. प्रचारक होने के बहुत से सांगठनिक और तकनीकी पक्ष भी होते हैं, जैसे समाज में ही भोजन ग्रहण करना इत्यादि जिनका यहां उल्लेख अनावश्यक है.

संघ उसके स्वयंसेवक और उसके प्रचारक इन्हें समझ पाने और इनकी थाह लेने के प्रयास पिछले माह ही धराशायी हो गए थे, जब सरसंघचालक मोहनरावजी भागवत ने गत लोकसभा चुनाव अभियान के चरम में और सर्वाधिक संवेदनशील दौर में यह दिया था कि संघ के कार्यकर्ता भाजपा का कार्य करते हुए अपनी मर्यादा में रहें. स्वयंसेवक अपने सांस्कृतिक और सामाजिक यज्ञ में संलग्न रहें “नमो नमो करना एक स्वयंसेवक का काम नहीं है”. जब संघ के सर्वोच्च नेता ने यह कहा था तब पूरा राजनैतिक जगत मुंह खोले अवाक रह गया था, क्योंकि सभी जानते थे कि प्रधानमन्त्री के प्रत्याशी के रूप में नरेन्द्र मोदी संघ की पहली पसंद और प्राथमिकता में है. संघ और भाजपा की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण और महत्वाकांक्षी हो गए लोकसभा चुनाव के चरम समय पर ऐसी संघ प्रमुख का ऐसी बात कह देना यह दर्शाता है कि केंद्र की सत्ता और प्रधानमन्त्री का पद भी वह तत्व नहीं है जिसके लिए संघ अपनी सांगठनिक और चारित्रिक विशेषताओं को त्याग दे. संघ ऐसा ही है. सब कुछ करते हुए कुछ न करना, संलिप्तता में सराबोर रहकर निर्लिप्त रहना, सर्वव्याप्त रहकर अज्ञात रहना, सस्वर सर्वस्व का गीत गाते हुए सन्यासियों की भांति चुप्पी लगाएं रहना ये सब संघ के ऐसे गुण हैं जो नरेन्द्र मोदी ने एक स्वयंसेवक और प्रचारक रहते हुए आत्मसात किये हैं; और यही नमो की वह पूंजी है जो उन्हें अपने अन्य राजनैतिक प्रतिद्वंदियों से आगे ले जाती हुई शीर्ष पर बैठा चुकी है. संघ के भगवा ध्वज के गुरुत्व से प्राप्त इस पूंजी के कारण ही विरोधी उनसे घबरातें और धराशायी होते हैं.

एक बार भाषण देते हुए तत्कालीन सरसंघ चालक और गुरूजी के नाम से विख्यात माधव सदाशिव गोलवलकर ने 16 मार्च 1954 को कहा था संघ और स्वयंसेवक को परिभाषित करते हुए कहा था – “अगर हम यह मानते हैं कि हम किसी संगठन के सदस्य हैं और हम उसके अनुशासन को स्वीकार करते हैं तब हम अपने जीवन का रास्ता चुनने का अधिकार को समर्पित कर देते हैं. हमें वही करना है जो हमसे कहा जाए. अगर कबड्डी खेलने को कहा जाए तो कबड्डी खेलो, अगर बैठक करने को कहा जाए तो बैठक करो. हमारे कुछ साथियों से राजनीति के क्षेत्र में काम करने के लिए कहा गया है. इसका अर्थ यह नहीं है कि उन्हें राजनीति में कोई रूचि है. अगर उन्हें आज राजनीति से बाहर आने को कहा जाए तो भी कोई आपत्ति नहीं होगी. उनकी मर्जी का कोई महत्व ही नहीं है.” (श्रीगुरूजी समग्र र्दशन, खण्ड 3 पृष्ठ 32). किन्तु पाठकों को स्मरण रखना होगा कि संघ पूज्य गुरूजी के इस कथन के जो शाब्दिक अर्थ हैं- वह अर्थ सांघिक नहीं है, यहां भी गोलवलकर जी की इस भाषा का ध्वन्यात्मक अर्थ एक स्वयंसेवक ही समझ सकता है कोई अन्य नहीं.

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