अब राष्ट्रगान पर विवाद स्वीकार्य नहीं

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ललित गर्ग

हमारे देश में राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत को लेकर तथाकथित कट्टर ताकतें विरोधी स्वर उठाती रही है, इनके सार्वजनिक स्थलों पर गायन का दायरा क्या हो और वह किसके लिए सहज या असहज है, इस सवाल पर कई बार बेवजह विवाद उठे हैं। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुधवार को दिए अपने एक आदेश में साफ कह दिया है कि मदरसों में राष्ट्रगान गाना अनिवार्य है क्योंकि राष्ट्रगान और राष्ट्रध्वज का सम्मान करना प्रत्येक नागरिक का संवैधानिक कत्र्तव्य एवं दायित्व है। जाति, धर्म और भाषा के आधार पर इसमें भेदभाव नहीं किया जा सकता।
कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में जब राज्य सरकार ने सभी मदरसों में पूरी औपचारिकता के साथ राष्ट्रगान के गायन का आदेश जारी किया तो उस पर एक धर्मविशेष से जुड़े तथाकथित राजनीतिक नजरिये वाले लोगों ने आपत्ति दर्ज की थी। यह दलील दी गई कि देश के प्रति आस्था एवं निष्ठा दर्शाने के लिए शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों को राष्ट्रगान गाने पर मजबूर नहीं किया जाए। इसे मदरसे में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की धार्मिक आस्था और विश्वास के विपरीत भी बताया गया। इस मसले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर करके यह मांग की गई थी कि मदरसों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को राष्ट्रगान के गायन से छूट दी जाए। यह विडम्बनापूर्ण है कि एक राष्ट्र में रहने वाले लोगों के लिये उस राष्ट्र का गीत, उसका ध्वज, उसके राष्ट्रीय प्रतीक क्यों धार्मिक आस्था एवं विश्वास के वितरीत हो जाते हैं? जबकि ये सभी अपने देश के महान इतिहास, इसकी परम्पराओं और बिना किसी धर्म, भाषा, क्षेत्र भेद के आपसी भाईचारे की भावना को बढ़ावा देते हैं। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने याचिका को सांप्रदायिक सौहार्द बिगाडने का प्रयास करार देते हुए उसे खारिज कर योगी सरकार के आदेश पर हाईकोर्ट की मुहर लगा दी है। अब तो कट्टरपंथियों को जुबान बन्द कर लेनी ही चाहिए। कोर्ट ने कहा कि राष्ट्रगान राष्ट्रीय अखंडता, पंथ निरपेक्षता और लोकतांत्रिक भावना को प्रखर करता है।
संविधान का अनुच्छेद 51ए नागरिकों के मौलिक कत्र्तव्य का वर्णन करता है कि राष्ट्रगान जन-गण-मन भारत की आजादी का अभिन्न हिस्सा है। इसे पूर्ण सम्मान देना और इसके सम्मान की रक्षा करना भारत के हर नागरिक का कर्तव्य है।’   संवैधानिक दृष्टि से राष्ट्रगान के सम्मान को सुनिश्चित करना सरकार एवं कानून-व्यवस्था की भी जिम्मेदारी है। इसी जिम्मेदारी को निभाते हुए उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने आदेश जारी कर सभी मदरसों में राष्ट्रगान गाना और राष्ट्रध्वज फहराना अनिवार्य कर दिया था। बाद में मदरसों से सरकार ने स्वतंत्रता दिवस कार्यक्रम की रिकार्डिंग मांगी थी। इस शासनादेश को एक अधिवक्ता शाहिद अली सिद्धीकी ने कोर्ट में चुनौती दी थी। क्या सोचकर उन्होंने इस आदेश को चुनौती दी? कैसे उनकी नजर में  उत्तर प्रदेश सरकार का यह आदेश त्रुटिपूर्ण है? उनकी दलील थी कि शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों को राष्ट्रगान के लिए विवश नहीं किया जाए। ऐसा करने का अर्थ है जबर्दस्ती राष्ट्रभक्ति को थोपना। लेकिन याचिकाकर्ता अपनी दलीलों के समर्थन में एक भी साक्ष्य पेश नहीं कर पाए जिससे यह साबित हो कि राष्ट्रगान गाने से उनकी धार्मिक आस्था और विश्वास पर कोई प्रभाव पड़ा हो। याचिकाकर्ता ने ऐसा भी कोई साक्ष्य नहीं दिया जिससे यह पता चले कि मदरसे में पढने वाले छात्रों को राष्ट्रगान गाने में कोई आपत्ति हो। खबरों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश के ज्यादातर मदरसों ने सरकार के आदेश का पालन किया है। लेकिन उत्तर प्रदेश के बरेली शहर के दरगाह आला हजरत से मदरसों में राष्ट्रगान न गाए जाने का फरमान जारी हुआ था। इसे देखते हुए सरकार अब कड़े कदम उठा सकती है। सरकार को कड़े कदम उठाने भी चाहिए। प्रश्न राष्ट्रीयता का है, उसकी मजबूती का है, उसके प्रति राष्ट्र के नागरिकों की निष्ठा एवं दायित्व का है। कोई भी धर्म, जाति या भाषा राष्ट्रीयता से ऊपर नहीं हो सकती।
राष्ट्रगान का विरोध पूरे राजनैतिक दृश्य की समीक्षा, हमें अपने अन्दर झांकने के लिए बहुत कुछ सामग्री दे रही है। मनुष्य को शांति, अहिंसा और भाईचारे का पाठ पढ़ाने वाले कट्टर होकर शेर की सवारी कर चुके हैं। इन दिनों घटनाचक्र ऐसा चला कि दो-चार मुद्दों को छोड़कर अन्य राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे मौन हो गये। पूरा देश दर्शक बनकर देख रहा है कि किस तरह  भारत में कट्टरपंथी ताकतें कभी तिरंगे का, कभी राष्ट्रगान का, कभी वन्देमातरम का, कभी सरस्वती वन्दना का विरोध करती रहती हैं। किसी को एक शब्द पर आपत्ति तो किसी को किसी क्षेत्र के नाम पर। कट्टरपंथी एक शब्द के उच्चारण से घबराते हैं, पर उनकी अज्ञानता है, हठधर्मिता है या कट्टरपन ्है-ये तो वे ही जाने, परन्तु वह माटी जिसे हम शीश नवाते हैं, शीश पर धारण करते हैं, जिन हवाओं में हम सांस लेते हैं, जिस धरती पर हम जन्म लेते हैं, उसे अगर नमन करें तो इसमें कौनसी भावना आहत हो जाती है। एक गंभीर एवं संवेदनशील प्रश्न है, जो बार-बार राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता को खण्डित करने के लिये इस्तेमाल किया जाता रहा है, लेकिन कब तक हम राजनीति करने वाले संकीर्ण एवं स्वार्थी लोगों के साये में देश को संकट के बादलों में धकेलते रहेंगे? कब तक इस तरह की देश को बांटने एवं तोड़ने की कोशिशों को प्रोत्साहन देते रहेंगे?
लालकिले की प्राचीर पर खड़े होकर राष्ट्रध्वज की छाया में पूरे देश को देखे तो हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब समान दिखाई देते हंै, वहां से मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, चर्च आदि सभी पूजा स्थल सब दिखाई देते हैं। जहां से इतिहास दिखाई देता है। जहां से अतीत, वर्तमान और भविष्य दिखाई देता है। जहां से गुंथे हुए भाईचारे  के तानेबाने दिखाई देते हैं। लालकिले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराना महज़ प्रतीक ही नहीं बल्कि राष्ट्र के प्रत्येक नागरिक को जोड़ने का संकल्प है। यह ध्वज या राष्ट्रगान राष्ट्र के लिए कुर्बान हुए शहीदों को याद करने का माध्यम है। राष्ट्रध्वज एवं राष्ट्रगान आजादी एवं राष्ट्रीय अखण्डता के लिए दिये गये बलिदानों का पवित्र प्रतीक है। इनसे जुड़ने एवं इनके प्रति निष्ठा व्यक्त करने का अर्थ मात्र औपचारिक होना नहीं होता, बल्कि अपने आपको देश की अखण्डता के लिए संकल्पपूर्वक प्रस्तुत करना होता है।
सवाल यह है कि आखिर कट्टरपंथियों को मदरसों पर राष्ट्रध्वज फहराने, राष्ट्रगान गाने में दिक्कत क्या है। जिसे राष्ट्रगान गाने से परहेज है उनका आखिर किस मुद्दे से और किस आधार पर यह कहना है कि उससे राष्ट्रभक्ति का सबूत न मांगा जाए? क्या किसी देश में रहने का आधार केवल साम्प्रदायिकता या धार्मिक आधार हो सकती है? राष्ट्रवाद पहली प्राथमिकता है, यह भारत की उदारता है कि यहां सभी धर्मों, जातियों, भाषाओं, वर्गों के लोगों को समानता से जीने का माहौल उपलब्ध है, लेकिन उदारता का अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि लोग राष्ट्रीयता को ही गौण कर दे। राष्ट्रध्वज हो या राष्ट्रगान- राष्ट्र की अस्मिता एवं अस्तित्व का प्रतीक है। हमने इन्हीं प्रतीकों को आधार बनाकर अंग्रेजों से लौहा लिया था। अंग्रेज इन्हीं प्रतीकों के प्रति हमारे जोश एवं हौसलों को कुचल देना चाहते थे, परन्तु धधकती हुई जवानी ने अंग्रेजों को इस धरती को छोड़कर जाने को मजबूर कर दिया।
हम 70 वर्षों से आजाद हैं। हम ही अपने देश के राजा हैं। जितने हिन्दू स्वयं को देश का राजा मानते हैं, उतने ही मुसलमान भी देश के राजा है, उतने ही सिख और ईसाई एवं अन्य धर्म, जाति एवं वर्ग के लोग राजा है, कोई भेदभाव नहीं, कोई ऊंच-नीच नहीं। फिर राष्ट्रगान एवं राष्ट्रीय ध्वज में भेदभाव को नजरिया क्यों? सभी  हमारा राष्ट्र महान् है- का नारा लगाते हैं। नारा लगाने से कोई राष्ट्र महान् नहीं होता। महानता को सिर्फ छूने का अभिनय जिसने किया, वह बौना हो गया और जिसने संकल्पित होकर स्वयं को ऊंचा उठाया, महानता उसके लिए स्वयं झुकी है। अब संकीर्णताएं बहुत हो चुकी है, अब तो महानता की बारी है। जो लोग संकीर्ण है या संकीर्णता को फैलाने का कार्य करते हैं, जब भी और जहां भी विरोधी स्वर सुनाई पडे़, उन्हें करारा जबाव दिया जाना चाहिए। क्योंकि अब अदालत ने इस मामले में दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया है तो निश्चित रूप से इसे लेकर किसी के मन में कोई भ्रम नहीं होना चाहिए। दरअसल, आम लोग देश के प्रति अपनी भावनाएं जाहिर करने को लेकर पूरी तरह सहज रहते हैं। लेकिन कई बार निहित स्वार्थी एवं संकीर्ण तत्त्व इस तरह के मामलों को विवादित बना देने में ही अपनी शान समझते हैं। आम लोगों को उससे शायद ही कोई मतलब होता हो लेकिन विवाद की स्थिति में अक्सर उन पर भी उंगलियां उठने लगती हैं। इस बात से शायद ही किसी को आपत्ति हो कि देश के प्रति भावनात्मक अभिव्यक्तियां अगर बिना किसी विवाद और दबाव के सामने आएं तो अपने असर में वे स्थायी नतीजे देने वाली होंगी और उससे आखिर देश को ताकत मिलेगी। आज देश को ऐसी ही ताकत की ज्यादा जरूरत है। इस बात से सहमति रखने वाले लोग अभी भी समाप्त नहीं हुए। प्रेषकः

5 COMMENTS

  1. आप तरह तरह के बल से लोगों को मजबूर कर सकते हैं डरा धमका कर..। दिल नहीं जीत सकते. राष्ट्रगान / गीत पर लोगखुद से आगे बढ़ें ऐसा माहौल बनाने की जरूरत है. कट्टर वाद देखें कब तक चलता है. कोशिश कीजिए ऐसे ही हिंदी राजभाषा थोपने की..। देश में फिर पहले जैसी आग लगेगी. आज की राजनीति ने सत्यानाश कर रखा है देश का.

    • आ. अयंगार जी http://www.nandinivoice.com पर निबंध स्पर्धा हुयी थी. और जितने भी निबंध आए (९५%) कालेज के छात्र हिन्दी पढना चाहते थे. मेरे छात्र कहते हैं==>अब वह हिन्दी विरोधी पीढी वृद्ध हो चुकी है. बहुत -सी निजी शालाएँ तमिलनाडु में हिन्दी पढा रही हैं. किन्तु वे काफी महँगी हैं. छात्र कहते हैं, राजनीति ने छात्रों को घाटे में डाला है. भारत में कहीं भी नियुक्ति पर हिन्दी से ही काम चल जाता है. साथ साथ अंतर्प्रादेशिक संप्रेषण के लिए भी हिन्दी बहुत उपयोगी है. प्रश्न: क्या मोदी बिना हिन्दी में प्रचार कर प्रधान मंत्री बन सकते थे? आप भी तो हिन्दी में ही लिख कर हिन्दी का विरोध कर रहें हैं।
      मैं ने कुछ वर्ष पूर्व, कॉयम्बतूर में पंचकर्म के कर्मचारी से वार्तालाप में पाया, कि, पंचकर्म के गुट का नेतृत्व करनेवाला हिन्दी जानकार होने पर शीघ्र उन्नति कर सकता है. आयुर्वेदकी एक हिन्दी पुस्तक लाया. उस पुस्तक के लेखक रामस्वामी वारियर प्रस्तावना में लिखते हैं, कि *राष्ट्र भाषा होने के कारण पुस्तक हिन्दी में लिखी /छपी है. शब्द अधिकतर संस्कृत ही प्रयोजे गए थे. इतने संस्कृत निष्ठ सब्द तो उत्तर भारत में भी प्रयोजे नहीं जाते.
      अब की पीढी में हिन्दी विरोध घट रहा है. आप सोचिए. http://www.Nandinivoice.com जालस्थल अवश्य देखिए.
      मैं स्वयं गुजराती भाषी हूँ.

    • अयंगर जी, आपकी टिप्पणी को बार बार पढ़ने पर अकस्मात मन में केवल बाढ़ का दृश्य उदय होते दिखाई देता है| बिना किसी किनारे व दिशा के विनाशक जल-प्रवाह चारों ओर तबाही मचाने के अतिरिक्त क्या करेगा? उसी लय में, जब आप हिंदी लिखते हैं और जब कभी हिंदी भाषा की बात होती है उसे आप दूसरे लोगों की भांति राजनैतिक ढंग से केवल भाषा के थोपे जाने की बात क्यों करते हैं? राष्ट्र के जनसमूह में संगठन की महत्वता को देखते हुए हिंदी अथवा किसी और भारतीय मूल की भाषा को संपर्क का माध्यम बनाने की आवश्यकता पर बात क्यों नहीं करते हैं? थोपना शब्द इतना घिनौना बना दिया गया है कि उसका धूर्ततापूर्ण प्रयोग एक गाली बन कर रह गया है जिसका हर हालत में हिंदी भाषा का विरोध करना आपका नैतिक अधिकार है| आप पहले बोल पड़े हैं इसका मतलब यह नहीं कि मैं अपने विचारों को दबा दूँ| क्षमा करें, पहले सी आग लगाते देश का सत्यानाश आप कर रहे हैं|

      अपने पंजाब से रेल द्वारा सीधा कन्याकुमारी और तत्पश्चात एक माह दक्षिण भारत के विभिन्न शहरों में रेल और बस से यात्रा कर अलाप्पुझा पहुँच वहां से पंजाब लौट आने पर मुझे ऐसा लगा कि मैं विदेश से घूम कर आ रहा हूँ| कन्याकुमारी में अध्यात्मिक उन्मुख सेवा व अन्य शहरों के विशाल मंदिरों में हिन्दू गौरव को देख बहुत अच्छा लगा| सामान्य भाषा के अभाव और स्थानीय भाषा के अज्ञान के कारण वहां के लोगों के सद्भावना-पूर्ण व्यवहार को हम ठीक प्रकार सराह न सके| विल्लुपुरम रेलवे स्टेशन से मेरी रेल गाड़ी के नामित प्लेटफार्म के बदलने पर मुझे भारी सामान उठाए पुल पार करना पड़ा लेकिन पीछे से आ रही गाड़ी के आध घंटे पूर्व उसे फिर से नामित प्लेटफार्म पर आने की घोषणा ने मानो मेरे लिए आपत्ति खड़ी कर दी| देखते देखते सभी यात्री वहां से प्रस्थान कर चुके थे लेकिन इतने कम समय में सामान उठाए दूर पुल को पार करना और रेल गाड़ी पहुँचने से पहले नियमित स्थान पर लौट आना मुझ बूढ़े के लिए असंभव सा जान पड़ा| मेरी लाचारी देख प्लेटफार्म पर खोमचे के नौजवान मालिक ने पल भर में मेरा सामान उठाया और मुझे नियमित प्लेटफार्म पर ले आया| भाषा के अज्ञान में हम दोनों गूंगे मुस्कराते एक दूसरे को देख रहे थे| उसके लाख मना करते मैंने सौ रुपये का नोट उसकी जेब में डाल दिया| कुछ समय पश्चात एक ओर दूर से गाड़ी को आते देखता हूँ और दूसरी ओर से पटरियों को लांघते नौजवान को अपनी ओर आते देखता हूँ| सोचता हूँ पैसे लौटाने आ रहा है| नहीं, उसने मेरा सामान उठाया और मेरे पीछे रेल के डिब्बे में आ गया जहां उस समय तमिलनाडु के एक सांसद व उनकी धर्म-पत्नी पहले से बैठे हुए थे| भौचक्का वह उन्हें देखते नतमस्तक हुआ और मेरे अंग्रेजी में कहने पर सांसद ने तमिल में उस नौजवान को मेरी ओर से धन्यवाद दिया| इस बीच मैंने उस बेटे समान नौजवान को आलिंगन करते न जाने क्यों पंजाबी में आशीर्वाद दिया| मेरी आँखें नम हो आईं और मुझे आज भी इस बात का रंज है कि मैं उसे शब्दों में बोलते अपना आभार प्रदर्शित न कर सका| भारतीय संस्कृति पर गर्व करते हुए हम भारत जैसे महान देश के वासी एक दूसरे से अपरिचित बने हुए हैं| क्यों?

    • अयंगर जी, सोचता हूँ कि क्या यहाँ प्रवक्ता.कॉम पर टिप्पणी के स्वरूप छोड़े अपने पद-चिन्ह को लौट फिर से देखना नहीं चाहेंगे?

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