स्वयं को देखने के लिए मन की आँखों को खोलें

अखिलेश आर्येन्दु

अचानक पीछे से उन्होंने दोनों हाथों से मेरी आँखें बंद की फिर धीरे से कान में कहा-‘‘अब देखो, दुनिया कैसी दिख रही है।’’ मैंने कहा,- ‘‘अँधेरे के अलावा अब कुछ भी नहीं दिख रहा है।’’ ‘‘वाह, अंधेरा दिख रहा है? ‘‘हाँ, अंधेरे को मैं देख और एहसास भी कर पा रहा हूँ।’’ फिर वह बोले,-‘‘अच्छा, इसी अंधेरे में अब खुद को देखने की कोशिश करो।’’ ‘मैंने कहा,- ‘‘मैंने आप की बातों को समझा नहीं! वह बोले- ‘‘अँधेरे में स्वयं को देखना अजीब-सी बात नहीं है?’’ मेरी जिज्ञासा अब उत्सुकता में बदलती जा रही थी। फिर मैंने कहा,- ‘‘अरे, कब तक मेरी आँखें ऐसे दबाए रखोगे?’’ वह बोले,- ‘‘आँखों को मैंने दबाया नहीं है बल्कि मँूदा हुआ है, जिससे तुम अपने आपको देखने के लिए साहस कर सको।’’ अब बातचीत में नया शब्द ‘साहस’ जुड़ चुका था। ‘साहस’ शब्द का ऐसे वक्त में इस्तेमाल मेरे लिए बेहद रोमांचकारी था। मैंने कहा, यानी आप मुझमें साहस की कमी देखते हैं? उन्होंने बड़े सलीके से जवाब दिया,- ‘‘प्यारे भाई! यदि साहस होता तो कब के अपन मालिक बन गए होते। दूसरों के विचारों, दूसरों के रास्तों, दूसरों के चिंतन और दूसरों की जिंदगी को अपनी जिंदगी में ढालने की बराबर कोशिश क्यों करतेे? यानी पिच्छलग्गू बनकर क्यों पड़े़़़़़़़़ रहते। उनका सवाल और जवाब वाकई में बहुत गम्भीर और दिल को झकझोरने वाला था। मैंने खुद को पहले समझने की कोशिश की फिर मैंने उनसे कहा,-‘भाई साहब, आपने मेरी जिंदगी में दूत की तरह आकर बहुत सामान्य व्यवहार से झकझोर दिया। ‘आँख मुद्दौवल’ तो हम सब बचपन से खेलते आए हैं। और चालिस की उम्र में आकर इसके पीछे छिपे सबक को सीखने का अवसर मिला..वह भी खेल-खेल में ही। मैं तो आज भी इसे खेल ही समझ रहा था, लेकिन आप ने खेल-खेल में इतनी बड़ी सीख दे दी कि मैं हैरान रह गया।’’
वाकई में इंसान कभी धैर्यपूर्वक, सच्चे मन और गम्भीरता के साथ कभी बाहर की दुनिया से अलग हटकर खुद को देखने की कोशिश नहीं करता। जिन नंगी आँखों से दुनिया को देखता है उसको ही असली दुनिया समझकर अपने साथ भी वैसा सुलूक करने लगता है। कुछ वैसा बनने की कोशिश करने लगता है जैसी यह दुनिया दिखाई पड़ती है। कुछ लोग इसमें आचार्य शंकर के दर्शन ‘अद्वैतवाद’ को भी खोज सकते हैं। यानी बाहर जो दुनिया दिखाई पड़ रही है वह असली दुनिया नहीं है, यह रस्सी में सर्प होने का भ्रम मात्र है। और जब भ्रम दूर हो जाता है तो समझ आ जाता है कि जिसे हम भ्रमवश सर्प समझ रहे थे वह सच नहीं था, बल्कि सच तो रस्सी है। लेकिन यहाँ आचार्य शंकर के अद्वैतवाद को ढूढ़ना समझदारी नहीं है, क्योंकि यहाँ बाहरी दुनिया का वजूद है, वह कोई झूठ नहीं, न भ्रम का ही परिणाम है बल्कि यहाँ तो हमारे देखने और उससे निर्मित हुए संस्कारों का परिणाम है।
बचपन से लेकर मृत्यु तक इंसान कभी बाहरी दुनिया से हटकर अपने अंदर की दुनिया को देखने की कोशिश ही नहीं करता। या यूं कहिए कि कभी अंदर की दुनिया को देखने का विचार ही नहीं उसके मन में आता। आँख मुद्दौवल से बाहर की दुनिया से हटकर अंदर की दुनिया को देखने की प्रेरणा मिली या सबक सीखा कि बाहर की दुनिया दूसरों की है और अंदर की दुनिया अपनी है..केवल और केवल अपनी। यहाँ संस्कारों और विचारों का मेला लगा है। इस मेले में हम स्वयं को खोए हुए हैं। इसमें हमें खुद को खोजना है। लेकिन हमने कभी स्वयं को खोजने की कोशिश ही नहीं की। जिसने खोजा वह पाणिनी, पतंजलि, महात्मा बुद्ध, महावीर स्वामी, महर्षि दयानंद, कबीर, मीरा और धु्रव बन गया।
अब सवाल उठता है, क्या अंदर की दुनिया को खोजने के काबिल हम हो सकते हैं? इसका जवाब है..प्रत्येक वह व्यक्ति इसके लिए काबिल है जो विक्षिप्त या रोगी न हो। जरूरत इस बात की है कि बाहरी दुनिया को देखने के बजाय हम अपना अधिकाधिक समय अपने अंदर की दुनिया को खोजने या देखने में लगाएँ। और अंदर की दुनिया को अच्छी से और अच्छी बनाने के लिए संकल्पित हों।
मेरा अपना तजुर्बा कहता है कि शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रोगों का कारण कहीं न कहीं से बाहरी दुनिया को हमेशा देखने के कारण ही पैदा होते है। यानी जो जितना अधिक सांसारिक है वह उतना ही अधिक रोगी भी बनता जाता है। इसे हम इस तरह भी कह सकते हैं, कि सांसारिकता से संतुलन बनाकर रखने वाला व्यक्ति भी संतुलित रहता है। हम जितना बाहर की दुनिया देखने में वक्त लगाते हैं यदि उसका एक चैथाई भी अंदर की दुनिया को देखने और समझने में लगाएँ तो हम मानसिक, शारीरिक और आत्मिक रोगों से काफी हद तक अपना बचाव कर सकते हैं।
एक बहुत सामान्य सा मंत्र आपको दे रहा हूँ, कभी आज़मा के जरूर देखना। जब भी आपको किसी भी तरह की परेशानी, कष्ट, दुख या बेचैनी मालुम पड़े तुरंत आँखें बंद करिए और अपने आपसे बातें करना शुरू कर दीजिए।… कि मैं बिल्कुल ठीक हूँ, अब मैं न तो कष्ट महसूस कर रहा हूँ और न तो किसी तरह का दुख से दुखी ही हूँ। और उस जगह पर अंदर ही अंदर देखने की कोशिश करिए जहाँ कष्ट या परेशानी का अनुभव कर रहे हैं। उस जगह को बार-बार देखिए और विचार करिए कि अब मैं पूरी तरह सेहतमंद हूँ। मुझे अब शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से कहीं पर किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं है।
शुरूआत में इस तरह की स्थिति बनाने में कुछ वक्त लग सकता है और प्रतिकूलता का अनुभव भी हो सकता है लेकिन बार-बार ऐसा करते रहने से अंतर्मुखी होकर जिंदगी गुजारने में बहुत सुख और शांति का अनुभव होगा।

दिल की धड़कन बढ़ाने वाला रोग है कैंसर। कैंसर का नाम सुनते ही हमारी दशा अर्धमृत्यु वाले व्यक्ति जैसी हो जाती है। ज्यादातर लोग इस बीमारी से इसलिए मर जाते हैं कि वे पहले से ही जानते और मानते रहते हैं कि कैंसर एक ऐसा भंयकर रोग है जो मौत के साथ ही खत्म होता है। इसमें वही बचते हैं जो बहुत किस्मत वाले होते हैं। यह विचार बाहरी दुनिया को बराबर फाॅलो करने के कारण हमारे अंदर ऐसा बैठ जाता है, जैसे अधिक मांस और अंडे के सेवन करने से कोलस्ट्राल नामक तत्त्व हमारी धमनियों में अंगद के पैर की तरह जमकर बैठ जाता है। उस व्यक्ति का कैंसर ही लाइलाज़़ होता है जिसके विचारों में कैंसर मौत का दूसरा नाम है। यानी बाहर की दुनिया से विचारों के जरिए कैंसर नामक रोग से जब हम रू-ब-रू हुए तो वह मौत का पर्याय के रूप में हुए। इसलिए कैंसर हमारे विचारों में रोग के रूप में हमारे अंदर पाँव जमाए बैठ गया। बैठ ही नहीं गया बल्कि हम बराबर बाहर की दुनिया के जरिए इसे अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए खाद-पानी के रूप में अनेक तरह के विकारों को परोसते रहे। यह केवल बाहरी दुनिया को देखते रहने का परिणाम है।
हम आयुर्वेद को जानते हैं कि नहीं, हम होमियोपैथ या प्राकृतिक चिकित्सा को जानते हैं कि नहीं या योग-आसन को जानते हैं कि नहीं, यह उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना की हम यह जानते हैं कि नहीं ‘हम स्वयं को जानते जानते हैं कि नहीं।’ जिस जिन हम स्वयं के अंदर की दुनिया को जानने का हमारा अभ्यास हो जाएगा, उस दिन हमारा जीवन रोगरहित और संतुलित हो जाएगा। यह संतुलन हम अपने अंदर स्वयं से स्वयं के द्वारा जुड़कर प्राप्त कर सकते हैं। यही सबसे बड़ा योग, ध्यान और साधना है। यही जीवन की सफलता का सबसे बड़ा मंत्र है।

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