वैदिक साहित्य का एक प्रमुख ग्रन्थ – संक्षिप्त महाभारत

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-मनमोहन कुमार आर्य-

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महाभारत विश्व में आज से 5115 वर्ष से पूर्व घटित इतिहास विषयक घटनाओं की प्रसिद्ध पुस्तक है। इसके मूल लेखक महर्षि वेद व्यास थे। आर्य जाति एवं विश्व का सौभाग्य है कि विगत अवधि में घटी वैदिक ज्ञान विरोधी घटनाओं के बावजूद महाभारत पूर्णतः नष्ट होने से बच गया और हमारे पास पूर्णतः शुद्ध रूप में न सही, प्रक्षिप्त रूप में ही सही, आज भी विद्यमान है। हमारा, देश व विश्व का, यह सौभाग्य भी है कि 19 शताब्दी के पूर्वाद्ध में शनिवार 12 फरवरी, सन् 1825 को, आज से 139 वर्ष पूर्व, गुजरात में बालक मूल शंकर ने जन्म लिया जो आगे चलकर जगदगुरू महर्षि दयानन्द सरस्वती के नाम से विख्यात हुए। महर्षि दयानन्द ने वेद एवं वैदिक साहित्य तथा सत्य सनातन शुद्ध वैदिक धर्म का पुनरूद्धार किया। इन पुनरूद्धारित ग्रन्थों में बाल्मिकी रामायण एवं वेद व्यास जी की रचना भारत वा महाभारत भी सम्मिलित है।

हम जानते हैं कि महाभारत ग्रन्थ में समय-समय पर भारी मात्रा में प्रक्षेप हुए हैं। जो भारत या महाभारत ग्रन्थ राजा भोज के समय में मात्र 24 हजार श्लोकों का था उसमें आज लगभग 1 लाख 25 हजार श्लोक विद्यमान हैं। इस पर भी आर्य समाज के वैदिक विद्वानों ने अपने विवेक व वेद आदि सभी शास्त्रों के ज्ञान से महाभारत का अध्ययन कर उसमें से सत्य अप्रक्षिप्त सामग्री का मंथन कर उसे विभिन्न ग्रन्थों में प्रस्तुत कर वर्तमान एवं भावी पीढि़यों पर महान उपकार किया है। ऐसा ही स्व. श्री सन्तराम (मोगा वासी) का ग्रन्थ ‘‘संक्षिप्त महाभारत’’ है।  यह ग्रन्थ उन्होंने देश की स्वतन्त्रता के लिए आन्दोलन करने के फलस्वरूप अंग्रेजों द्वारा उन्हें कारावास में भेजे जाने पर वहां उपलब्ध अवकाश का सदुपयोग करते हुए लिखा था। पुस्तक में 2 पृष्ठीय महात्मा हंसराज लिखित महत्वपूर्ण भूमिका भी है। इसका अन्तिम संस्करण वर्षों पूर्व ‘‘जनज्ञान प्रकाशन, दिल्ली’’ से 24 सेमी. × 17 सेमी. के 237 पृष्ठों में प्रकाशित हुआ था जो कि अब समाप्त हो चुका है। लेखक प्रो. सन्तराम जी ने इतने कम पृष्ठों में महाभारत को सारगर्भित रूप में प्रस्तुत किया है जिसे एक या दो सप्ताह में पढ कर महाभारत से सम्बन्धित सार रूप में आवश्यक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। हम देखते व जानते हें कि आजकल अपवाद् स्वरूप ही सम्पूर्ण व विस्तृत महाभारत ग्रन्थ शायद् ही कोई व्यक्ति पढ़ पाता हो? गीता की चर्चा भी बहुत है परन्तु सभी हिन्दू व गीता प्रेमी गीता का पूरा अध्ययन और वह भी उसकी भिन्न-2 सभी टीकाओं का अध्ययन नहीं कर पाते हैं।  अतः हमारे समाज के विवेकी विद्वानों से यह अपेक्षा की जाती है कि वह हमारे विशाल आध्यात्मिक व ऐतिहासिक ग्रन्थों व शास्त्रों को अपनी मेधा बुद्धि का उपयोग कर उनका सार छोटे ग्रन्थों में प्रस्तुत कर दें जिससे सभी लोग उन विशालकाय ग्रन्थों के स्वरूप, उसकी विषय वस्तु व उसमें सन्निहित सामग्री का सार रूप में परिचय प्राप्त कर सकें। ऐसा करके ही हम इन ग्रन्थों की रक्षा कर पाने में समर्थ हो सकते हैं। अन्य कोई मार्ग दिखाई नहीं देता है।

अपने अनुभव से हम यह कहना चाहते हैं कि यह संक्षिप्त महाभारत ग्रन्थ अति महत्वपूर्ण हैं और महाभारत को समग्र रूप में जानने में अमृतोपम है। इस ग्रन्थ के प्रकाशक महात्मा वेद भिक्षु जी ने इस ग्रन्थ की महत्ता के बारे में लिखा है कि एक दिन आर्य समाज करौलबाग में उन्होंने यह पुस्तक देखी और देखते ही इसके प्रकाशन की भावना उत्पन्न हुई। वह आगे लिखते हैं कि महाभारत और रामायण भारत की वह अनमोल निधि हैं जिन्हें पढ़कर धर्म और कर्तव्य की पवित्र भावना सबके मन में स्वतः जागृत हो जाती है किन्तु दुर्भाग्य से पश्चिम की भौतिक विचारधारा के प्रवाह ने इन्हें आंखों से ओझल कर दिया है। महात्मा जी इस भूमिका में ग्रन्थ के बारे में बताते हैं कि हिन्दी में उपलब्ध इस संक्षिप्त महाभारत ग्रन्थ में पाठक इस महान् ग्रन्थ की प्रेरक आत्मा को उपस्थित पायेगा।  हमारे पास यह ग्रन्थ विगत 3 या 4 दशकों से है। हमने इसे पढ़ा और इसे बहुत उपयोगी पाया। हमारा तो हृदय कहता है कि प्रत्येक भारतवासी अथवा प्रत्येक आर्य व हिन्दू को इस ग्रन्थ को श्रद्धापूरित हृदय से अवश्य पढ़ना चाहिये। इसके साथ यदि इसे गुरूकुलों व आर्य पाठशालाओं में अनिवार्य रूप से पढ़ाया जाये तो यह आर्य संस्कृति की रक्षा में अत्यधिक सहायक हो सकता है। हमने इस ग्रन्थ के प्रकाशक दयानन्द संस्थान, दिल्ली से पता किया है, वहां इसकी विक्रय हेतु प्रतियां नहीं हैं, अतः अब यह विलुप्ति के कागार पर है।

हमने गणना करने पर यह पाया है कि इस ग्रन्थ को यदि वेदप्रकाश या वैदिक पथ के आकार में प्रकाशित किया जाये तो यह 325 पृष्ठों में समा सकता है। हम मैसर्स विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली, श्री घूड़मल प्रह्लादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी तथा आर्य प्रकाशन, दिल्ली के संचालक महानुभावों से सानुरोध प्रार्थना करते हैं कि इनमें से कोई एक इस ग्रन्थ का भव्य, या सस्ता साधारण संस्करण ही सही, प्रकाशन कर इसको सदा-सदा के लिए विलुप्त होने से बचाये। क्या कोई हमारी पुकार सुनेगा?

1 COMMENT

  1. मान्य श्री मनमोहन कुमार आर्य जी,

    आप ने लिखा —

    “महाभारत पूर्णतः नष्ट होने से बच गया और हमारे पास पूर्णतः शुद्ध रूप में न सही, प्रक्षिप्त रूप में ही सही, आज भी विद्यमान है।”

    परन्तु कैसे? क्या ऐसा महभारत अथवा हमरे किसी आर्ष ग्रन्थ में लिखा है? आर्य बन्धुजन​ तो आर्ष ग्रन्थों के अतिरिक्त और किसी प्रमाण को प्रमाण मानते ही नहीं।

    फिर आपने लिखा —

    “महर्षि दयानन्द ने वेद एवं वैदिक साहित्य तथा सत्य सनातन शुद्ध वैदिक धर्म का पुनरूद्धार किया। इन पुनरूद्धारित ग्रन्थों में बाल्मिकी रामायण एवं वेद व्यास जी की रचना भारत वा महाभारत भी सम्मिलित है।”

    परन्तु कहाँ कहा गया है/ लिखा गया है ऐसा उनके द्वारा कहीं पर भी? क्या उनके काल में अथवा उस से पूर्व इनका अध्ययन अध्यापन वाचन आदि नहीं हुआ करता था? निरुद्ध अवरुद्ध विच्छिन्न परित्यक्त हो गया था वह?

    “हम जानते हैं”, आप ने लिखा, “कि महाभारत ग्रन्थ में समय-समय पर भारी मात्रा में प्रक्षेप हुए हैं। जो भारत या महाभारत ग्रन्थ राजा भोज के समय में मात्र 24 हजार श्लोकों का था उसमें आज लगभग 1 लाख 25 हजार श्लोक विद्यमान हैं।”

    परन्तु यह किस प्रमाणाधार पर कहा आपने? कैसे कहा कि महाराज भोज के समय में महाभारत केवल २४ सहस्र श्लोकों का ही था, लक्ष श्लोकात्मक नहीं?

    ऐसा लगता है/ प्रतीत होता है कि आपको यह विदित ही नहीं कि महाभारत में स्पष्ट उल्लेख है कि शतसहस्र श्लोकात्मक महाभारत की रचना महर्षि वेदव्यास ने ही की थी। यह उन्हीं की कृति है। देखें प्रमाण —

    इदं शतसहस्रं तु श्लोकानां पुण्यकर्मणाम्॥
    उपाख्यानैः सह ज्ञेयं आद्यं महाभारतम्।
    (महा भा १:१:१०१-२)

    और भी देखें —

    इदं शतसहस्रं तु श्लोकानां पुण्यकर्मणाम्।
    सत्यवत्यात्मजेनेह व्याख्यातममितौजसा॥
    (महा १:६२:१४)

    जो आपने यह लिखा — कि “जो भारत या महाभारत ग्रन्थ राजा भोज के समय में मात्र 24 हजार श्लोकों का था उसमें आज लगभग 1 लाख 25 हजार श्लोक विद्यमान हैं” असत्य, तत्थ्यासङ्गत एवं भ्रामक है। कारण, वेदव्यास जी ने शतसहस्र श्लोकात्मक महाभारत ही नहीं रचा था, २४ सहस्र श्लोकात्मक भारत संहिता की रचना भी की थी – जिसे विद्वान् लोग भारत कहते हैं, और जो सम्प्रति भी उपलब्धमान् है। देखें इसमें भी प्रमाण –

    चतुर्विंशतिसाहस्रीं चक्रे भारतसंहिताम्॥ १:१:१०२
    उपाख्यानैर्विना तावत् भारतं प्रोच्यते बुधैः। १०३

    एक उच्च महर्षि द्वारा संरचित् मूल ग्रन्थों का परित्याग करके किन्हीं श्री सन्तराम (मोगा वासी) के “237 पृष्ठों में प्रकाशित ग्रन्थ संक्षिप्त महाभारत” के अध्ययन से तत्सम्बन्धित “आवश्यक ज्ञान” प्राप्त हो जायगा – यह कैसे सम्भव है, हो सकता है और ऐसा कहना युक्त कहा जा सकता है?

    पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में,

    सादर सविनय,

    डा० रणजीत सिंह (यू०के०)

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