प्रमोद भार्गव
आईएसआईएस द्वारा फ्रांस की राजधानी पेरिस में हुए हमले के बाद ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि इस बार वैश्विक परिदृष्य आतंकवाद के परिप्रेक्ष्य में बदलने को मजबूर हो रहा है। जी-20 देशों के बैठक में बराक ओबामा द्वारा बेवाकी से दुनिया के मुस्लिम समुदाय को यह नसीहत देना बेहद महत्वपूर्ण है कि ‘मुसलमान आतंकवाद की पुरजोर निंदा नहीं करते ? बढ़ते इस्लामिक कटट्रवाद का विरोध नहीं करते ? दुनियाभर के मुस्लिम धर्म गुरूओं से पूछना चाहिए की धार्मिक कट्टरता कैसे जड़ें जमा रही है ?‘ आतंकवाद के संदर्भ में यह सवाल बेहद अहम् है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुस्लिम समुदाय आतंकवाद के विरोध में उस तरह कभी उठकर खड़ा नहीं हुआ,जिसके दबाव में इस्लाम को बदनाम करने में लगे चरमपंथियों को अपने कदम पीछे हटाने को विवश होना पड़ा हो ? हालांकि मक्का मस्जिद के इमाम,दिल्ली के शाही इमाम,औबेसी और भारतीय मुस्लिम पर्सनल बोर्ड आतंकी गतिविधियों को गैर-इस्लामिक करार देते रहे हैं। लेकिन ये अपीलें अब तक नक्कारखाने की तूती ही साबित हुई हैं। मौलाना महमूद मदनी के नेतृत्व वाले जमीयत उलेमा-ए-हिंद जरूर बुधवार को भारत में आतंकवाद के खिलाफ सड़कों पर उतरा,लेकिन उसे बड़ी संख्या में मुस्लिम समुदाय का समर्थन नहीं मिला। यह इस बात का संकेत है कि इस समाज की मानसिकता में बदलाव के लिए व्यापक सुधारात्मक उपाय करने की जरूरत हैं। दरअसल अपने बच्चों को बारूद व बम के रास्ते पर जाने से रोकने के लिए पहली जिम्मेदारी मुस्लिम समुदाय की ही बनती है।
किसी भी देश का नागरिक देश के लिए जीने-मरने के जन्मजात दायित्व बोध से जुड़ा होता है। फिर चाहे वह किसी भी धर्म व संप्रदाय का हो। शायद इसी भावना से वशीभूत होकर फ्रंास की धरती पर 400 साल पहले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सहिष्णुता का संदेश देते हुए प्रसिद्ध चिंतक व क्रांतिकारी वाल्टेयर ने कहा था कि ‘मैं आपके विचारों से भले ही सहमत न हो पाऊं,लेकिन आपके विचार प्रगट करने की स्वतंत्रता के अधिकारों की में रक्षा करूंगा।‘ फ्रांस में लोकतंत्र का रास्ता इसी विचार स्वातंत्र् से निकला और इसी विचार ने फ्रांस की शासन-व्यवस्था को धर्म के अनुशासन से अलग रखा। फलस्वरूप फ्रांस के प्रजातांत्रिक संविधान में धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को महत्व दिया गया। नतीजतन वहां मुस्लिमों को भी मूल नागरिकों की तरह समानता के अधिकार मिलते रहे। गोया कि यहां अन्य पश्चिमी देशों की तुलना में मुस्लिम आबादी धार्मिक स्वतंत्रता के चलते र्निबाध बढ़ती रही। फ्रांस की कुल आबादी में करीब 35 लाख जनसंख्या मुसलमानों की है,जिसका प्रतिशत 7.5 है। बावजूद विडंबना यह रही कि इस सांस्कृतिक बहुलता वाले देश में मुस्लिम स्वयं को उदार व समावेशी जीवनशैली में ढालने में नाकाम रहे। वे अपने विशिष्ट धर्म,भाषा,नस्ल और यहां तक कि पहनावे की पहचान भी भिन्न बनाए रखे। जबकि उनसे अपेक्षा थी कि वे फ्रांस के नागरिक होने के नाते मुख्यधारा में शामिल हो जाएंगे। किंतु दुर्भाग्य रहा कि अपने कट्टर जन्मजात जातिवादी संस्कारों के कारण फ्रांस में ही पैदा हुई तीसरी व चौथी पीढ़ी के युवा मुख्यधारा से तो अलग हुए ही,आईएसआईएस के धार्मिक प्रभाव में भी आते चले जा रहे हैं। मुस्लिमों में यह प्रभाव उन सभी देशों में दिखाई दे रहा है,जो लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष देश हैं। भारत भी कश्मीर में इसी स्थिति का सामना कर रहा है। इस नाते ओबामा की नसीहत पर अमल की जरूरत है।
आतंकवाद के बहाने धार्मिक कट्टरवाद का जहर मुसमिल समाज की भीतरी सतहों को संकीर्ण बनाने का काम कर रहा हैं। यह संकीर्णता मुस्लिम बहुलता वाले देशों में रहने वाले अल्पसंख्यकों के लिए तो घातक साबित हो ही रही है,इस्लाम धर्म से जुड़ी विभिन्न नस्लों को भी आपस में लड़ाने का काम कर रही है। अफगानिस्तान,इराक,मिश्र,नाइजरिया,सीरिया,पाकिस्तान में अलकायदा और आईएस आखिरकार किससे लड़ रहे हैं ? यह लड़ाई सिया,सुन्नी,कुर्द अहमदिया और बहावी इस्लाम धर्मावलंबियों में ही तो परस्पर हो रही है ? हां इन नस्लों में पनपती धर्मांधता ने इन देशों में रहने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोग भी अपनी चपेट में ले लिए हैं। इस तथ्य की तस्दीक अमेरिका द्वारा हर साल जारी की जाने वाली ‘धार्मिक स्वतंत्रता आयोग‘की रिपोर्ट ने भी की है। रिपोर्ट के अनुसार अल्पसंख्यकों की सबसे ज्यादा दुर्गति आठ देशों में है। ये हैं, पाकिस्तान, तजाकिस्तान, सीरिया, मिश्र, नाईजीरिया, इराक, तुर्कमेनिस्तान और वियतनाम। इनके अलावा चीन, ईरान, उत्तर कोरिया, म्यांमार, एरीस्ट्रिया, उजबेकिस्तान, साउदी अरब और सूड़ान में भी अल्पसंख्यक समुदाय शंकाओं से घिरे रहकर असुरक्षा बोध की गिरफ्त में आते जा रहे हैं। कट्टरपंथी ताकतें बांग्लादेश में प्रभावी तो हैं, लेकिन सरकारी मुस्तैदी के कारण वे वहां रहने वाले हिंदू अल्पसंख्यकों को ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पा रही हैं। जबकि पाकिस्तान में हालात उल्टे हैं। यहां कट्टरपंथी ईसाई, हिंदू और सिख धर्मावलंबियों के लिए संकट का सबब बने हुए हैं। ईशनिंदा कानून के चलते यहां सबसे ज्यादा उत्पीड़न होता है। इसी कारण यहां के 82 प्रतिशत हिंदू तत्काल पाकिस्तान छोड़ने को तैयार हैं। रिपोर्ट के मुताबिक यहां सबसे ज्यादा दर्दनाक स्थिति हिंदुओं की है।
हालात यहां शिया मुस्लिमों के भी ठीक नहीं हैं। अलबत्ता पाकिस्तान शियाओं को सुरक्षा मुहैया इसलिए कराता है,क्योंकि ईरान पाकिस्तानी शियाओं की मजबूती से पैरवी करता है। पाक को इस लाचारी का सामना इसलिए करना पड़ता है,क्योंकि ईरान अरबों रुपए पाकिस्तान को मदद के रूप में देता है। लिहाजा अपनी ही भिन्न नस्लों को आपस में लड़ाने वाले अलकायदा और आईएस यह नहीं कह सकते कि दुनिया के सभी मुसलमान और मुसमिल समाज एक हैं। वैश्विक पहल पर यह नारा इसलिए खोखला हो चुका है,क्योंकि मुस्लिम कौमों की आपसी लड़ाई ने कई देशों के अस्तित्व को ही संकट में डाल दिया है। शिया तथा सुन्नी मुसलमानों के बीच जमीन-असमान का भेद है। बहावी,बोहरा,मेनन और अहमदियों में भिन्नताएं हैं। यही वजह है कि दुनिया के मुसलमानों मे रोटी व्यवहार सबके साथ होता है। नवाज पढ़ने के अवसरों में समानता है। किंतु बेटी का विवाह हिंदुओं की ही तरह अपनी ही जाति, पंथ या बिरादरी में किया जाता है। भेद की इस खाई को पाटने की बजाय आतंकवादी आपस में लड़-मरकर और बढ़ाने का काम कर रहे हैं। इसलिए आतंकवाद का विस्तार अमानुषिक होने के साथ दुनिया की मानवता के लिए बड़ा खतरा बनकर उभरा है। इसीलिए वर्तमान में दुनिया के मुसलमान दोहरे असुरक्षा भाव से ग्रस्त हैं। एक उन्हें अलकायदा आतंकवाद के विस्तार के लिए उकसा रहा है,दूसरे कुछ दक्षिणपंथी संगठन ऐसी बयानबाजी कर रहे हैं,जिससे उनके प्रति दूसरे समुदायों में आशंकाएं पैदा हो रही हैं।
मुसलमानांे का बड़ा संकट यह भी है कि मुसलमानों में जो उदारवादी व्यक्तित्व हैं, उन्हें रूढ़िवादी ताकतें विकसित नहीं होने देतीं। इसलिए ज्यादातर मुसलिमों की इस्लाम धर्म से बौद्धिक,आध्यात्मिक,नैतिक व मानवीय चेतना ग्रहण करने की क्षमता कुंद हो गई है। इस कमजोरी का फायदा गाहे-बगाहे मुल्ला-मौलवी आतंकवादी और फिरकापरस्त भी उठा रहे हैं। इन दबावों के चलते ही मुसलमान अभिभावक अपने बच्चों में आत्मविष्वास और आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि पनपाने में अह्म भूमिका का निर्वाह नहीं कर पा रहे हैं। नतीजतन नई पीढ़ियां धर्म और अंधश्रद्धा अथवा कट्टरता के संस्कार लेकर जीने को मजबूर हो रही हैं। इन हालतों के निर्माण होने का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह रहा है कि दुनिया का राजनीतिक मुस्लिम नेतुत्व धर्म के खोल से बाहर आकर समाज को वैज्ञानिक सोच आधारित नेतृत्व देने में कमोवेश नाकाम रहा है। इसीलिए मुस्लिम समाज आबादी नियंत्रण की दृष्टि से परिवार नियोजन तक अपनाने को तैयार दिखाई नहीं देता। इस्लाम आधारित मदरसा शिक्षा के प्रति उसका आर्कषण बना हुआ है। मुस्लिम बुद्धिजीवी भी शरीयत के दायरे को न तो उदार बनाने के प्रति सक्रिय हैं और न ही खुद उस दायरे से बाहर निकलना चाहते हैं। क्योंकि वे भी कुरान एवं हदिष के एक-एक अक्षर व शब्द को खुदा का शब्द मानते हैं। श्रुति मानते हैं,स्मृति नहीं। स्मृति बदलती रहती है,जबकि श्रुति स्थिर रहती है। आईएस एवं अलकायदा जैसे संगठन इसी श्रुति का बहाना बनाकर खासतौर से मुस्लिम युवाओं को बरगलाने का काम कर रहा हैं। मुस्लिमों को इन बहकावों से सावधान मुस्लिम धर्मगुरू भी कर सकते हैं। लिहाजा ओबामा के कथन को सुधारात्मक नसीहत के रूप में लेने की जरूरत है।
प्रमोद भार्गव