पौराणिक मान्यतानुसार एक देव में त्रिदेव कहे जाने वाले भगवान के चौबीस अवतारों में छठा अवतार हैं भगवान दत्तात्रेय। सप्तऋषि मंडल के तेजोदीप्त तारों में दमकने वाले एकमात्र युगल सती-अनसूया और महर्षि अत्रि के पुत्र दत्तात्रेय में ईश्वर और गुरु दोनों रूप समाहित हैं इसीलिए उन्हें परब्रह्ममूर्ति सद्गुरु और श्रीगुरुदेवदत्त भी कहा जाता हैं। उन्हें गुरु वंश का प्रथम गुरु, साधक, योगी और वैज्ञानिक माना जाता है। दत्तात्रेय शीघ्र कृपा करने वाले देव की साक्षात मूर्ति माने जाते हैं। पौराणिक आख्यानों के अनुसार ब्रह्मा के मानसपुत्र अत्रि ऋषि की पत्नि माता अनुसूया पर प्रसन्न होकर त्रिदेव – ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने उन्हें वरदान दिया। ब्रह्मा के अंश से चंद्रमा, शंकर के अंश से दुर्वासा तथा विष्णु के अंश से दत्तात्रेय का जन्म हुआ, जिनके आविर्भाव की तिथि दत्तात्रेय जयन्ती कहलाती है। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष मास की पौर्णमासी तिथि को दत्तात्रेय जयन्ती के दिन दत्तात्रेय के बालरुप की पूजा की जाती है। परम भक्त वत्सल दत्तात्रेय के भक्तों के स्मरण करते ही भक्तों के पास पहुँच जाने के कारण इन्हें स्मृतिगामी तथा स्मृतिमात्रानुगन्ता भी कहा गया है। विद्या के परम आचार्य भगवान दत्तजी के नाम पर दत्त संप्रदाय दक्षिण भारत में विशेष प्रसिद्ध है।
पौराणिक कथानुसार ब्रह्मर्षि कर्दम और देवी देवहूति की पुत्री व सांख्यशास्त्र के प्रवक्ता कपिलदेव की बहन तथा अत्रि ऋषि की पत्नी देवी अनसूया ने अपने पातिव्रत्य के प्रभाव से ब्रह्मा, विष्णु व महेश को दूध पीते शिशु बना दिया था । बाद में उन्हीं की प्रार्थना से ये तीनों देव भगवान दत्तात्रेय के रूप में उनके घर अवतरित हुए । दत्तात्रेय के तीन सिर और छ: भुजाएँ हैं। दत्तात्रेय के हाथों में कमंडलु, माला, शंख, चक्र, त्रिशूल और डमरू हैं । इनमें से कमंडलु और माला भगवान ब्रह्मा के, शंख और चक्र भगवान विष्णु के तथा त्रिशूल और डमरू भगवान शिव के आभूषण के प्रतीक हैं । दत्तात्रेय के भक्तों के मान्यतानुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव के अंशावतार भगवान दत्तात्रेय हमें प्रेरणा देते हैं कि जो मनुष्य अपने जीवन में कोई महान कार्य करना चाहता है, उसमें सर्जक, पोषक एवं संहारक प्रतिभा होनी चाहिए । सर्जक प्रतिभा के अंतर्गत सद्विचारों का सर्जन आता है, पोषक प्रतिभा सद्वृत्ति का पोषण करती है तथा संहारक प्रतिभा दुर्विचार एवं दुर्गुणों के संहार की योग्यता प्रदान करती है ।
भारत में प्रतीक पूजा के इतिहास के अनुसार हिन्दू धर्म के त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की प्रचलित विचारधारा के विलय के लिए ही भगवान दत्तात्रेय ने जन्म लिया था, इसीलिए उन्हें त्रिदेव का स्वरूप भी कहा जाता है। दत्तात्रेय को शैवपंथी शिव का अवतार और वैष्णवपंथी विष्णु का अंशावतार मानते हैं। दत्तात्रेय को नाथ संप्रदाय की नवनाथ परंपरा का भी अग्रज माना है। यह भी मान्यता है कि रसेश्वर संप्रदाय के प्रवर्तक भी दत्तात्रेय थे। भगवान दत्तात्रेय से वेद और तंत्र मार्ग का विलय कर एक ही संप्रदाय निर्मित किया था। ऐतिहासिक विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि दत्तात्रेय के प्रमुख तीन शिष्य थे और तीनों ही राजा थे। दो यौद्धा जाति से थे तो एक असुर जाति से थे । उनके शिष्यों में भगवान परशुराम का भी नाम लिया जाता है। तीन संप्रदाय – वैष्णव, शैव और शाक्त के संगम स्थल के रूप में भारतीय राज्य त्रिपुरा में उन्होंने शिक्षा-दीक्षा दी। इस त्रिवेणी के कारण ही प्रतीकस्वरूप उनके तीन मुख दर्शाएँ जाते हैं जबकि उनके तीन मुख नहीं थे। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार एक बार वैदिक कर्मों का, धर्म का तथा वर्णव्यवस्था का लोप हो गया था। उस समय दत्तात्रेय ने इन सबका पुनरूद्धार किया था। हैहयराज अर्जुन ने अपनी सेवाओं से उन्हें प्रसन्न करके चार वर प्राप्त किये थे -प्रथम बलवान, सत्यवादी, मनस्वी, अदोषदर्शी तथा सहस्त्र भुजाओं वाला बनने का, द्वितीय जरायुज तथा अंडज जीवों के साथ-साथ समस्त चराचर जगत पर शासन करने के सामर्थ्य का, तृतीय देवता, ऋषियों, ब्राह्मणों आदि का यजन करने तथा शत्रुओं का संहार कर पाने का तथा चतुर्थ इहलोक, स्वर्गलोक और परलोक में विख्यात अनुपम पुरुष के हाथों मारे जाने का। महाभारत, सभापर्व, अध्याय 38 के अनुसार कृतवीर्य के ज्येष्ठ पुत्र कार्तवीर्य अर्जुन के द्वारा दत्तात्रेय ने लाखों वर्षों तक लोक कल्याण करवाया। कार्तवीर्य अर्जुन, पुण्यात्मा, प्रजा का रक्षक तथा पालक था। जब वह समुद्र में चलता था तब उसके कपड़े भीगते नहीं थे। उत्तरोत्तर वीरता के प्रमाद से उसका पतन हुआ तथा उसका संहार परशुराम-रूपी अवतार ने किया। मार्कण्डेय पुराण, 17 की कथा में भी कृतवीर्य हैहयराज की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र अर्जुन का राज्याभिषेक होने का अवसर आने पर अर्जुन के द्वारा राज्यभार ग्रहण करने के प्रति उदासीनता व्यक्त किये जाने पर पर दत्तात्रेय के उन्हें अद्भुत शिक्षा प्रदान करते हुए प्रजा का न्यायपूर्वक पालन तथा युद्धक्षेत्र में शत्रु विजय के लिए गूढ़ रहस्यों का ज्ञान प्रदान करने व सन्मार्ग के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देने पर अर्जुन का राज्याभिषेक और फिर उसके चिरकाल तक न्यायपूर्वक राज्य-कार्य संपन्न करने का उल्लेख है । पौराणिक ग्रंथों के अनुसार दत्तात्रेय ने परशुराम को श्रीविद्या-मंत्र प्रदान की थी। शिवपुत्र कार्तिकेय को दत्तात्रेय ने अनेक विद्याएँ दी थी। भक्त प्रह्लाद को अनासक्ति-योग का उपदेश देकर उन्हें श्रेष्ठ राजा बनाने का श्रेय दत्तात्रेय को ही जाता है। मान्यता है कि मुनि सांकृति को अवधूत मार्ग, कार्तवीर्यार्जुन को तन्त्र विद्या एवं नागार्जुन को रसायन विद्या इनकी कृपा से ही प्राप्त हुई थी। गुरु गोरखनाथ को आसन, प्राणायाम, मुद्रा और समाधि-चतुरंग योग का मार्ग भगवान दत्तात्रेय की भक्ति से प्राप्त हुआ। दत्तात्रेय ने पारद से व्योमयान उड्डयन की शक्ति का पता लगाया था और चिकित्सा शास्त्र में क्रांतिकारी अन्वेषण किया था।
भगवान दत्तात्रेय की शिक्षा और ज्ञान भी अद्भुत व सर्वकालीन सत्य है, और वैदिक युग के इस महायोगी ने अपने समय में ही बता दिया था कि अपने अनुभवों से सहेजा गया ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। दत्तात्रेय ने जीवन में कई लोगों से शिक्षा ली। दत्तात्रेय ने मनुष्य से इत्तर पशुओं के जीवन और उनके कार्यकलापों से भी शिक्षा ग्रहण की। दत्तात्रेय ने स्वीकार किया है कि जिससे जितना-जितना गुण मिला है उनको उन गुणों को प्रदाता मानकर उन्होंने उन्हें अपना गुरु माना है, इस प्रकार मेरे चौबीस गुरु हैं पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चंद्रमा, सूर्य, कपोत, अजगर, सिन्धु, पतंग, भ्रमर, मधुमक्खी, गज, मृग, मीन, पिंगला, कुररपक्षी,बालक, कुमारी शर्प, शरकृत, मकड़ी और भृंगी । दत्तात्रेय ने चौबीस वस्तुओं-जीवों को गुरु मानकर उनसे सद्गुण ग्रहण कर उन्होंने समाज को गुणग्राही बनने का संदेश दिया है । दत्तात्रेय की यह लीला महापुरुषों की अतुलित नम्रता को भी दर्शाती है । भक्त प्रह्लाद द्वारा जिज्ञासा व्यक्त किये जाने पर दत्तात्रेय ने उन्हें जो उपदेश दिया है, वह बहुत ही प्रेरणादायक है । समस्त मानव-जाति को परम उन्नति के पथ पर अग्रसर करने हेतु दिव्य ज्ञान की गंगा बहाने वाले दत्तात्रेय जैसे अवतारी ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष के सन्दर्भ में श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध के अध्याय ७, ८ एवं ९ में विस्तृत विवरण वर्णित करते हुए दत्तात्रेय के चौबीसों गुरु एवं उनसे मिलनेवाली सीख तथा सप्तम स्कंध के १३ वें अध्याय में दिये गये श्री दत्तात्रेय-प्रह्लाद संवाद का वर्णन पठनीय है । पुराणादि ग्रंथों के अनुसार दत्तात्रेय के तीन मुख, छह हाथ वाला त्रिदेवमयस्वरूप है। चित्रों में इनके पीछे एक गाय तथा इनके आगे चार कुत्ते दिखाई देते हैं। औदुंबर वृक्ष के समीप इनका निवास बताया गया है। विभिन्न मठ, आश्रम और मंदिरों में इनके इसी प्रकार के चित्र का दर्शन होता है। दत्तात्रेय का उल्लेख अनेक पुराणों में मिलता है। इन पर पृथक रूप से दो ग्रंथ प्राप्य हैं -अवतार-चरित्र और गुरुचरित्र, जिन्हें इनके भक्तों द्वारा वेदतुल्य माना जाता है। इन ग्रंथों की रचना किसने की यह अब तक पत्ता नहीं किया जा सका है, परन्तु मार्गशीर्ष 7 से मार्गशीर्ष 14, यानी दत्त जयन्ती तक दत्त भक्तों द्वारा गुरुचरित्र का पाठ किया जाता है। इसके कुल 52 अध्याय में कुल 7491 पंक्तियाँ हैं। इसमें श्रीपाद, श्रीवल्लभ और श्रीनरसिंह सरस्वती की अद्भुत लीलाओं व चमत्कारों का वर्णन है।
दत्तात्रेय ने पारद से व्योमयान उड्डयन की शक्ति का पता लगाया था और चिकित्सा शास्त्र में क्रांतिकारी अन्वेषण किया था। उस ज्ञान को ढूंढिए महाराज।