नर्मदा के प्रबलवेग को अपने कमण्डल में भरने वाले योगी-देवदूत आदिशंकराचार्य

शंकराचार्य जयंती पर विशेष- आत्माराम यादव पीव

      आदिशंकराचार्य जी के विषय में कुछ भी लिखना मुझ जैसे व्यक्ति के लिये वही बात होगी जैसे कोई सूरज को दीपक दिखाये किन्तु सागर को अंजुली में भरने का यह अपराध में कर रहा हॅू ताकि आप तक उनका सूक्ष्मतम शब्दों में परिचय करा सकॅू। भारत वर्ष के केरल प्रान्त में प्रवाहित पूर्णा नदी के तट पर बसे ग्राम कलाड़ी में शिवगुरू भट्ट के घर 780 ई. में एक बालक का जन्म हुआ। उनकी माँ आर्याम्बा जिन्हें सुभद्रा के नाम से भी जाना जाता है, वृद्धावस्था में भगवान शिव की कृपा मानकर अपने बेटे का नाम शंकर रखा। एक वर्ष की अवस्था में बालक शंकर ने धाराप्रवाह बोलना शुरू कर दिया एवं तीन वर्ष की अवस्था में उसकी स्मृरणशक्ति विलक्षण हो गयी और वह जो कुछ भी सुनता उसे अक्षरशः दुहरा देता। उसे अनेक काव्यों और पुराणों के श्लोक कण्ठस्थ हो गये तब पिता ने उनका ’अक्षरभाष्य’ संस्कार संपन्न कराया। किन्तु ’अक्षरभाष्य’’ संस्कार कराने के कुछ दिन बाद ही उनके पिता का निधन हो गया। माता ने अपने पुत्र के अन्दर देदीप्यमान गुणों को पाकर पाॅचवे वर्ष में उन्हें गुरूकुल भेजकर इनका यज्ञोपवीत संस्कार सपन्न कराया।

      गुरूकुल पहुॅचते ही पाॅचवे वर्ष के कुछ माहों में ही बालक शंकर को चारों वेदों और उनकी शाखाओं का अद््भुत ज्ञान हो गया तब उन्हांंने प्रथम बार छह वर्ष की अवस्था में ही ’’बालबोधि-संग्रह’ लिखा जिससे उनके सहपाठी संस्कृतग्रंथों की समुचित व्याख्या कर सके। सातवे वर्ष में बालक शंकर सभी शास्त्रों में निष्णात हो गये और उनकी स्मरणशक्ति इतनी इतनी तीव्र थी कि वे किसी भी पुराण-शास्त्र एवं वेदों की ऋचाओं का कहीं से भी किसी भी पंक्ति का, किसी भी श्लोक आदि का प्रगटन ऐसे करने लगे जैसे वे उनके सम्मुख हो, उनकी इस प्रतिभा ने उन्हें वाद-विवाद में अपने विरोधियों का मुॅह पर ताले लगा दिये ओर वे वापिस पूर्ण विद्याध्ययन कर सम्पूर्ण ज्ञानसागर समेटे अपने घर लौट आये। 

      वे सच्चे अर्थो में पितृ-मातृ भक्त थे।जब तीन वर्ष की आयु में पिता का देहान्त हुआ तब तक वे जीवनदर्शन में प्रत्येक सम्बन्धों का दायित्व एवं कर्तव्य बोध को समझते हुये पिता की मृत्यु पर काफी मर्माहन्त थे। वे पिता के बाद माँ को अपना परमगुरू मानते थे और उन्हें असंतुष्ट करके कोई भी धर्मकार्य को स्वीकार्य नहीं मानते थे इसलिये जब वे सात वर्ष की अवस्था में गुरूकुल से पारंगत होकर आये तो माँ से कहा मैं सन्यास लेना चाहता हॅॅॅू, माँ बुढ़ापे का सहारा यूं ही खोना नही चाहती थी और उसके एक ही संतान थी इसलिये वे उसे अपनी आॅखों से दूर नहीं करना चाहती थी। माता ने अनुमति नहीं दी, एक वर्ष व्यतीत हो गया पर वे पूर्ण सन्यासी हो गये थे इसलिये सन्यासी का स्वगृह-प्रत्यावर्तन करना शास्त्रविरूद्ध मानकर घर का परित्याग नहीं किया।

        एक दिन की घटना है माँ और बेटे पूर्वा नदी पर स्नान करने गये। आर्याम्बा उन्हंं तटपर बैठकर निहार रही थी कि तब नदी के जल से आये एक मगरमच्छ ने शंकराचार्यजी का पैर पकड़ लिया तब बालक शंकर ने चिल्लाना शुरू कर दिया, बालक के पैर पकड़कर मगर उन्हें गहरे पानी में ले जा रहा था, वे डूब रहे थे और माँ असहाय होकर रो रही थी। बालक शंकर ने अपनी माँ से कहा माँ मुझे सन्यास लेने की आज्ञा दो, नही तो ये मगरमच्छ मुझे खा जायेगी। सूर्य किसी झोपड़ी में बंदी नहीं किया जा सकता इसलिये जगत में व्याप्त अधर्म के अंधकार और विधर्मियां को मार्ग प्रशस्त करने के लिय चिंतातुर बालक शंकर के भी यही हाल थे और वे मगरमच्छ द्वारा पैर पकड़कर उन्हें नदी में ंखीचें जाने के अवसर पर शांत थे, स्थिर थे, माँ ने देख लिया कि मगर उनके बेटे के प्राण लेने को तैयार है और बेटा सन्यास लेने की बात कर रहा है। माँ आर्याम्बा ने पुत्र के विपदा में फॅसे होने पर उसके प्राणों की रक्षा के लिये उससे मोह त्याग कर कहा बेटा मंैं तुझे सन्यास लेने की आज्ञा देती हॅू किन्तु एक शर्त है तू मेरी मृत्यृ के समय आ जाना और मेरी अन्त्येष्टि करना। पुत्र के जीवन को मगरमच्छ से बचाने के लिये माँ की आज्ञा मिलते ही आश्चर्य की बात हुई कि तुरन्त मगरमच्छ ने बालक शंकर का पैर छोड़ दिया। नदी से बाहर निकलकर बालक शंकर ने अपनी काॅ को दण्डवत प्रणाम किया और प्रतिज्ञा की कि वह अंतिम दिनों में माँ की सेवा में उपस्थित रहेंगे, शंकर ने माँ को वचन दिया और निभाया भी।

       सन्यास लेने के बाद सन्यासी का धर्म अपने परिवार से नाता-रिश्ता त्यागना होता है। जब वे श्रृंगेरी आश्रम से वातापि आश्रम गये तब तेलंगाना के इस आश्रम में नियमों को कठोरता से पालन किया जाता था और किसी भी सगे-संबंधी से सम्पर्क की मनाही थी। सन्यास के बाद सन्यासी का कोई भी सगा-सम्बन्धी नही होता, सब नाते-रिष्ते सन्यासी के लिये मायने नहीं रखते, क्योंकि उसे तब सिवाय अपने धर्मपालन के किसी ओर से मोह-ममता का सम्बन्ध पूर्णतया विच्छेद हो जाता है।शंकराचार्य  की पदवी मिलने तथा चारों मठों की स्थापना करने के बाद उनका धर्मप्रचार और दिग्विजय कार्य सम्पन्न हो गया। वे बदरीकाश्रम में बदरीमठ में थे, उन्हें अपनी माँ के रोगग्रस्त होने व रोगषैया पर होने की सूचना मिली। चॅूंकि वे योग से अपनी माँ के अन्तिम समय को देख चुके थे इसलिये वे वहां से माँ के पास रवाना हुये और माँ के मिले, मिलने के पष्चात माँ ने अपने प्राण त्याग दिये। उन्होंने माँ की अंत्येष्टि की तैयारी की, तब के समाजजनों ने एक सन्यासी का सन्यास के नियमों को त्यागकर परिवार के प्रति मोह रख अपनी माँ की अंत्येष्टि करने को शास्त्र विरूद्ध ठहराकर विरोध किया। शास्त्र की मर्यादा तोड़ने का हवाला देकर लोगों न शवयात्रा में शामिल होने से इंकार कर दिया। आचार्य शंकराचार्य ने अपनी माँ के शव को अपने कन्धे पर रखकर श्मशान तक पहुॅचाकर उनकी चिता सजाई और उसपर माँ को लिटाकर विधिविधान से मुखाग्नि दी। यह घटना शंकराचार्य के क्रान्तिकारी स्वरूप को प्रकट करती है और संदेश देती है कि जब परम्परायें बाधक बनने लगे तो उन्हें छोड़ देना चाहिये। मनमानी के लिये किये गया त्याग न तो प्रगतिशीलता की निशानी है और न ही उपयोगी है।

        आठ वर्षीय बालक शंकर की मातृभक्ति की चर्मोत्कृष्टता एवं परम आदर्श का यह एक उत्कृष्ट उदाहरण है। उन्होंने गृह त्याग से पूर्व जगत को यह शिक्षा दी कि माता-पिता परम देवता है,उनको संतुष्ट करके ही तृप्ति पायी जा सकती है,पर वे अपने विषय में यह जान चुके थे कि उनको मिली तृप्ति से वे स्वयं संतुष्ट नहीं थे, किन्तु उनकी गुरूभक्ति और साधना की दिव्य अलौकिता पूर्णावस्था में रूपान्तरित होने को उसी प्रकार तत्पर थी जैसे शिव के मस्तक से धरा को पावन करने के लिये गंगा व्याकुल थी। बालक शंकर मात्र 8 वर्ष की आयु में माँ की अनुमति से घर से निकल तो गये लेकिन वे वहां से भयाभय नदियों को पार करते रास्तंों की चुनौतियों का सामना करते, प्राकृतिक अवराधों पर विजय प्राप्त कर घने जंगलों को पार करके पश्चिम के चालुक्यों के क्षैत्र से गुजरे। उन्होंने गोदावरी को पार कर दण्डकारण्य की यात्रा की, यह वही मार्ग था जिसपर श्रीराम होकर गुजरे थे। वे जब दण्डकारण्य के मार्ग पर होकर निकले तब उन्हें मार्ग में इन्द्रावती ओर महानदी पर भी विश्राम करने का अवसर मिला तभी शंकरभाष्यों में महानदी को तीर्थ सम्बोधित किया गया। महानदी को पार कर वे अमरकण्टक आये जहाॅ नर्मदा के उदगम स्थल से उन्होंने नर्मदा की परिक्रमा शुरू की और ओंकारंश्वर जाकर वे वहां गुरू गोविन्दपादाचार्य के आश्रम की और चल पड़े।        ओंकारेश्वर तक आते-आते बालक शंकर की आयु 12 वर्ष हो गयी थी और 792 ई. में बसंतपंचमी के दिन वे तलाशते हुये गोविन्दपादाचार्य के आश्रम स्थित उनकी गुफा द्वार पर पहुॅचे और उन्हें दण्ड़वत प्रणाम कर उनकी स्तुति गाकर प्रार्थना की। गुरू उस समय तपस्यालीन थे उन्होंने आॅखें खोलकर संस्कृत में की गयी उनकी प्रार्थना एवं स्तुति सुनकर प्रसन्नता व्यक्त कर हर्षोन्माद से शंकर से कहा’’अच्छा तुम वहीं केलाशपर्वत वासी श्ंाकर हो।’’ उन्हें शंकर के समूचे व्यक्तित्व एवं गहन अध्ययन से पूर्णवेत्ता के मर्म को समझ लिया और उनके मुखमुण्डल पर ज्ञान के प्रकाश को देखकर उनकी विनम्रता पर उन्हें अपना शिष्य बना लिया।

        मध्यप्रदेश की धरती पर बालक शंकर ने शुकदेवस्वरूप गुरू गोविन्दपादाचार्य से सन्यास की दीक्षा लेकर वेदव्यास के वेदान्तसूत्र की शिक्षा ग्रहण की और शिष्य शंकर अपनी जिज्ञासाओं को गुरू के समक्ष रखते गये और गरूजी सबका समाधान करते गये, इस प्रकार चार वर्षो में बालक शंकर को गोविन्दपादाचार्य जी ने ’परमहस’ की स्थिति तक पहॅुचाकर जगतगुरू बना दिया। यहाॅ यह रहस्य उद्घाटित करना आवश्यक हो गया है कि नर्मदा के तट पर ओंकारेश्वर में गोविन्दपादाचार्य जिस गुफा में निवास कर रहे थे उस गुफा में प्रवेश वर्जित था लेकिन शंकर ऐसे भाग्यशाली शिष्य रहे जो उस गुफा में प्रवेश कर सके। सोलह वर्ष की अवस्था में गुरू का आश्रम छोड़ने से पूर्व श्ंाकर ने लेखन कार्य जारी रखते हुये अपने भाष्यों में वेदों में प्रतिपादित सिद्धान्तों का ही अनुसरण किया।      

ओंकारेश्वर में जगद्गुरू बने शंकर-

       नर्मदा की यह पुण्यभूमि ओकारेश्वर, एक 14 साल के बालक शंकर को जगदगरू से विभूषित करने वाली पावन भूमि बन गयी जहाॅॅ बालक शंकर  आदिगुरू शंकराचार्य हो गये। शंकराचार्य जी ने मध्यप्रदेश की इस पावन भूमि ओंकारश्वर में बादरायण के ब्रम्हसूत्रों, उपनिषदां तथा श्रीमदभागवतगीता पर भाष्य लिखा एवं अद्वेत-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। जगद्गुरू आदि शंकराचार्य ने अद्वैत वेदान्त को ठोस आधार प्रदान कर सनातन धर्म की विविध विचारधाराओं का एकीकरण किया और चारों वेदों, सभी उपनिषदों, ब्रम्हसूत्रों और वेदांतसूत्रों पर अनेक टीकायें लिखी तथा शंकरभाष्यों में जगदगुरू कभी भी चातुर्वण्य व्यवस्था के पक्ष में नहीं थे।

       आपके द्वारा 12 भाष्यों मं ईशावास्योपनिषद में 9 उदधरण, केनोपनिषद में 52 उदधरण, कठोपनिषद में 14 उदधरण, प्रश्नोपनिषद में 15 उदधरण, मुण्डकोपनिषद में 13 उदधरण, मांडूक्यापनिषद में 144 उदधरण, ऐतरेयोपनिषद व तैत्तिरीयोपनिषद मं 58 उदहरण, बृहदारण्यक और छान्दोग्योपनिषद् में 264 उदधरण, गीता में 117 उदधरण तथा ब्रम्हसूत्र में 1870 उदधरण किये गये। नर्मदा के तट पर भाष्य लेखन मंं जगदगुरू शंकराचार्य ने अपने जिस बहुश्रुत होने का परिचय दिया, उससे आज भी सम्पूर्ण विश्व अचंभित है कि इतने सारे ग्रन्थ एक साथ एक व्यक्ति को कैसे कंठस्थ थी। शंकराचार्य जी के समय 57 स्मृतियाॅ प्रचलन में थी जिसमें उन्होंने मनुस्मृति को आधार मान शेष स्मृतियों को छोड़ दिया ताकि वे अन्य स्मृतियों में निहित कुतर्को से संतुष्ट न होने से इनका उदधरण नहीं कर सके। वहीं उनके समय पर 18 पुराण थे लेकिन उन्होंने मात्र विष्णुपराण को ही उदधरण किया वहीं इतिहास ग्रन्थों में महाभारत तो उदधरण की किन्तु उनके 14 पर्वो को छोड़ दिया इसी प्रकार उनके समय में रामायण का कहीं उल्लेख नहीं आया। उनके भाष्यों मंं केवल कृष्ण अवतार का उल्लेख है शेष किसी भी अन्य अवतार का उल्लेख उनके किसी भी भाष्य में नहीं किया गया। 

जब बालक शंकर ने नर्मदा को कमण्डल में भरा और नर्मदाष्टक रचा-

      गुरूआश्रम में जगदगुरू शंकराचार्य के चार वर्ष पूर्ण हो गये थे जिसमें उन्हांंने गुरू के मार्गदर्शन में अपना समूचा लेखन पूरा कर लिया। तभी वर्षाकाल प्रारभ हो गया और पाॅच दिनांं तक इतनी मूसलाधार वर्षा हुई कि समूचा ओंकारेश्वर नर्मदा की बाढ़ की चपेट में आ गया। तबाही से अनेक गाॅव जलमग्न होने लगे, कई गाॅव बह गये जिससे चारों ओर नर्मदा बाढ़ से जनता में आतंक छा गया। तब इसकी चीखपुकार जगदगुरू शंकराचार्य के कानों तक पहुॅची तब उन्होंने माँ नर्मदा से अपनी वेदना सुनाकर नर्मदाष्टक की रचना की। किन्तु नर्मदा का प्रबलवेग षांत होने को नहीं था औैर जल की भयाभय स्थिति को देखते हुये उन्होंने अपनी यौगिक शक्ति से नर्मदा जल को अपने कमण्डल में भर लिया।

        माधवाचार्य (शंकरदिग्विजय महाकाव्य) में उक्त उल्लेख इस प्रकार किया गया है-वर्षाकाल में गोविन्दपादचार्य जी अपनी गुफा में तपस्या में समाधिनिष्ठ थे, तभी नर्मदा में बाढ़ आ गयी। जगदगुरू शंकराचार्य ने परिस्थिति की भयावहता एवं जनमानस के कष्ठों की वेदना को समझ नर्मदा के बढ़े हुये जल को अपने कमण्डल में समाहित कर गुरू की समाधि में निर्विघ्नता प्रदान की। गुरू गोविन्दपादाचार्य अपने शिष्य के उक्त अलौकिक चमत्कार से परिचित हो प्रसन्न हुये कि शंकराचार्य योगी हो गया है। उन्होंने शंकराचार्य को बुलाया तब वर्षा थम चुकी थी और नर्मदा बाढ़ का प्रकोप समाप्त हो चुका था, लेकिन तब आकाश मंं घने काले बादलों ने डेरा डाला था। उन्होंने कहा आकाश में बादलों को देखांं वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण कर रहे है, सन्यासी को भी इसी तरह एक स्थान से दूसरे स्थान पर विचरण करना चाहिये। वर्षाऋतु समाप्त होने और चातुर्मास्य समाप्त होने पर गुरू की आज्ञा पाकर जगदगुरू शंकराचार्य ने ओंकारेश्वर से विदा होकर विश्वनाथ काशी से अपनी दिग्विजययात्रा की ओर कदम बढ़ाया।

         काशी आने पर शंकराचार्य जी को भगवान विश्वनाथ ने चाण्डालरूप में दर्शन दिये जिसे उन्होंने प्रणाम कर दण्डवत किया तब शिवजी प्रगट हो गये। काशी में शंकराचार्य जी के प्रथम शिष्य का गौरव सनन्दन जी थे जिन्हें गुरू ने प़द्यपादाचार्य नाम दिया और ब्रम्हसूत्रपर भाष्य लिखा। काशी के ब्राम्हणों में एक ब्राम्हण एक सूत्र के अर्थ पर शंका कर शास्त्रार्थ करने आ पहुॅचा, तब ध्यान करके उन्हें ज्ञात हुआ कि वह ब्राम्हण स्वयं भगवान व्यास जी है, उन्होने प्रार्थना की-

शंकरः शंकरः साक्षाद् व्यासो नारायणः स्वय्म्।

तयोर्विवादे सम्प्राप्ते न जाने कि करोम्यह्।।

        शंकराचार्य ने भगवान वेदव्यास को पहचान कर उनकी वन्दना की जिससे वेदव्यास जी प्रसन्न हुये और शंकराचार्य से बोले तुम्हारी आयु 16 वर्ष की है, वह समाप्त हो रही है, मैं तुम्हें 16 वर्ष आयु और देता हॅू ताकि तुम धर्म की प्रतिष्ठा कर सको। भगवान वेदव्यास का आदेश प्राप्त करते ही शंकराचार्य जी ने वेदान्त के प्रचार के लिये कुरूक्षैत्र, बदरिकाश्रम, दक्षिणभारत में रामेश्वर तक की यात्रा की और प्रयाग के संगम पर कुमारिल भटट् से शास्त्रार्थ करने पहुॅचे तब वे प्रयाग में, त्रिवेणी के संगम पर तुषाग्नि (चावल की  भूसे की आग) में प्राण त्यागने के लिय बैठ चुके थे, जो बहुत धीरे-धीरे जलाकर प्राण लती है। आज ऐसी कल्पना करना कठिन है। कुमारिक भट्ट यह दण्ड वेदों की रक्षा, सनातन धर्म की स्थापना  जो उस समय सबसे पवित्र थी उन्ही का खण्डन को राजद्रोह माना गया और कुमारिक भट्ट को न कष्ट का भय था और न ही शरीर का मोह, वे प्रायश्चित करने के लिय अपने प्राणों को दाव पर लगा चुके थे।शंकराचार्य की खिन्नता को भाॅपकर कुमारिल भटट ने उन्हें माहिष्मती निवासी उदभट मण्डनमिश्र से शास्त्रार्थ करने को प्रेरित किया।

       800ई की एक घटना है जिसमें दिग्विजय यात्रा के लक्ष्य को पूरा करने निकले शंकराचार्य को दुबारा मध्यप्रदेश की यात्रा करनी पड़ी और वे काशी प्रयास होते हुये नर्मदातट स्थित माहिष्मती (महेश्वर) आये जहाॅ एक विशाल शिवालय मं अपने शिष्यों को विश्राम का आदेश दे मण्डलमिश्र के आवास की ओर चल पड़े। रास्ते में एक कुयें पर कुछ पनिहारिन पानी भर रही थी तब शंकराचार्य जी ने उनसे मण्डनमिश्र के निवास का पता पूछा। पनिहारिन ने संस्कृत में वार्तालाप कर कहा कि जिस दरवाजे में स्थित पिंजड़ों में निबद्ध शुक-सारिकायंं शास्त्रार्थ करती है,उसे आप मण्डलमिश्र का आवास समझे। शंकराचार्य ने उनके घर पहुॅचकर उनसे निवेदन किया कि मंैं आपकी शरण में आया हॅू, मण्डलमिश्र समझ गये शास्त्रार्थ को आये है, तय हुआ कि पराजित होने वाला विजयी का शिष्य होगा। शास्त्रार्थ सात दिन तक चला मण्डल मिश्र सपत्नीक परास्त हो चुके थे और उन्होंने शंकराचार्य की शिष्यत्वता स्वीकार कर ली और शंकराचार्य ने मण्डलमिश्र को सुरेश्वराचार्य नाम देकर श्रेष्ठ माना तथा अपने ग्रन्थों में उन्हें भगवत्पाद कहकर गुरू की भाॅति सम्मानित किया। मण्डलमिश्र और उनकी पत्नी ने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध धर्म को मिथ्या प्रमाणित किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। कुछ बौद्ध इन्हें अपना शत्रु भी समझते हैं, क्योंकि इन्होंने बौद्धों को कई बार शास्त्रार्थ में पराजित करके वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की।

         804 ई. में दिग्विजय यात्रा के द्वितीय चरण में बदरिकाश्रम की स्थापना कर शंकराचार्य मध्यप्रदेश के उज्जयिनी आये और दो माह तक महाकाल की पूजा अर्चना की। तब कापालिकों तथा अन्य मतावलम्बियों का वर्चस्व था। कापालिक शैवों की पाशुपत सम्प्रदाय की एक गूढ शाखा से सम्बन्ध थे जो मानव अस्थियों के आभूषण पहनते थे और मानव की खोपड़ी में भोजन करते थे। ब्राम्हण के कपाल में मदिरा पीते और अग्नि में नरमांस का आहूति देते,जब शंकराचार्य उज्जैनी आये और उन्हें इनकी जानकारी हुई तो वे उनके अमर्यादित आचरण से दुखी हुये। यह अलग बात थी कि वे कापालिक स्वयं को शिवभक्त मानते और अधिकांश चामुण्डा की आराधना करते और नरवलि देकर मनुष्य का माँस भक्षण करते थे तथा किसी भी महिला से रमन करने का विशेष अधिकार एवं भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिये उनके शास्त्रों में विधान कर रखा था।

       इन्हीं कापालिकों में एक उग्र भैरवक नामक कापालिक भेषबदलकर आचार्य शंकराचार्य का शिष्य बन गया ताकि उनकी बलि देकर उसकी अधूरी पंचमकार साधना को पूर्ण कर सके।  एक दिन एकान्त में बैठे हुये आचार्य शंकराचार्य के पास भेष बदलकर आये कापालिक ने अपना परिचय देते हुये कहा कि आपको आपके शरीर का मोह नही है। मैं श्मशान पर एक साधना कर रहा हॅू जिसकी सफलता के लिये एक तत्वज्ञ की बलि देनी है, अगर आप मृत्यु आने से पूर्व ही मेरी साधना का मनोरथ पूर्ण कर दे तो बड़ी कृपा होगी। साथ ही उसने निवेदन किया कि मैं आपसे जिस आशय को लेकर मिलने आया,उसका पता किसी को भी नही चलना चाहिये। आचार्य शंकराचार्य ने उस कापालिक को अर्द्धरात्रि में आने का वचन दे दिया और वे तय समय पर उस घोर रात्रि में श्मशान पहुॅच गये। कापालिक बलि का विधान करने लगा। शंकराचार्य जी ने समाधि लगायी, कापालिक उनका सिर काटने वाला था, अचानक पद्यपादाचार्य में उनके इष्टदेव भगवान नृसिंह का आवेश हुआ और उन्होंने कापालिक का यमलोक पहुॅचा दिया। बाद में क्रकच नामक दुराग्रही कापालिक ने अपने पूरे कुनबे के सामने शंकराचार्य जी को शास्त्रार्थ की चुनौती दी और पराजित होने पर हमला बोल दिया तब आचार्य की सहायता के लिये सुधन्वा की सेना ने कापालिकों को ठिकाने लगा दिया।

         कापालिकों का एकमात्र ध्येय कामसाधना थी और वे साल में एक स्थान पर एकत्र हो उन्मुक्तता से पंचकारों के सेवन के साथ नारियों के साथ निलज्जता से रमन करते थे। शंकराचार्य ने उन्हें लताड़ा कि तुम मूर्ख पतित हो गये हो, जब तक पंचकारों का सेवन छोड़कर सामाजिक आचार संहता का पालन नहीं करोंगे तब तक मोक्षमार्ग का साधन नहीं उपलब्ध होगा। इन कापालिकों को अपने मार्ग से हटाकर भैरवसाधना के नाम पर नरबलि बंद कराकर आचार्य शंकराचार्य के आदेश पर इन्होंने सामाजिक आचार संहिता पर चलने का मार्ग अपना लिया। इस घटना से लोगों ने जाना कि बौद्ध और कापालिकों के मत समाज में स्वीकार्य नहीं, जबकि तत्समय के राजाओं में बौद्ध बनने की होड़ सी थी और शंकराचार्य जी एवं उनके शिष्यों द्वारा बौद्ध पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित किये जाने के पश्चात तब के राजाओं सहित प्रजा में भी उन्हें अशास्त्रीय, उग्रतर सम्प्रदायों का दमनकारी ठहरया जिससे शने-शने बोैद्धमत लुप्तप्राय हो गया और भारत में आचार्य शंकराचार्य द्वारा श्रुतिसम्मत सनातन धर्म प्रतिष्ठत हो सका।शंकराचार्य जी ने उज्जयिनी में कपालिकों, वैदिक,द्वैत,जैन, शाक्त, चर्बाक,क्षपणक, सौगत, पाशुपत तथा बैष्णवमतके द्विग्वज विद्वानों के सिद्धान्तों का खण्डन किया तथा अद्वेैतमत की स्थापना की जिससे आचार्य शंकराचार्य के विजय की दुन्दभी उज्जैयनी ही नहीं अपितु समूचे देश में गूंजने लगी और उज्जैन का खोया हुआ वैभव वापिस प्राप्त हुआ।

        आचार्य शंकराचार्य जी ने पूरब से पष्चिम तक तथा कश्मीर से रामेश्वर कन्याकुमारी तक, अपनी विद्ववता का परचम पहराकर लोहा मनवाया और जगन्नाथ पुरी, द्वारकापुरी, श्रृंगेरी और ज्योतिर्मट बद्रीनाथ पीठ की स्थापना कर एक-एक शिष्य को धर्म की रक्षा के लिये नियुक्त किया। इन चारों मठों की स्थापना के पष्चात ही ये मठ शंकराचार्य के सिद्धान्तों के प्रधान मठ हुये। इतना ही नहीं धर्मप्रचार के लिये शंकराचार्य जी ने नासिक, उज्जैन, प्रयागराज और हरिद्वार में हर बारह साल के क्रम में कुम्भ मेले का आयोजन रखवा कर कुम्भ मेलों की परम्परा को जीवित कर कुम्भयोजना की रोली से भारत के माथे पर धर्माचरण का तिलक विभूषित किया जो आज भी पूर्ण श्रद्धा-भक्ति और विष्वास की त्रिवेणी से ओतप्रोत है। बत्तीस साल की आयु में इनके द्वारा केदारनाथ धाम के समीप अपनी इहलोक की लीला का संवरण कर लिया। आचार्य के बनाये एवं भाष्य किये ग्रंथों की सूची लंबी है। उनके अद्वेततवाद का देश भर में व्यापक प्रभाव पड़ा आर वैदिकधर्म के उद्धार के लिये उनका प्रयत्न अद्वितीय रहा जहाॅ उनके सिद्धान्त स्थापन प्रणाली को विश्व के दार्शनिकों ने अद्धितीय माना। श्रीशकराचार्य जी के अद्धेतवाद का भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी व्यापक प्रभाव पड़ा है और उनके मत के सम्बन्ध में हजारों ग्रन्थ लिखे जा चुके है जो उनकी परम्परा को अविच्छिन्न बनाये हुये है जो आज भी हिन्दू धर्म का प्रतिनिधित्व कर जीवन दर्शन-कर्म-भक्ति का आधार बनी हुई प्रसिद्धी के चरम सौपान पर प्रतिष्ठित है। आपने भारतवर्ष में चार मठों की स्थापना की थी जो क्रमंशः प्रथम ज्योतिष्पीठ बदरिकाश्रम, द्वितीय श्रृंगेरी पीठ, तृतीय द्वारिका शारदा पीठ और चतुर्थ पुरी गोवर्धन पीठ के नाम से धर्मध्वजा फहरा रहे है और इन पर आसीन संन्यासी स्वयं शंकराचार्य की उपाधि से विभूषित है। संास्कृतिक एकता के देवदूत आदि शंकराचार्य ने अपनी 32 साल की आयु में जो जीवन का सदुपयोग कर जगत में स्वयं को माँ नर्मदा की स्तुति में विरचित नर्मदाष्टक  सहित अपने भाष्यों के माध्यम से अद्वैत वेदान्त दर्शन के प्रवर्तक एवं सनातक धर्म के पुर्नरूद्वारक के रूप में स्थापित किया है जो कई शताब्दियों से निरन्तर समाज को एक दिशानिर्देश देते आ रहा है।

          आदि गुरूशंकराचार्य के बनाये एवं भाष्य किये ग्रंथों की सूची लंबी है। उनके अद्वेततवाद का देश भर में व्यापक प्रभाव पड़ा आर वैदिकधर्म के उद्धार के लिये उनका प्रयत्न अद्वितीय रहा जहाॅ उनके सिद्धान्त स्थापन प्रणाली को विश्व के दार्शनिकों ने अद्धितीय माना। श्रीशकराचार्य जी के अद्धेतवाद का भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी व्यापक प्रभाव पड़ा है और उनके मत के सम्बन्ध में हजारों ग्रन्थ लिखे जा चुके है जो उनकी परम्परा को अविच्छिन्न बनाये हुये है।

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