नयन विच निहारिका !

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नयन विच निहारिका, दिखाती अपनी छटा;
अधर अमृत की वर्षा, हर्ष ज्योतिर्मय घटा !

छिटकती छवि की आभा, नज़र की विपुल विधा;
रिझाती ऋतम्भरा, हुए शिशु स्वयम्वरा !
पिंगला इड़ा क्रीड़ा, सुषुम्ना स्मित मना;
झाँकती विश्व लहरियाँ, झूल कर माँ की बहियाँ !

श्वाँस हर आहट पा के, प्राण की चाहत ताके;
खोल नैनन वो झाँके, समाधि से जग ताके !
चला फिर बापस जाए, आत्म गति डूबे डुबा;
वत्स ‘मधु’ मौनन भाषा, प्रभु संग देखी देखा !

गोपाल बघेल ‘मधु’

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