नये वर्ष में भारत को नया रंग दें

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ललित गर्ग

 जीवन में मौसम ही नहीं बदलता माहौल, मकसद, मूल्य और मूड सभी कुछ परिस्थिति और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में बदलता है। और ये बदलते दौर जीवन को कई बार विचित्र नए अर्थ दे जाते हैं। नया वर्ष- 2020 ऐसे ही नये अर्थ और दिशाएं देने को सम्मुख खड़ा है। ऐसा लगता है कि जिन्दगी के सारे आदर्श और सारी रचनात्मकता एवं सृजनात्मकता स्वयं में समेटकर आने वाला वर्ष न केवल त्यौहारों एवं पर्वों बल्कि राजनीति, अर्थनीति एवं समाज-व्यवस्था को नया माहौल देने को उपस्थित है। ऐसे ही माहौल में मनुष्य भीतर से खुलता है वक्त का पारदर्शी टुकड़ा बनकर।
भला ऐसा कौन-सा इंसान होगा, जिसे त्यौहारों एवं पर्वों का माहौल आनंदित न करता हो, या राजनीति की चालों से कौन अछूता रहता है। ये पर्व हमारे जीवन में उत्साह, उल्लास व उमंग की आपूर्ति करते हंै तो राजनीति राष्ट्र को उन्नति एवं समृद्धि की ओर अग्रसर करती है । शुष्क जीवन-व्यवहार के बोझ के नीचे दबा हुआ इंसान इस खुशनुमा मौसम एवं माहौल में थोड़ी-सी मुक्त सांस लेकर आराम महसूस करता है। जीवन की जड़ता उत्साह में बदल जाती है। हमारा देश ऐसे ही उत्सवों एवं त्यौहारों की वैभवता से सम्पन्न है, एक विशेष और आदर्श संस्कृति का वाहक है, फिर भी यह सब हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय जीवन में अभिव्यक्त क्यों नहीं हो पाता? क्यों राष्ट्रीयता के नाम पर हम इतने बंटे एवं विभाजित है? क्यों बार-बार नारी की अस्मिता को तार-तार कर दिया जाता है, क्यों सामूहिक बलात्कार की घटनाएं तमाम विकास की तस्वीर को धुंधला जाती है, यह जीवन इतना बंधा-बंधा सा क्यों है? ये कैसी दीवारें हैं? इतनी गुलामी, इतने दुख कहां से इस देश के हिस्से में आ गए?
हजारों-हजारों साल से जिस प्रकृति ने भारतीय मन को आकार दिया था, उसे रचा था, भारतीयता की एक अलग छवि का निर्माण हुआ, यहां के इंसानों की इंसानियत ने दुनिया को आकर्षित किया, संस्कृति एवं संस्कारों, जीवन-मूल्यों की एक नई पहचान बनी।  ऐसा क्या हुआ कि पिछली कुछ सदियों में उसके साथ कुछ गलत हुआ है, और वह गलत दिनोंदिन गहराता गया है जिससे सारा माहौल ही प्रदूषित हो गया है, जीवन के सारे रंग ही फिके पड़ गये हैं, हम अपने ही भीतर की हरियाली से वंचित हो गए लोग हैं। न कहीं आपसी विश्वास रहा, न किसी का परस्पर प्यार। न सहयोग की उदात्त भावना रही, न संघर्ष में सामूहिकता का स्वर, बिखराव की भीड़ में न किसी ने हाथ थामा, न किसी ने आग्रह की पकड़ छोड़ी। यूं लगता है सब कुछ खोकर विभक्त मन अकेला खड़ा है फिर से सब कुछ पाने की आशा में। क्या यह प्रतीक्षा झूठी है? क्या यह अगवानी अर्थशून्य है?  
मनुष्य जीवन बड़ी मुश्किल से मिलता है। इसलिये कल पर कुछ मत छोड़िए। कल जो बीत गया और कल जो आने वाला है- दोनों ही हमारी पीठ के समान हैं, जिसे हम देख नहीं सकते। आज हमारी हथेली है, जिसकी रेखाओं को हम देख सकते हैं। हम आज एक नए जीवन के द्वार पर खड़े हैं। अतीत के सारे इतिहास को एक नया रूप दे देने वाले संसाधनों के साथ। इन संसाधनों में सबसे प्रमुख साधन विचार हैµऐसा विचार जो विश्लेषणों और कारणों तक पहुंचता है। बीते जमाने में महावीर इसी विचार के पथ पर चल दुख के कारणांे तक पहुंचे थे, पर इसके पहले उन्होंने राजगृह से निकल, जाने कितने वनों और बस्तियों की यात्राएं कीं। यह ज्ञान की, संवेदना की, बोध की यात्रा थी। ‘स्टैण्डर्ड आॅफ लाइफ’ के नाम पर भौतिकवाद, सुविधावाद और अपसंस्कारों का जो समावेश भारतीय संस्कृति एवं जीवन-शैली में हुआ या हो रहा है, वह निश्चित ही चिन्तनीय है। इस हिमालयी भूल का प्रतिकार या प्रायश्चित आने वाले साल-2020 में हो जाये तो बहुत शुभ है। अन्यथा आने वाली पीढ़िया अपने पुरुखों को कोसे बिना नहीं रहेगी।
देश को अपनी खोयी प्रतिष्ठा पानी है, उन्नत चरित्र बनाना है तथा स्वस्थ समाज की रचना करनी है तो हमें एक ऐसी जीवनशैली को स्वीकार करना होगा जो जीवन में पवित्रता दे। राष्ट्रीय प्रेम व स्वस्थ समाज की रचना की दृष्टि दे। कदाचार के इस अंधेरे कुएँ से निकले बिना देश का विकास और भौतिक उपलब्धियां बेमानी हैं। व्यक्ति, परिवार और राष्ट्रीय स्तर पर हमारे इरादों की शुद्धता महत्व रखती है, हमें खोज सुख की नहीं सत्व की करनी है क्योंकि सुख ने सुविधा दी और सुविधा से शोषण जनमा जबकि सत्व में शांति के लिये संघर्ष है और संघर्ष सचाई तक पहुंचने की तैयारी। हमें स्वयं की पहचान चाहिए और सारे विशेषणों से हटकर इंसान बने रहने का हक चाहिए। इस खोए अर्थ की तलाश करनी ही होगी। उपभोक्ता बनकर नहीं मनुष्य बनकर जीना नए सिरे से सीखना ही होगा। संस्कृति और मूल्यों के नष्ट अध्यायों को न सिर्फ पढ़ना होगा, बल्कि उन्हें नया रूप और नया अर्थ भी देना होगा। एक नई यात्रा शुरू करनी होगी। इसके लिये हमारे पर्वों एवं त्यौहारों, लोकतंत्र, समाज-व्यवस्था की विशेष सार्थकता है। श्रीकृष्ण ने कहा है- जीवन एक उत्सव है। उनके इस कथन पर भारतीयों का पूर्ण विश्वास है। हम जीवन के हर दिन को उत्सव की तरह जीते हैं, ढेरों विसंगतियों और विदू्रपताओं से जूझते हुए। संकट में होशमंद रहने और हर मुसीबत के बाद उठ खड़े होने का जज्बा विशुद्ध भारतीय है और ऋतु-राग गुनगुनाते हुए अलग-अलग मौसम में उत्सव मनाने का भी। यही वजह है कि हम गर्व से कहते हैं- फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी… पर इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि बदलती दुनिया के असर से उत्सवधर्मिता एवं राजनीतिक चरित्र का जज्बा काफी प्रभावित हो रहा है। सबसे ज्यादा हमारी राजनीति ही नहीं, पर्व और त्यौहार की संस्कृति ही धुंधली हुई है। खेद की बात है कि हमने पश्चिम की श्रेष्ठ परम्पराओं को आत्मसात नहीं किया, बल्कि उसके साम्राज्यवाद के शिकार बने।
बदलाव की संस्कृति में सवालिया नजर केवल भारतीय पर्व और त्यौहार पर ही नहीं, बल्कि राजनीति पर टिकी है, क्योंकि हाल के राजनीतिक परिदृश्यों ने राममंदिर, अनुच्छेद 370, तीन तलाक कानून, एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून (सीएए)  की संभावना कोे पूरजोर तरीके से प्रकट किया है। इन मुद्दों ने वर्तमान नेतृत्व की संभावनाओं पर भी मोहर लगायी गयी है। हमें राजनीति को व्यक्ति नहीं, विचार और विश्वास आधारित बनाना होगा। चेहरा नहीं, चरित्र को प्राथमिकता देनी होगी। आज भी हम पिछड़े हंै, असुरक्षित हंै, अशिक्षित हंै। कभी हमें विश्व स्तर पर भ्रष्टाचारी होने का तगमा पकड़ा दिया जाता है तो कभी साम्प्रदायिकता का। कभी गरीबी का तो कभी अशिक्षा का, इससे बढ़कर और क्या दुर्भाग्य होगा? क्या विश्व के हासिए में उभरती भारत की इस तस्वीर को हम कोई नया रंग नहीं दे सकते?
हमें त्यौहारों एवं पर्वों ही नहीं बल्कि राजनीति की संस्कृति को भी समृृद्ध बनाना होगा। हर दिन एक तलाश होµअपनी और उस अछोर जीवन की, उस विराट प्रकृति की, हमारा अस्तित्व जिसकी एक कड़ी है। किसी भोर का उगता सूरज, कोई बल खाती नदी, दूर तक फैला कोई मैदान, कोई चरागाह, कोई सिंदूरी शाम, दूर गांव से आती कोई ढोलक की थाप, पीछे छूटती दृश्यावलियंा… हमारे भीतर रच-बस जाती हैं। यही सब जीवन की संपदाएं हैं, हमारे अंतर में जगमगाती-कौंधती रोशनियां हैं, जिनकी आभा में हम उस सब को पहचान पाते हैं जो जीवन है, जो हमारी पहचान के मानक हैं। हम भारत के लोग इसलिए विशिष्ट नहीं हैं कि हम ‘जगतगुरु’ रहे हैं, या हम महान आध्यात्मिक अतीत रखते हैं। हम विशिष्ट इसलिए हैं कि हमारे पास मानवता के सबसे प्राचीन और गहरे अनुभव हैं। ये अनुभव सिर्फ इतिहास और संस्कृति के अनुभव नहीं हैं, इसमें नदियों का प्रवाह, बदलते मौसमों की खुशबू, विविध त्यौहारों की सांस्कृतिक आभा, प्रकृति का विराट लीला एवं लोकतंत्र की सशक्त शासन-प्रणाली का संसार समाया हुआ है। हमारा हर दिन पर्व और त्यौहार बने, हमारी जीवनशैली दिशासूचक बने। गिरजे पर लगा दिशा-सूचक नहीं, वह तो जिधर की हवा होती है उधर ही घूम जाता है। कुतुबनुमा बने, जो हर स्थिति मे ंसही दिशा बताता है।

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