स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी आंदोलन के अग्रणी नेता नेताजी सुभाषचंद्र बोस

-अशोक “प्रवृद्ध”

वर्तमान सरकार भारत के इतिहास को पुनः सही रूप में प्रस्तुत करने, लिखने की गंभीर प्रयास कर रही है। सरकार, अनेक लेखक, इतिहासकार इतिहास के विलोपीकरण की प्रक्रिया को सिद्धांत, तर्क और तथ्यों के आधार पर स्थापित करने का भगीरथ प्रयास कर रहे हैं। जिससे देशवासियों के समक्ष अब तक रहस्यमय रहे इतिहास के पृष्ठों का अनावरण हो रहा है। मोहनदास करमचंद गांधी व जवाहरलाल नेहरू के छल भी धीरे-धीरे देश के समक्ष आते जा रहे हैं। गांधी और नेहरू ने कांग्रेस के प्रभावशाली व्यक्तित्वों को दबाने और उपेक्षित करने का भरसक प्रयास किया था। भारत के वर्तमान स्वरूप के प्रमुख संगठक स्वाधीन भारत के प्रथम उपप्रधानमन्त्री व गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल एवं प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के प्रति उपेक्षा का व्यवहार भी किया गया था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी आंदोलन के अग्रणी तथा सबसे बड़े नेता के रूप में स्थापित नेताजी सुभाष चंद्र  बोस के प्रति भी इनका यही रवैया था। सुभाष चंद्र बोस से संबंधित फाइलों पर गृहमंत्री के अनुमोदन के पश्चात 14 अक्टूबर 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा प्रमाणीकरण के हस्ताक्षर किए जाने के बाद नेशनल आर्काइव में सुरक्षित एक पत्र से इस बात की पुष्टि होती है कि जवाहरलाल नेहरू नेताजी सुभाष चंद्र बोस को युद्ध अपराधी मानते थे और उन पर कार्रवाई के लिए ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली को 27 दिसम्बर 1945 को जवाहरलाल नेहरू ने एक पत्र प्रेषित कर लिखा था कि मुझे भरोसेमंद सूत्रों से पता चला है कि सुभाष चंद्र बोस जो आपके युद्ध अपराधी हैं, उन्हें स्टालिन ने रूस में घुसने की मंजूरी दे दी है। यह रूस का धोखा है, क्योंकि रूस ब्रिटिश अमेरिकन गठबंधन का मित्र देश है। उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था। इस पर आपको जो सही लगे वह कार्यवाही करें।

यद्यपि पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा 27 दिसम्बर 1945 को लिखे गए इस पत्र पर केवल जवाहरलाल नेहरू का नाम लिखा है, और हस्ताक्षर नहीं है। लेकिन यह महत्वपूर्ण इसलिए हो जाता है कि इस पत्र का नेहरू के द्वारा कभी खंडन भी नहीं किया गया कि यह पत्र मेरे द्वारा नहीं लिखा गया। नेहरू ने इस पत्र में सुभाषचंद्र बोस को अंग्रेजों का युद्ध अपराधी बताया है। युद्ध अपराधी को सजा दिए जाने का अपना प्रावधान है। नेहरू के पत्र से यह स्पष्ट है कि नेहरू की इच्छा सुभाषचंद्र बोस को सजा दिलवाने की थी। उन्हें सुभाषचंद्र बोस को सजा दिलवाना अच्छा लग रहा था। इसीलिए स्वतंत्रता प्राप्ति के समय लॉर्ड माउंटबेटन से सुभाषचंद्र बोस को युद्ध अपराधी होने के कारण अंग्रेजों को सौंपने की शर्त भी नेहरू व गांधी ने स्वीकार की थी।

23 जनवरी 1897 को तत्कालीन बंगाल व वर्तमान उड़ीसा प्रांत के कटक में जन्मे सुभाषचंद्र बोस ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने के लिए जापान के सहयोग से आजाद हिन्द सरकार और आजाद हिन्द फौज का गठन किया था तथा सर्वप्रथम जय हिन्द का नारा बुलंद किया था। सुभाष 1937 में कांग्रेस के अध्यक्ष से चुने गए थे। उन्होंने नेहरू और गांधी के चहेते व समर्थित कांग्रेस के प्रत्याशी और कांग्रेस के इतिहास लेखक डॉ पट्टाभिसीतारमैया को हराया था। उन दिनों सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रियता दिनानुदिन बढ़ रही थी। जिससे गांधी -नेहरू परेशान थे। कांग्रेस के यह दोनों नेता नहीं चाहते थे कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस लोकप्रियता में उनसे आगे निकलें। दोनों नेताओं की इच्छा थी कि डॉ. पट्टाभिसीतारमैया की जीत हो और नेताजी सुभाषचंद्र बोस को वे पीछे धकेलने में सफल हो सकें। लेकिन गांधी और नेहरू अपनी योजना में सफल नहीं हो पाए, और नेताजी चुनाव में जीत गए। इस जीत के बाद नेताजी सुभाषचंद्र बोस की लोकप्रियता के कारण सभी कांग्रेसियों ने भारी बहुमत से उनको अपना नेता चुन लिया। नेताजी सुभाषचंद्र बोस की इस जीत से यह साफ हो गया कि कांग्रेस में गांधी- नेहरू के दिन लद चुके हैं और लोग किसी बड़े बदलाव का मन बना चुके हैं। पट्टाभिसीतारमैया के पराजय को गांधी ने अपनी पराजय बताया था। गांधी को यह साफ दिखाई देने लगा था कि अब उन्हें कांग्रेस में कोई पूछने वाला नहीं है। यही कारण था कि उन्होंने अपनी एकाधिकारवादी मनोवृति का परिचय देते हुए अपने कुछ विशेष अधिकारों का प्रयोग करने का मन बना लिया। उन्होंने नेताजी सुभाषचंद्र बोस से वार्तालाप तक बंद कर दी। जिससे क्षुब्ध होकर सुभाषचंद्र बोस ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया और फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना कर देश की स्वाधीनता के लिए काम करने लगे। नेताजी के इस कदम से उस समय अधिकांश कांग्रेसियों के दिल टूट गए थे। इसके बाद नेताजी ने सावरकर से संपर्क साधा और उनसे सलाह करने के बाद देश छोड़ने का निर्णय लिया। देश छोड़ने से पहले लाहौर के अनारकली आर्यसमाज में महाशय कृष्णजी ने उन्हें आर्य समाज की ओर से दस हजार रुपये आर्थिक सहयोग के रूप में दिए। इसके बाद नेताजी ने 21 जनवरी 1941 को देश छोड़ दिया। काबुल के रास्ते वेश बदलकर गुप्त रूप से वे रुस पहुंच गए। वहां से भारत को स्वतंत्र करने के लिए सारे प्रयास उनके द्वारा किए गए। वर्ष 1943 में सुभाषचंद्र बोस जर्मनी छोड़ जापान जा पहुंचे। और वहां मोहन सिंह और रास बिहारी के साथ मिलकर 21 अक्टूबर 1943 को आजाद हिन्द सरकार की स्थापना और आजाद हिन्द फौज का गठन किया। और इस फौज के साथ 4 जुलाई 1944 को वह बर्मा वर्तमान म्यांमार पहुंचे। 1944 में सुभाष ने अपनी आजाद हिन्द फ़ौज को तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा का नारा दिया। उनके इस नारे मे देश भर में एक नई क्रांति को जन्म दिया। अंग्रेज भक्त गांधी और नेहरू की दृष्टि में ‌यही सुभाषचंद्र बोस का अपराध था। क्योंकि सुभाषचंद्र बोस ने आजाद हिन्द फौज का गठन करके अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध प्रारंभ कर दिया था। जबकि गांधी और नेहरू ने शांति और अहिंसा का पुजारी होने के कारण कभी भी कोई संघर्ष प्रत्यक्ष तौर पर नहीं किया। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश में यह प्रचारित कर दिया कि आजाद हिन्द फौज की तलवारों से नहीं, बल्कि गांधी के चरखे कातने से देश में आजादी आई थी। यह कहकर सुभाष चंद्र बोस जैसे लाखों वीर सपूतों के बलिदान को इतिहास के पृष्ठों से गायब कर दिया, क्योंकि उनके बलिदान को इतिहास में दर्ज किए जाने से गांधी और नेहरू इतिहास पुरुष नहीं बनते।

उल्लेखनीय है कि 3 मार्च 1943 को अंग्रेजों के कब्जे से जापान के द्वारा अंडमान निकोबार द्वीप समूह को मुक्त कराकर नेताजी को सौंप दिए जाने पर सुभाषचंद्र बोस की लोकप्रियता और भी बढ़ गई, जहां पर 30 दिसम्बर 1943 को ही सुभाषचंद्र बोस ने भारत का तिरंगा ध्वज फहराया था। इसलिए ही सुभाष चंद्र बोस अंग्रेजों के युद्ध अपराधी थे। दूसरी ओर अंग्रेजों के समक्ष यह सत्य उजागर हो चुका था कि देश को स्वतंत्रता दिलाने में सबसे बड़ी भूमिका देश के क्रांतिकारी आंदोलन की रही थी। उस आंदोलन में भी नेताजी सुभाषचंद्र बोस का योगदान सबसे अधिक था। उनके क्रांतिकारी आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों को भयभीत कर दिया था। 1945 में खत्म हुए द्वितीय विश्वयुद्ध के अनेक भारतीय सैनिक युद्ध काल से ही इस फौज में सम्मिलित होकर अंग्रेजों के लिए सर दर्द बन चुके थे। 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना होने पर दुनिया के बड़े देशों ने ब्रिटेन को इस बात पर हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य किया कि अब उपनिवेशवाद की व्यवस्था संसार से खत्म होनी चाहिए। स्थिति ऐसी उत्पन्न हो गई थी कि आजाद हिन्द फौज के जांबाज सैनिक आगे बढ़ते जा रहे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, आर्य समाज, अभिनव भारत जैसी संस्थाएं सुभाषचंद्र बोस के रास्ते पर चलने के लिए पूर्णतया तैयार थी। ऐसी विकट परिस्थितियों में भारत को छोड़ने के लिए अंग्रेज बाध्य हो गए थे। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि नेताजी सुभाषचंद्र बोस के नेतृत्व में आजाद हिन्द फौज ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद पर अंतिम निर्णायक प्रहार किया था। 21 अक्तूबर 1943 को नेताजी द्वारा सिंगापुर में गठित आजाद हिन्द सरकार को जापान और जर्मनी सहित नौ देशों ने मान्यता दे दी थी। अंडमान और निकोबार द्वीप समूह पर इस सरकार ने 30 दिसम्बर को भारत का राष्ट्रध्वज तिरंगा फहरा कर आजाद भारत की घोषणा कर दी थी। अंडमान और निकोबार के नाम बदल कर शहीद और स्वराज कर दिए गए थे। यह भी सत्य है कि नेताजी द्वारा गठित सरकार स्वतंत्र अखंड भारत की पहली सरकार थी। नेताजी सुभाषचंद्र बोस अखंड स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री थे। 30 दिसम्बर 1943 ही वास्तव में अखंड भारत का स्वतंत्रता दिवस है। इसी दिन नेताजी ने अखण्ड भारत की सर्वांग एवं पूर्ण स्वतंत्रता का बिगुल बजाया था। लेकिन कांग्रेस द्वारा देश का विभाजन स्वीकार कर लिए जाने से 15 अगस्त को खण्डित भारत का स्वतंत्रता दिवस स्वीकृत हो गया।

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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