देश से घुसपैठियों को बाहर करना जरूरी

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प्रमोद भार्गव

पिछले दिनों गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में कहा था कि पूरे देश में राष्ट्रीय नागरिकता पत्रक (एनआरसी) लागू करेंगे। शाह की यह घोषणा बेहद महत्वपूर्ण है। बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और म्यांमार से बड़ी संख्या में मुस्लिम घुसपैठियों ने आकर देश के आजीविका के संसाधनों पर कब्जा कर लिया है। साथ ही देश के जनसंख्यात्मक घनत्व के लिए भी बड़ी चुनौती बन रहे हैं। असम में कुछ समय पहले जारी एनआरसी सूची के बाद बवाल मचा हुआ है, क्योंकि वहां 19.6 लाख लोगों के नाम एनआरसी की अंतिम सूची में नहीं आए। नतीजतन अब उन्हें अपनी अपील पर न्यायाधिकरण द्वारा सुनवाई किए जाने का इंतजार है। इस सूची में सशस्त्र बलों के अधिकारी, वकील, आम आदमी तो वंचित हुए ही एआईयूडीएफ के विधायक अनंत कुमार मालो का नाम भी नहीं आ सका। लिहाजा असम सरकार के मंत्री हेमंत विश्वकर्मा ने इस सूची को खारिज कर नए सिरे से एनआरसी बनाने की मांग की थी। अब देश के साथ असम को भी एनआरसी प्रक्रिया में शामिल कर लिया गया है। हालांकि राष्ट्रीय नागरिक पंजी तैयार करना बर्र के छत्ते में हाथ डालने जैसा है। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार तीन तलाक, अनुच्छेद-370 और मंदिर जैसे मुद्दों को सफलतापूर्वक निपटाने के बाद अति उत्साह में है। लिहाजा सरकार ने देशव्यापी घुसपैठियों की पहचान के लिए एनआरसी प्रक्रिया शुरू करने का ऐलान कर दिया। इसके लिए निर्धारित वर्ष 1971 है। जिन लोगों के पास 1971 के पहले की पहचान के दस्तावेज होंगे, उन्हें ही देश का मूल निवासी माना जाएगा। इन दस्तावेजों में भूमि, भवन, राशन कार्ड, हथियार लाइसेंस, पासपोर्ट, मूल निवासी प्रमाण-पत्र, जन्म व विवाह प्रमाण-पत्र, अंक सूची, डिग्री अथवा अदालती दस्तावेज ऐसे आधार होंगे, जो व्यक्ति की नागरिकता प्रमाणित करेंगे। हालांकि अनेक परेशानियों से असम के नागरिकों के गुजरने के बाद जो एनआरसी सूची आई है, उससे भाजपा समेत अन्य राजनीतिक दल असंतुष्ट हैं। दरअसल यह पूरी कवायद अवैध प्रवासियों व घुसपैठियों को देश से बाहर निकालने के लिए की जा रही है। लेकिन आई सूची में पूर्णता का अभाव रहा। इसलिए असम में अफरा-तफरी मची और कई लोगों ने आत्महत्या तक कर ली। इसलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि पूरे देश की निर्दोष सूची कैसे बनेगी? असम में लोगों से 24 मार्च 1971 से पहले जारी कोई ऐसा दस्तावेज मांगा गया था, जिससे यह प्रमाणित हो सके कि उनके पूर्वज इस तारीख से पहले वहां रहते थे। उन लोगों को ऐसे दस्तावेज जुटाना मुश्किल है, जो गरीबी के दायरे में रहते हुए भूमि अथवा भवन के मालिक नहीं हैं। 1971 से पहले आधार एवं मतदाता पहचान-पत्र की अनिवार्यता वोट डालने के लिए नहीं थी। साफ है, देश के नागरिक को अपनी पहचान साबित करने के लिए दस्तावेज प्राप्त करने में बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। इससे सरकारी मशीनरी को भी नागरिकों से जूझना पड़ेगा। आम आदमी के लिए 1971 से पहले के निवासी होने के प्रमाण के लिए मतदाता सूची ही एक ऐसा प्रमाण है, जो आसानी से व्यक्ति या उसके पूर्वजों की नागरिकता सिद्ध कर सकता है। लेकिन 1971 से पहले की मतदाता सूचियां राज्य सरकारों के पास सुरक्षित हैं भी अथवा नहीं, यह सवाल कालांतर में सामने आएगा।1971 से ही एक सुनियोजित योजना के तहत पूर्वोत्तर भारत, बंगाल, बिहार और दूसरे प्रांतों में घुसपैठ का सिलसिला जारी है। म्यामांर से आए 60,000 घुसपैठिये रोहिंग्या मुस्लिम भी कश्मीर और हैदराबाद में गलत तरीकों से भारतीय नागरिक बनते जा रहे हैं। अफगानी नागरिक पिछले 30 साल से दिल्ली और जम्मू-कश्मीर में आकर जम गए हैं। कश्मीर से हिंदू, सिख और बौद्धों को धकिया कर पिछले 3 दशक से शरणार्थी बने रहने को विवश कर दिया है। तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने तत्कालीन असम सरकार के साथ मिलकर फैसला लिया था कि 1971 तक जो भी बांग्लादेशी असम में घुसे हैं, उन्हें नागरिकता दी जाएगी और बाकी को भारत की जमीन से निर्वासित किया जाएगा। इस फैसले के तहत अब तक सात बार एनआरसी ने नागरिकों की वैध सूची जारी करने की कोशिश की, लेकिन मुस्लिम वोट-बैंक की राजनीति के चलते सूचियां सार्वजनिक नहीं हो पाईं। यह 19.6 लाख लोगों की पहली सूची है, जो जारी हो पाई है। असम के राजनीतिक परिवार से आने वाले सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति रंजन गोगोई के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद एनआरसी प्रक्रिया शुरू हुई और उसका अंतिम रूप में प्रकाशन भी हुआ। यह अलग बात है कि समस्या का निरापद समाधान 1300 करोड़ रुपये खर्च करने के बाद भी नहीं निकल पाया। नतीजतन गृहमंत्री को घोषणा करनी पड़ी कि असम को फिर से इस दौर से गुजरना होगा।देश के आईटी हब माने जाने वाले बेंगलुरु में बांग्लादेश व म्यांमार के अवैध घुसपैठिये प्रशासन के लिए समस्या बनकर उभरे हैं। वहां इसी माह एक दिन में अवैध तरीके से रहने वाले साठ बांग्लादेशी नागरिकों को हिरासत में लिया गया है। वहां अभी भी 800 से भी ज्यादा घुसपैठिये डेरा जमाए हुए हैं। इनमें से कई पढ़ाई या दूसरे कामों के बहाने वीजा लेकर आए हैं। किंतु, वीजा की अवधि समाप्त होने के बावजूद वे बांग्लादेश लौटे नहीं। कुछ बेंगलुरु में रहकर ही भारत की नागरिकता लेने के प्रयास में जुट गए। दूसरे, यहां के नगर निगम के लिए काम करने वाले कचरा संग्रह और उसे अलग करने के काम में ठेकेदारों के यहां मजदूरी करने लग गए। कालांतर में यही ठेकेदार इन घुसपैठियों या अवैध आव्रजकों को स्थाई नागरिकता दिलाने की पहल करने लगते हैं, क्योंकि उनके लिए ये सस्ती दरों में मजदूरी करने के लिए तैयार रहते हैं। इसीलिए अब बेंगलुरु की पुलिस और प्रशासन ने इन घुसपैठियों पर शिकंजा कसने के लिए इन्हें पनाह देने, मकान किराए से देने और रोजगार देने वाले ठेकेदारों पर भी कानूनी कार्यवाही शुरू करने का ऐलान किया है। इन आश्रयदाताओं के खिलाफ आईपीसी की धारा-120 (बी) आपराधिक षड्यंत्र के तहत कार्यवाही की जाएगी। यह चेतावनी पुलिस आयुक्त भास्कर राव ने दी है। असम में अवैध घुसपैठ का मामला नया नहीं है। 1951 से 1971 के बीच राज्य में मतदाताओं की संख्या अचानक 51 प्रतिशत बढ़ गई। 1971 से 1991 के बीच यह संख्या बढ़कर 89 फीसदी हो गई। 1991 से 2011 के बीच मतदाताओं की तदाद 53 प्रतिशत बढ़ी। 2001 की जनगणना के आंकड़ों के हिसाब से यह भी देखने में आया कि असम में हिंदू आबादी तेजी से घटी है और मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ी है। 2011 की जनगणना में मुस्लिमों की आबादी और तेजी से बढ़ी। 2001 में जहां यह बढ़ोत्तरी 30.9 प्रतिशत थी, 2011 में बढ़कर 34.2 प्रतिशत हो गई। जबकि देश के अन्य हिस्सों में मुस्लिमों की आबादी में बढ़ोत्तरी 13.4 प्रतिशत से 14.2 फीसदी तक ही हुई। असम में 2001 में 35 प्रतिशत से अधिक मुस्लिमों वाली विधानसभा सीटें 36 थी। जो 2011 में बढ़कर 39 हो गईं। इस घुसपैठ के कारण असम में जनसंख्यात्मक घनत्व गड़बड़ा गया और सांप्रदायिक दंगों का सिलसिला शुरू हो गया। इसका सबसे ज्यादा खमियाजा बोडो आदिवासियों ने भुगता। नतीजतन, कई बोडो उग्रवादी संगठन अस्तित्व में आ गए। इसमें दो राय नहीं कि एनआरसी नेक मंशा से की जा रही है। बावजूद सरकार के सामने बड़ी चुनौती यह होगी कि वह देश के वास्तविक नागरिकों के हितों के प्रति प्रतिबद्ध दिखाई दे। यह प्रक्रिया जटिल होने के साथ खर्चीली भी है। लिहाजा प्रयासों के प्रति ईमानदार निष्पक्षता से काम होना जरूरी है, जिससे देश का मूल नागरिक अपनी नागरिकता से वंचित न होने पाए।

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