डॉ. वैदिक
2019 के आम चुनाव की घंटियां अभी से बजने लगी हैं। सत्तारुढ़ और विरोधी दलों ने अभी से अपनी कमर कसनी शुरु कर दी है। भाजपा के अध्यक्ष हर प्रदेश का दौरा कर रहे हैं और विरोधी नेतागण भी किसी न किसी बहाने एक-दूसरे से मिल रहे हैं। आज के दिन किसी को भी विश्वास नहीं है कि वे आसानी से सरकार बना लेंगे। पहला सवाल तो यही है कि क्या समस्त विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव साथ-साथ होंगे ? यदि ये सारे चुनाव एक साथ होंगे तो कब होंगे ? क्या मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के चुनावों के साथ-साथ लोकसभा और शेष सभी राज्यों के चुनाव दिसंबर 2018 में ही करवा दिए जाएंगे या लोकसभा के चुनावों के साथ मई 2019 में करवाए जाएंगे ?
सरकार की मंशा तो यह लग रही है कि ये चुनाव साथ-साथ करवाएं जाएं। उनकी तारीखें आगे-पीछे की जा सकती हैं। लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव यदि साथ-साथ होते हैं तो यह एक उत्तम परंपरा का प्रारंभ होगा। इससे चुनाव-खर्च घटेगा। सत्तारुढ़ नेता पांच साल तक अपना कर्तव्य-निर्वाह लगन और ईमानदारी से करेंगे। उनका समय लगातार चलनेवलो चुनाव-अभियानों में बर्बाद नहीं होगा और उन्हें जनता से झूठे वायदे भी नहीं करने पड़ेंगे। लेकिन इस संबंध में जो भी निर्णय हो, उसमें सभी दलों की भागीदारी होनी चाहिए। यदि कांग्रेस की साल भर पुरानी पंजाब सरकार को चुनाव का सामना करना पड़ेगा तो भाजपा की उप्र समेत कई सरकारों को अपनी पांच साल की अवधि को तिलांजलि देनी पड़ेगी।
विरोधी दलों को डर है कि दोनों चुनाव साथ-साथ होंगे तो भाजपा को इसका तगड़ा लाभ मिल जाएगा, क्योंकि केंद्र और ज्यादातर राज्यों में वही सत्तारुढ़ है। इस तर्क में कुछ दम जरुर है लेकिन वे यह न भूलें कि 2014 की मोदी लहर अब नदारद है और भ्रष्टाचार की कालिख पोतने के लिए कांग्रेसी सरकार का चेहरा भी उलपब्ध नहीं है। राज्यों के चुनाव तो वहां की सरकारों के काम-काज के आधार पर ही जीते जाते हैं। लेकिन सारे चुनाव साथ-साथ होते हैं तो प्रांतीय मतदाताओं पर सभी दलों के केंद्रीय नेताओं और सरकार का असर ज्यादा होने की संभावना रहेगी। ऐसी स्थिति में भाजपा का भविष्य नरेंद्र मोदी के हाथों में होगा। लेकिन 2014 के नरेंद्र मोदी और 2018 के नरेंद्र मोदी में क्या जमीन-आसमान का अंतर नहीं आ गया है ? मोदी की सारी कमजोरियों और विफलता का खामियाजा क्या भाजपा के मुख्यमंत्रियों को नहीं भुगतना पड़ेगा ? मोदी का जैसा तौर-तरीका है, उसके आगे कोई भी भाजपाई मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्य के चुनावी-रथ का महारथी नहीं बन सकता। ऐसे हालात विपक्ष के लिए बहुत फायदेमंद हो सकते हैं। इसीलिए उन्हें लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने पर तुरंत राजी हो जाना चाहिए।
लेकिन आज विपक्ष की हालत खस्ता है। विपक्ष के सारे पक्षी अपने-अपने पिंजरे में बंद हैं। सारे पक्षी हैं। उनमें कोई शेर नहीं है, जिसकी दहाड़ सारा देश सुने। इन्हें आपस में जोड़नेवाला कोई सिद्धांत, कोई आदर्श, कोई नीति और कार्यक्रम भी नहीं है। विपक्ष के पास 21 वीं सदी के भारत का कोई विलक्षण सपना भी नहीं है। इसके बावजूद अगर वे एकजुट हो जाते हैं तो वे भाजपा की नय्या आसानी से डुबो सकते हैं, क्योंकि 2014 के चुनाव में भाजपा को कुल 31 प्रतिशत वोट मिले थे, वह भी लहर के कारण, जो अब लौट चुकी है। हमने विपक्ष की एकता का नमूना उप्र में देख लिया। समाजवादी और बहुजन पार्टियों ने मिलकर उप-चुनाव में चारों सीटें जीत लीं, जिनमें से एक मुख्यमंत्री और एक उप-मुख्यमंत्री की थी। यदि सिर्फ उप्र और अन्य हिंदी राज्यों में विरोधी एक हो जाएं तो भाजपा की 50 से 60 सीटें कम हो सकती हैं। यदि कर्नाटक में कांग्रेस और जद (से.) मिलकर लड़तीं तो क्या भाजपा को उतनी सीटें मिलतीं, जितनी मिली हैं ? गुजरात में भी जान बची तो लाखों पाए।
यह तो साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है कि अगले चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना अत्यंत कठिन है। इसके अलावा अभी जो पार्टियां उसके साथ गठबंधन में हैं, वे भी अपना नया ठिकाना तलाशने में जुटी हुई हैं। शिव सेना और तेलुगु देसम ने तो तलाक की घोषणा कर रखी है। नीतीश का कुछ भरोसा नहीं। रामविलास पासवान, ओमप्रकाश राजभर और अकाली दल आदि भी 2019 तक भाजपा के साथ रहेंगे या नहीं, कुछ पता नहीं। गठबंधनों में शामिल होनेवाले छोटे-मोटे दल सिर्फ सत्ता-सुख से प्रेरित होते हैं। यदि उन्हें मोदी की कुर्सी हिलती दिखी तो वे विपक्ष के खेमे में अपनी जगह तलाशने में जुट जाएंगे। ऐसी हालत में भाजपा अल्पमत में आ गई तो उसके नेतृत्व का सवाल एकदम प्रखर हो जाएगा। नेतृत्व-परिवर्तन का सवाल उठेगा। यह संभव है कि उस समय भाजपा के नए नेता के साथ कई दल दुबारा एकजुट होना चाहें और वह फिर से सत्तारुढ़ हो सके।
लेकिन भाजपा के अल्पमत में जाते ही विपक्ष का गठबंधन अपनी सरकार बनाने में जी-जान लगा देगा। विपक्ष के सामने उस समय और आज भी सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व की है। इसमें शक नहीं कि आज भी कांग्रेस, अपने सर्वाधिक अधःपतन के जमाने में भी एक अखिल भारतीय पार्टी है। देश के लगभग हर जिले में उसके कार्यकर्त्ता मौजूद हैं लेकिन उसके पास कोई नेता नहीं है। राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष हैं। उन्होंने अपने आप को अभी से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार भी घोषित कर रखा है। यदि वे इसी टेक पर अड़े रहते हैं तो अन्य दल कांग्रेस के साथ संयुक्त मोर्चा नहीं बनाएंगे। कांग्रेस की स्थिति सारे देश में वैसी ही हो सकती है, जैसे उप्र में हुई है। यदि राहुल अपनी मां के नक्शे-कदम पर चले और प्रधानमंत्री पद की इच्छा भी न करे तो देश में एक जानदार दूसरा मोर्चा खड़ा किया जा सकता है। विपक्ष का प्रधानमंत्री कौन होगा, इसका फैसला चुनाव के बाद भी हो सकता है। 1977 में भी यही हुआ था।
दूसरा मोर्चा खड़ा करने में नेतृत्व की यह बाधा दूर हो जाए तो भी कई समस्याएं सामने आ सकती हैं। पं. बंगाल में कांग्रेस, तृणमूल और मार्क्सवादी तथा केरल में कांग्रेस और मार्क्सवादी अपने मतभेदों को कैसे पाटेंगी। दिल्ली में क्या आप और कांग्रेस हाथ मिला लेंगी ? मायावती और अखिलेश तब तक एकजुट रह पाएंगे ? ये दल आपस में सीटों का बंटवारा क्या शांतिपूर्वक कर पाएंगे ? यदि नरेंद्र मोदी ने कुछ चमत्कारी कदम नहीं उठाए तो 2019 में विपक्षी गठबंधन की सरकार बनना सुनिश्चित है लेकिन यह भी सुनिश्चित है कि वह सरकार 1977 की मोरारजी और चरणसिंह की सरकारों की तरह, 1989 की विश्वनाथप्रताप सिंह और चंद्रशेखर की सरकारों की तरह और 1996 में देवेगौड़ा और गुजराल की सरकारों की तरह अल्पजीवी होगी और आपसी खींचतान के कारण उसकी जान हमेशा अधर में लटकी रहेगी। भारतवासियों के लिए आनेवाला समय काफी कांटोभरा है।