अहिंसा के हिंसक अनुयायी

– शाक्त ध्यानी

गांधी अपने हीरो कभी नहीं रहे। विद्यार्थी जीवन में जब प्रत्येक छात्र अपना एक वैचारिक शरीर खड़ा कर उसे ओढ़ता है तो उसमें जीवन के प्रति चौबीस कैरेट की शुचिता होती है। वह समाज, राष्ट्र के लिये अर्पित होने को आतुर होता है, उन दिनों अपने कमरे में सुभाष, भगत सिंह और आजाद के फोटो होते थे। सावरकर के चित्र उपलब्ध नहीं होते थे परन्तु दुश्मन के चंगुल से निकल समुद्र में तैरकर भागने के कारण सावरकर का जाप मन ही मन चलता था। गांधी को हम सरकारी संत कहते थे। कांग्रेसियों ने अपने आदर्श परिवार के प्रथम पुरूष नेहरू का अनुसरण करके गांधी की टोपी पर खरबों की बतोलेबाजी की। शरीर की हत्या करना यदि अपराध है, तो विचार की हत्या तो महापातक है। सच यही है, कि नाथूराम गोड्से से बहुत पहले ही नेहरू, गांधी की हत्या कर चुके थे, गांधीवाद क़ो टोपी पहना चुके थे, गांधी के ग्रामीण-स्वराज्य को इंगलिश बूटों के नीचे रौंद चुके थे। कांग्रेस की इस दुकानदारी को भांपने के कारण बचपन से ही गांधी के विचार हम बच्चों के नायक नहीं बन सके। गांधी पाकिस्तान को पांच सौ करोड़ दिलवाने के लिये कड़क हो गये, भारत विभाजन के प्रश्न पर नरम हो गये, सुभाष के अध्यक्ष बनने पर, जलियांवाला बाग और लाजपत राय की हत्या से उपजी स्वावाभिक हिंसा पर वे कड़क रहे और विभाजन के बाद हुई हिंसा पर वे नरम हो गये। तुर्की के खलीफा के समर्थन में उतरने वाले कठमुल्ला अली भाईयों की पीठ पर गांधी ने हाथ क्यों रखा? साम्प्रदायिक एकता का जो बीज वे फूल समझ कर बो कर गये हैं, वह कंटीली झाड़ी बनकर राजनीति को अगम्य क्षेत्र बनाता जा रहा है।

वयस्क होने पर गांधी की अनेक राजनीतिक भूलों के कारण गांधी की अहिंसा अपशब्द लगने लगी परन्तु उस समय के आमजन के व्यवहार में गांधी के कारण जो एक देशीपन था, उस स्वयंबोध के कारण भारतीय मनीषा का जो पुनर्जागरण हुआ, गांधी का अपना निस्वार्थ जीवन जिस तरह राजनीति में एक सार्थक हस्तक्षेप करता दिखता था। उस कारण गांधी की प्रतिमा के आगे मन भीगता था। गांधी ने स्त्रियों की क्षमता का जो पुनर्मूल्यांकन किया। छुआछूत, धार्मिक-पाखण्ड का विरोध कर भारतीय मेधा को ऐन उस समय झकझोरा जब विश्व इतिहास एक नई करवट ले रहा था, परन्तु नेहरू ने राष्ट्र को अपनी करवट नहीं लेटने दिया, गांधी के स्वावलम्बन और स्वदेशी दर्शन की जड़ उन्हीं के सामने काट दी गयी। विलक्षण मेधा वाले देश को कांग्रेसियों ने गुड़मण्डी बना दिया। नेहरू को भारतीय राजनीति का केन्द्रीय स्वर बनाना गांधी द्वारा किया गया जघन्य अपराध था। गांधी के नाम पर कांग्रेसियों ने जो अरबों-खरबों का तन्त्र खड़ा किया, राष्ट्र की राजनीतिक भूमि को गांधी ब्रान्ड रसायन छिड़क कर जिस तरह बंजर बनाया गया। नेहरू परिवार ने लोगों को मूर्ख बनाने के लिये गांधी-एक्सप्रेस चलाकर देश की स्वतंत्रता को जैसी गाली दी है, वह क्षमा योग्य नहीं हैं। यह उन करोड़ों भारतीयों का अपमान है जिन्होंने इस वैदिक राष्ट्र की अस्मिता के लिये अपना सर्वस्व दिया। सिंध के राजा दाहिर से लेकर साध्वी प्रज्ञा तक चलने वाले इस यज्ञ को नष्ट करने वाले कांग्रेसियों के चेहरे के ऊपर पहने इस गांधी के मुखौटे को हमें उतारना होगा।

गांधी ने सत्य और अहिंसा को अस्त्र बनाकर स्वतंत्रता का बिगुल बजाया। सत्य बहुत नग्न शब्द है। वह या तो पूरा समझ में आता है जैसे कि भारतीय ऋषियों, अवतारों, सन्तों ने इसे समझा या बिलकुल नहीं आता। सत्य के साथ खिलवाड़ करना आत्मघात है। गांधी के उस सत्य को टोकरी में सजाकर नेहरू परिवार ने सत्ता का मछली बाजार खड़ा कर दिया। गांधी जब तक सत्य को छू पाते, कांग्रेसियों ने पूरी सच्चाई से राजनीति के सभी कपड़े उतार दिये। आज संसद में जब कभी भाई लोग इकट्ठा होते हैं तो दुःशासन याद आने लगता है। गांधी का दूसरा हथियार अहिंसा था। जिसका तमाशा विभाजन के समय पर स्वयं गांधी ने भी देखा और दस लाख लोगों की निर्मम हत्या देखकर भी राष्ट्रपिता ने एक बार भी यह स्वीकार नहीं किया कि वे हिंसा-अहिंसा के दर्शन को समझने में ही भारी भूल करते रहे हैं। अहिंसा को धार्मिक आंदोलन का मूल स्वर बनाने वाले भगवान महावीर और भगवान बर्द्वमान थे। दोनों महामानवों की अहिंसा का व्यावहारिक जीवन से तालमेल इसलिये नहीं बैठ सका क्योंकि उनके अतिरिक्त शेष समाज साधारण गृहस्थ था। बुद्व की अहिंसा परम स्थिति प्राप्त योगी की अहिंसा है और संसार में वह समय आक्रांताओं से लोहा लेने का था। रेगिस्तानी लुटेरों के हाथों अहिंसा की ऐसी दुर्गति होने के बाद भी गांधी ने यह मार्ग क्यों चुना? गांधी हमेशा गीता साथ रखते थे परन्तु उन्होंने सर्वाधिक उपेक्षा कृष्ण के सदवचनों की ही की। जो अंग्रेज हमें कुत्ता समझते थे, जिन्होंने सन सत्तावन में चार लाख से अधिक भारतीयों का कत्ल किया, उन दुर्योधनों के आगे अहिंसा का क्या अर्थ था…?

सब भारतीय जानते हैं कि अर्जुन भी इसी अहिंसा की प्रशंसा में बार-बार गांडीव कंधे से नीचे रखता था। हिंसा-अहिंसा के इसी द्वन्द्व पर कृष्ण ने पूरे भारतीय चिन्तन को निचोड़ कर गीता में प्रस्तुत किया। भारत के वामपंथी भी यदि गीता को पढ़ लेते तो वे मार्क्स के दर्शन से इतने अभिभूत न होते। कृष्ण, बुद्व और महावीर की हिंसा-अहिंसा मार्क्स के उस द्वन्द्व पर आश्रित नहीं है, जिसे मार्क्स और हीगल ने दूसरी-तीसरी सदी के द्वैतवादी आचार्यो की किताबों से टिपाया। कृष्ण मानवीय चेतना के शिखर पुरूष हैं…, वे जानते हैं कि हिंसा को कब धर्म का अस्त्र बनना चाहिये और अहिंसा जैसी परमावस्था की रक्षा के लिये कैसा समाज और कैसे लोग होने चाहिये। गांधी की अहिंसा और मार्क्स की हिंसा में जरा भी अन्तर नहीं है। बारूद और बन्दूक की भाषा वालों के सामने गांधी ने जिस अहिंसा का प्रचार किया वह मात्र रणनीति लगती है। आमरण-अनशन भी स्वयं पर की गयी एक तरह की हिंसा ही हैं बल्कि कई अवसरों पर गांधी की अहिंसा मार्क्स हिंसा से भी अधिक हिंसक लगती है। गांधी की अहिंसा से हमें हिंसक हमलों से भी अधिक नुकसान हुआ। भारतीय चिंतन आहत हुआ, पथभ्रष्ट हुआ और राजनीति को पाखण्ड रचने की एक नई कला प्राप्त हुई।

आजकल कई नेता एक घन्टे का आमरण अनशन करते हैं। घर से पराठें खाकर कई दफ्तरों के हड़ताली कर्मचारी क्रमिक भूख हड़ताल करते हैं और बाद में फोकट का जूस पीते हैं, मीडिया में हीरो बनते है। बचपन से अखबारों में गांधी के इस हथियार की लीलायें पढ़-पढ़कर लगता था कि गांधी असल में इन पाखण्डी राजनेताओं, हड़तालियों के ही पिता बन गये हैं। राष्ट्र की जो मूल चेतना थी गांधी उसके प्रतिनिधि नहीं बन सके। हमारे सभी देवी-देवताओं के हाथ में जो हथियार है, उनका अर्थ कौन समझायेगा? साल भर में हिंदुओं के वे दो नवरात्र और उनकी अधिष्ठात्री वह देवी, जिसके अठारह हाथों में वज्र-कुल्हाड़े हैं। उस मां से हमारा समाज शक्ति और मंगल मांगता है। शक्ति हमारी हिंसा को मंगल से जोड़ती है। काली के पांडाल सजाने वाला बंगाल, मार्क्स की देशनाओं से इतना चकित क्यों हुआ? सदियों अहिंसा को निर्मुण्ड होते देख कर भी यह सशस्त्र-दर्शन पढ़ने वाला समाज, गांधी की अहिंसा पर इतना लट्टू क्यों हुआ? यह शक्तिपुत्रों की भूमि है। हम क्लीव नहीं हो सकते, परन्तु शक्ति को नक्सली मार्ग पर ले जाना भी कायरता है। बुद्व की अहिंसा का जो अर्थ गांधी और उसके चेलों ने निकाला वैसा ही अनुवाद यदि हम जगद्जननी का करेंगे, तो काली के खप्पर और आतंकवादियों की चीनी रायफलों का अन्तर स्पष्ट नहीं हो सकेगा। राष्ट्रपिता के बन्दरों की तरह संसद से लेकर सड़क तक, अध्यात्म भी राजनीति की तरह खिलौना बना दिया जायेगा।

7 COMMENTS

  1. Ek hi shabd….Atbhut…..sarthak alekh hetu sadhuvad….aaj desh me gandhi prasangik nahi hai…..vaise bhi aajadi bina khadga bina dhal ke na to mil sakti hai nahi surakshit rah sakti hai…congressi chatukar kaviyo ke karan aaj bachhe jab ye geet gungunate hai to man kshobh se bhar uthta hai….khadi bhasha me kahu to…..andhi pise aur kutte khay wali sthiti hai….asali shahido ko sadyantra purvak har jagah….kitabo…filmo….media se gayab kar diya gaya….gandhi apana bhi hero kabhi nahi raha

  2. (१)हिंसकोकी जान लेवा हिंसा का अहिंसक विरोध, अहिंसक समाजके और अहिंसामें विश्वास करने वाली संस्कृति के विनाशमें ही होगा। इतना भोला भाला सत्य केवल समझना है।
    (२) जो समाज एक धर्म के सिवा सभीको काफिर और हत्त्याके योग्य माने, उसको सर्व धर्म समभाव में स्थान देकर उचित ठहराना, यह ===सर्वधर्म समभाव के अंतमे ही परिणत होगा।
    (३) पाकीस्तान और बंगलादेश दोनो हाथमें लड्डु और भारत में तो अपना जॉइंट अकाउंट है। ब्याज में एक तिहायी कश्मिर,और निर्हिंदु भारतीय कश्मीर। मुफ्त का चंदन घिस बे लालिया। यह सारा इसी गांधीवादी अहिंसाके परिणाम है। अहिंसा वैयक्तिक आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है। पर अहिंसाके कारण क्या कल आप जेल, दंड और न्याय व्यवस्था विसर्जित कर देंगे?
    जेल की क्या ज़रुरत? कसाब को अफज़लको क्षमा कर दो। सेना की, पुलीसकी, क्या ज़रूरत?
    ==अहिंसा वैयक्तिक आध्यात्मिक उन्नति के लिए आवश्यक है।==
    ==पर दुनिया के दैनंदिन व्यवहारमें आपको दंड और न्याय का उचित उपयोग करनाही चाहिए।===

  3. अब्दुल रशीद जी की बात में दम है, उसपर विचार किया जाना हितकर सिद्ध होगा. क्या लिखें, क्या बोलें, क्या करें और क्या न करें ? इसकेलिए कसौटी क्या है? कसौटी क्या केवल यही नहीं है कि जिससे सबका कल्याण हो, वही हो. पर सबका कल्याण कैसे संभव है? चोर को चोरी में कल्याण नज़र आता है तो क्या उसके लिए प्रयास करेंगे? ज़रा नीचे दिए उद्धरणों को देखें————-
    *गीता कहती है “परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम……….” सज्जनों की सुरक्षा व कल्याण के लिए और दुर्जनों के विनाश के लिए .
    * विषय को और भी स्पष्ट किया है महाभारत ने. हमारे पढ़े-लिखे अल्पग्य कहते हैं कि भारतीयों को इतिहास की कल्पना ही नहीं थी इसलिए उन्होंने इतिहास का लेखन नहीं किया. ज़रा देखें कि इतिहास लेखन पर कितना ऊंचा, स्पष्ट विचार भारत के मनीषियों द्वारा हमारे सामने रखा गया है, # धर्म,अर्थ, काम, मोक्षाणाम समन्वितं; पूर्व वृत्तं कथा युक्तं इतिहासं प्रचक्षते.#
    हमारे व्यक्तिगत,समाज या राष्ट्र जीवन में कौन से कार्य करने हैं और कौन से नहीं, इसके लिए इससे अधिक स्पष्ट दिशा निर्देश शायद ही कहीं और मिले. महाभारत में व्यासदेव जी कहते हैं कि, ‘जिससे (१) धर्म, (२)अर्थ, (३)काम, (४)मोक्ष की प्राप्ती हो, ऐसी पूर्व में घटी घटनाओं का वर्णन इतिहास है.’ इतनी सटीक, सही परिभाषा देखी है कहीं हमने? अब्दुल रशीद जी भी सरल शब्दों में कुछ-कुछ वही कह रहे हैं. केवल इतिहास लेखन ही क्यों, हर काम इसी कसौटी पर कस कर किया जाना उचित है जिससे ऊपर के चारों पुरुषार्थ सिद्ध हों.
    संस्कृत,भारतीय संस्कृति, भारतीय दर्शन व इस दर्शन के पारिभाषिक शब्दों से अनजान, आधुनिक कुपढ़ों ( कृपया गलत न समझें. एक होते हैं कम पढ़े, एक हैं अनपढ़ और एक हैं गलत -मैकाले की पढाई किये हुए. कुपढ़ से मेरा आशय उनसे है जो मैकाले की उस शिक्षा का शिकार हैं जो सिखाती है ‘स्वयं को गाली देने में गौरव करना’ ) के लिए बतलादेना ठीक रहेगा कि —–
    १. धर्म का अर्थ मज़हब, सम्प्रदाय या रिलीजन नहीं होता. भारत की संस्कृती का क,ख, ग तक न जानने वाले इस शब्द का निरंतर गलत अर्थों में प्रयोग किये जा रहे हैं जब कि सर्वोच्च न्यायालय तक कह चुका है कि हिन्दू धर्म एक जीवन पद्धती है, कोई सम्प्रदाय नहीं. गीता ने कहाँ कहा कि हिन्दू की रक्षा के लिए? साधू यानी सज्जनों की रक्षा के लिए कहा है. धर्म की परिभाषा हमें वे बतलायेंगे जो इसके बारे में कुछ जानते ही नहीं. इसका समानार्थक कोई शब्द संसार की किसी और भाषा में है ही नहीं. क्योंकी धर्म की इस अवधारणा का जन्म केवल भारत में ही हुआ. अतः इस शब्द का अधिकृत अर्थ केवल भारत ही बतलायेगा. और भारत के मनीषी इसका अर्थ बतलाते हैं, ” धारणात इति धर्मं आहूह “. जिससे समाज की धारणा हो, समाज का कल्याण हो वह धर्म है.
    इसीप्रकार एक और कहा है, ” धृती,क्षमा, दामो, अस्तेयं, शौचं, इन्द्रीय निग्रह,धीर, विद्या,सत्यम, अक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं” पूरे वैदिक और पौराणिक साहित्य में कहीं एक बार भी तो नहीं कहा कि धार्मिक होने के लिए अमुक पुस्तक, देवी, देवता को मानना होगा. केवल उच्च मानवीय मूल्यों के पालन से आप धार्मिक हो जाते हैं.
    २. अर्थ का मतलब है , लौकिक सुखों की प्राप्ती के लिए धन अर्जित करना आदि. पर एक बंधन है कि इसमें धर्म के नियमों का उल्लंघन न हो.
    ३. काम यानी अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ती करना. लौकिक सुख भोगना भी धर्म का अंग है पर वह जीवन का लक्ष्य नहीं. इसमें भी धर्म के नियमों का पालन होना अपेक्षित है.
    ४.हमारे लिये ( भारतीय संस्कृती और दर्शन के अनुसार ) जीवन का परम लक्ष्य मोक्ष यानी जन्म-मरण के बंधन से मुक्ती है. साद-कार्यों से स्वर्ग की प्राप्ती का भी स्पष्ट वर्णन है पर वह भी अस्थाई और बंधन में डालने वाला है. मोक्ष को सर्वोपरी माना है.
    जिस व्यवस्था, जिस प्रयास, जिस दर्शन और जिस कार्य से उपरोक्त चार लक्ष्यों की प्राप्ती हो वे सब सर्वदा करने योग्य हैं. इससे उत्तम अकरणीय और करणीय कार्यों की कसौटी और क्या होसकती है. इन्हें पुरुषार्थ चतुष्टय कहा गया है.
    यह है धर्म और अनमोल भारतीय संस्कृति. है कहीं इतनी ऊँची बात. सारी सृष्टी के कल्याण की व्यवस्था देनेवाला ये ज्ञान हमसे छीनकर, इसे मिटाकर कौनसी समझदारी की जारही है?
    !!इति!!

  4. जब घर का कोई सदस्य कामयाबी के शिखर को छुता है तब घर के सभी सदस्य को प्रसन्नता होती है लेकिन जब उसी घर मे कोई असन्तुष्ट होगा तब वह असन्तुष्ट सदस्य के इस कामयाबी पे सवाल खडा कर उस कामयाबी को धूमिल करने का प्रयास करने लगता है मै यहां अपने जीवन कि एक घटना का जिक्र करना चाहुंग्गा एक दिन जब बी एस सी बोटनी प्रयोगशाला में सलाईड बनाने के लिए कहा गया सभी ने सलाईड बना कर दिखाया उस दिन सबसे अच्छा सलाई जिसका बना वह समान्य दरजे का था एसा देख जो अपने को अव्वल दरजे का स्टुडेन्ट समझता था वह बोला के सर यह सलाईड ब्लेड से बनाया है सर ने जवाब में कहा के आप उनकी अच्छाई को सराहने के बजाए उस में खामीयां तलाश रहें हैं यकीनन आप मेधावी स्टुडेन्ट हैं लेकीन आपकी यह सोंच सहि नहिं मेरे कहने का मतलब यह है के जब सारी दुनिया गांधी के जीवन के प्रति बेहतरीन नजरीया रखता है तो हम हि अपने देश के महान व्यक्ति को सवालो के घेरे में लाने का प्रयास क्यों करें हमारे देश में बहुत विषय है जिस पे चर्चा कि जाय तो हम अपने देश को कामयाबी के मार्ग पे ले जा सकते हैं इसके लिए हमें इतिहास के पन्नो से निकल कर आज के हालात पे गौर करना होगा तभी आने वाली पीढी को हम विकसित हिन्दुसतान दे सकते है आरोप प्रत्यारोप से आखिर हांसिल क्या होगा हमें इस विषय पे गम्भिरता से विचार करना होगा के हम अपने महानायको कि अच्छाई को आधार बनाकर दुनिया के महानायक कैसे बनें हमारे पास तो इतिहास है सभ्यता है सन्सकार है कई देशो के पास तो कुछ भी नहिं फिर भी कामयाब हैं आखिर क्यो जरा विचार कीजिए इमानदारी से.
    मेरा उद्देश्य किसी को ठेस पहुंचाना नहिं मैंने केवल अपना विचार प्रकट किया है.

  5. ध्यानी जी ने बिल्कुल सहि लिखा है.
    पहली बार किसी विद्वान से अहिशा और गन्धीजी के उपर पढ्ने को मिला. धन्यवाद.
    आज तक अहिन्सा और कायरता मे अन्तर समझ नहि आया.
    अन्याय करने वाले से ज्यादा दोष अन्याय सह्ने वाले का है.
    हर देवी देवता ने समय पड्ने पर अस्त्र शस्त्र उठाये है.
    बात उठी हे तो कह्ना पड रह है. गन्धीजी उपवास (भूख हड्ताल) करते थे – वे दबले किन्तु स्वस्थ सरीर के थे ज्यादा फ़र्क नहि पड्ता था. अहिन्सा अन्दोलन मे कोडे आम व्यक्ति को पड्ते थे.
    पंकज जी ने कह हि दिय है : क्षमा शोभती उस…………….

    कब तक हमरा देश कायरता का पाठ पढ्ता रहेगा. ६० साल बीत गये अब तो सच्चाइ बाहर आने दीजिय.

  6. प्रस्तुत आलेख को पूर्वाग्रह से प्रेरित न मानते हुए एक अनुभवजन्य खास दृष्टिकोण बाली एतिहासिक गवेषणा के रूप में लेते हुए श्री शाक्त ध्यानी को दंडवत नमस्कार करता हूँ .निवेदन है की स्वयम भी एक बार अप्र्तिबद्धता से अपने आलेख का पुनर्वाचन करें .वास्ते सूचनार्थ श्रीपाद अमृत डांगे जो की भारतीय कम्मुनिस्ट पार्टी के
    महासचिव रहे हैं उन्होंने श्रीमद भगवद्गीता पर भाष्य लिखा है .उसे आप पढ़ें .महानतम मार्क्सवादी चिन्तक और केरल के पहले मार्क्सवादी मुख्यमंत्री श्री
    इ एम् एस नम्बूदिरिपाद ने आद्द्य शंकराचार्य के कुल में जन्म लिया था उन्होंने बारह वर्ष की उम्र में न केवल वेद .उपनिषद .आरण्यक .अपितु साय्नाचार्य और महीधरा चार्य के भाष्य पर आलोचना लिखी है .
    आपका यह कथन सत्य भी हो की कार्ल मार्क्स और एंगेल्स ने भारतीय वांग्मय से ज्ञान हासिल किया था ;तब तो स्वयम सिद्ध हो जायेगा की कम्मुनिस्म भारतीय विचारधारा है .और कम्मुनिस्म ही क्यों हम तो कहते हैं की हमारे महाभारत महाकाव्य में वह सब कुछ है जो दुनिया में हो sakta है .प्रजातंत्र .सामंतशाही पूंजीवाद और कोरवों का फासीवाद ये सब भारत में ही जन्मे
    हैं .सिर्फ अहिंसा ही वह वास्तु थी जो भारत में जन्मी थी किन्तु चीन श्रीलंका जापान विएतनाम तिब्बत इत्त्यादी में परवान चढ़ी और सफल रही ,महात्मा गाँधी ने अपनी सहस्त्रों वर्ष की गुलामी से छुटकारा पाने का उसे साधन बनाया .वे कितने सफल रहे कितने असफल यह शोध का विषय बन भी जाए तो कोई हर्ज़ नहीं .
    ध्यानी जी आपको नेहरु परिवार से क्या बेर है ?उस वंश के हर शख्स ने कुर्वानी दी .कितने और टेस्ट लेना बाकि है ..उस वंश का सबसे बदनाम व्यक्ति तो आपातकाल में बाला साहेब देवरस का भी पसंदीदा बन गयाथा खास तौर से अल्पसंख्यकों की ज़बरिया नसवंदी मामले में .
    अतीत में जो भी बेहतरीन प्रसंग हैं मानवीय पक्षधरता के उन्हें संभालो .एतिहासिक भूलों से सबक लो

  7. वास्तव में लेखक ‘शाक्त ध्यानी’ हैं. अद्भुत एवं प्रवाहमय लेखन. सही में नावश्यक हिंसा से भी खतरनाक कई बार ‘अहिंसा’ हो जाता है. वैसे गांधी ने भी एक बार कहा था कि उन्हें हिंसा और कायरता में से कोई एक चुनना पड़े तो वह भी हिंसा का विकल्प ही चुनेंगे. दिनकर ने क्या खूब कहा है…क्षमा शोभती उस भुजंग को, जिसके पास गरल हो….उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो.

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