‘अब जूते के दिन फिरे हैं

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मोहन कुमार झा


एक कहावत है कि हर किसी के दिन फिरते हैं। ‘अब जूते के दिन फिरे हैं।’ रामकथा में वर्णित है कि जब श्रीरामचन्द्र किसी प्रकार से वापस अयोध्या लौटने को तैयार नहीं हुए तो भरत जी ने अपने अग्रज भ्राता से उनकी “चरण पादुक” मांग ली और उसको राजसिंहासन पर रखकर चौदह वर्ष तक अयोध्या के जनता की सेवा की। उस समय त्रेतायुग चल रहा था। चरण और चरण पादुका का बड़ा महात्म्य था उन दिनों। लेकिन पादुका के जिन विशेषताओं और शक्ति से आज के शासक हमको परिचित करवा रहे हैं उससे रामचन्द्रजी और भरतजी संभवतः अनभिज्ञ थे वरना रामकथा में यह बात जरुर आती कि राम और रावण के बीच कई दिनों तक भीषण ‘ पादुका-द्वंद ‘ हुआ या समुद्र ने राम की पादुका को देखते ही राह दे दी। जिस पादुका के कुशल प्रयोग से आज के जनप्रतिनिधि अपने पराक्रम का संदेश पुरे भारतवर्ष में पहुँचा रहे हैं क्या भरतजी उससे  अयोध्यावासियों को वश में नहीं कर सकते थे। क्या मजाल थी कि पादुका के रहते अयोध्यावासी वापस लौटने पर रामजी से भरतजी कि शिकायत करते।पर हाय रे व्यर्थ का भ्रातृप्रेम ! पादुका चौदह वर्ष निरर्थक पड़ी रही।और भरतजी शासक होकर भी सेवक की तरह प्रजा की सेवा करते रहे।इन्हीं सब कारणों से धीरे-धीरे पादुकाओं के दिन बीतने लगे। और वे मुख्यधारा से हाशिये पर जा पहुँचे। समय व्यतीत हुआ और त्रेतायुग से कलयुग आ गया। प्राचीन काठ के पादुकाओं की जगह चमड़े, प्लास्टिक, रबड़ आदि के जूते-चप्पल आ गए। आधुनिक मानव को जूते और चप्पल दोनों पसंद आए लेकिन चूकिं जूते चप्पलों की तुलना में अधिक उपयोगी सिद्ध हुए इसलिए उसका प्रचलन और उपयोग दोनों बढ़ा।उपयोगकर्ताओं ने जूते को पहनने से लेकर, जूते से मारने और फिर पहनकर भागने तक में अधिक दक्ष पाया। इसलिए बोलने से लेकर प्रयोग करने तक में चप्पल गौण और जूता प्रधान हो गया। फिर जूते के कई डिज़ाइन बने। कई रंगों के जूते आने लगे। आधुनिक विकासवादी दौर में जूता भला पीछे कैसे रहता। उसका भी  सर्वांगीण विकास हुआ। दुनिया के अलग अलग देशों में जूते के विभिन्न प्रयोग होते रहें। बाद में जूते ने काली स्याही का स्थान भी ग्रहण कर लिया और बड़े बड़े शख्सियतों पर स्याही फेंकने की जगह जूते उछाले जाने लगे। इस तरह जूते ने विरोध के हथियार के रुप में भी पहचान कायम कर ली। जूते का सामाजिक इतिहास था ही मगर उसमें भी पर्याप्त फेरबदल हुआ। जूतों के व्यापार ने ऐसी रफ्तार पकड़ी की आज जूता बनाने, बेचने, पहनने और मारने वालों में फर्क करना मुश्किल है।फिर कुछ ऐसे परमज्ञानी अवतरित हुए जिन्होंने लोगों के जूतों को देखकर उनकी हैसियत का अंदाजा लगा सकने की अद्भुत दैवीय शक्ति से जूते की महत्ता के आर्थिक पक्ष को सिद्ध कर दिया। हिन्दी के कई कवियों लेखकों ने साहित्य में जूते की चर्चा की है। एक चित्र में देखा गया प्रेमचंद का फटा जूता और बाहर झांकता उनके पैर का अंगूठा मेरे ज़ेहन से उतरता ही नहीं है। ‘ प्रेमचंद महान लेखक थे।उनका फटा जूता भी आज महान अर्थ देता है।’ मुझे तो ऐसा लगता है कि ‘ जूते के इतिहास का स्वर्णकाल अगर आया होगा तो इसी समय आया होगा।’ वैसे भी अब हिन्दी में न मुझ जैसे जूताछाप लेखकों कि कमी है और न स्वनामधन्य जूतामार आलोचकों की।हमदोनों अपनी अपनी जगह पुराने जूतों  सा अकड़ लिए मस्त हैं और हमारे बीच सिर्फ नये जूतों के लोच जैसा संबंध है।अब सुना है कि अपने देश की राजनीति में जूते के एक नये युग का आरंभ हुआ है। लोग चंद सैकेंड में नानस्टाप आधा दर्जन से अधिक बार जूते का सर्वोत्तम इस्तेमाल कर रहे हैं। होना भी चाहिए , आख़िर जब देश का कानून सबके लिए बराबर है तो फिर क्या आदमी और क्या जूता ! जब सबके दिन फिरते हैं तो जूतों ने किसी का क्या बिगाड़ा है ! भारतीय राजनीति में घनघोर गर्जन के साथ प्रवेश के बाद अब जाकर सही और सार्थक रुप में जूतों के दिन फिरे हैं। जूतों को बधाई ! सबकुछ इसी तरह ठीक-ठाक चलता रहा तो अगले ओलंपिक में जूतेबाज़ी का स्वर्ण पदक अपने ही देश का कोई वीर जूताबाज जीतेगा इसमें किसी  को कोई संदेह नहीं होना चाहिए।

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