किसानों को बरगलाने में लगे विपक्षी दल

0
149

प्रमोद भार्गव

तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग को लेकर विपक्षी दलों के प्रतिनिधिमंडल ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से मिलकर यह जता दिया है कि ये दल किसानों को बरगलाने का काम कर रहे हैं। जो राहुल गांधी इन कानूनों को किसान विरोधी बता रहे हैं, वही इन कृषि सुधारों को 2012 में मनमोहन सिंह सरकार के रहते हुए लागू करना चाहते थे। किंतु विपक्ष के प्रबल विरोध के चलते यह संभव नहीं हुआ। जो वामपंथी दल पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम और सिंगूर में किसानों की जमीन अधिग्रहण कर सेज और टाटा की नैनो के लिए क्रूर हिंसा पर उतर आए थे, वही आज किसान हितों का ढोंग कर रहे हैं। एनसीपी के नेता शरद पवार वही नेता हैं, जिनके केंद्रीय कृषि मंत्री रहते किसानों ने सबसे ज्यादा आत्महत्याएं कीं और महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र आज भी इसी स्थिति से गुजर रहा है। 2019 में ही महाराष्ट्र में 3927 किसानों ने आत्महत्याएं की हैं। महाराष्ट्र में चीनी मिल कभी भी किसान से गन्ना खरीद का पूरा भुगतान नहीं करते हैं। इनमें से ज्यादातर मिल शरद पवार और उनकी ही कंपनियों के हैं।

साफ है, ये दल किसान संगठनों में फूंक मारकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करना चाहते हैं। क्योंकि अब जब केंद्र सरकार ने किसानों के दस मुद्दों पर संशोधन का प्रस्ताव लिखित में दे दिया है, तब आंदोलन के चलते रहने का कोई औचित्य नहीं रह जाता? वैसे भी संविधान की सातवीं अनुसूची में खेती, भूमि, पानी, शिक्षा, पशुपालन, कृषि-ऋण, राज्य-कर और भू-राजस्व जैसे सभी विषय राज्यों के अधीन हैं, गोया, तीनों नए कानूनों का कोई भी प्रावधान राज्य सरकारों की इच्छा के विपरीत लागू नहीं किए जा सकते हैं। मसलन राज्य इन कानूनों को लागू करने या नहीं लागू करने के लिए स्वतंत्र हैं।

1964 से पहले भारत में किसानों को खाद्य सुरक्षा नहीं मिलती थी। ‘जय किसान, जय जवान’ का नारा देने वाले प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने अपने सचिव एलके झा के नेतृत्व में ‘खाद्य अनाज मूल्य नीति समिति’ का गठन किया और किसान हित साधे। दरअसल शास्त्री जी चाहते थे कि किसानों को फसल बेचकर इतनी धनराशि तो मिले की उनकी आजीविका सरलता से सालभर चल जाए। इसी मकसद पूर्ति के लिए 1966 में गेहूं का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) तय किया गया। तबसे लेकर अबतक यह व्यवस्था लागू है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 23 फसलों पर एमएसपी सुनिश्चित किया हुआ है। लेकिन नए कानून में इस प्रावधान की गारंटी खत्म कर दी गई थी। संशोधन प्रस्ताव में इस व्यवस्था को बनाए रखने का लिखित भरोसा सरकार ने दे दिया है। मसलन एमएसपी भविष्य में भी किसानों को मिलती रहेगी। हालांकि 2015 में आई संताकुमार समिति की रिपोर्ट पर गौर करे तो बमुश्किल छह प्रतिशत किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता है। बावजूद इस प्रावधान का बने रहना जरूरी है।

किसानों को आशंका थी कि जब वह निजी मंडियों में फसल पहले से ही बेचने को स्वतंत्र थे, तब निजी मंडियों की व्यवस्था किसलिए? किसानों को आशंका थी कि वे निजी मंडियों के मालिकों के जाल में फंसते चले जाएंगे। ये मंडियां कर-मुक्त फसल की खरीद करेंगी, इसलिए सरकारी मंडियां बंद होती चली जाएंगी। यह आशंका उचित है। सरकार ने अब संशोधन प्रस्ताव दिया है कि निजी मंडियों में राज्य सरकारें पंजीयन की व्यवस्था लागू कर सकती है और सेस शुल्क भी लगा सकती है। हालांकि निजी मंडियां अस्तित्व में नहीं होने के बावजूद 65 फीसदी किसान स्थानीय निजी व्यापारियों को ही फसल बेचते हैं। महज 25 प्रतिशत परिवार ही सरकारी मंडियों में फसल बेचते हैं।

इस लिहाज से यह बात समझ से परे है कि आखिर निजी मंडियों की जरूरत ही क्या है। हालांकि अब निजी मंडियों पर भी कर के प्रावधान कर दिए जाने से यह भरोसा पैदा होता है कि निजी मंडियां पनप नहीं पाएंगी। किसानों की जमीन पर उद्योगपतियों का कब्जा संविदा खेती के अनुबंध के बावजूद नहीं होगा। क्योंकि इस कानून में संशोधन किया गया है कि किसान की जमीन पर किसी भी प्रकार का ऋण अथवा मालिकाना हक व्यापारी को नहीं मिल सकता है और न ही किसान की जमीन बंधक रखी जा सकती है। इन प्रावधानों के अलावा राज्य सरकारें किसानों के हित में कानून बनाने के लिए स्वतंत्र रहेंगी। यह प्रावधान तय करता है कि तीनों कानूनों में किसानों के हित ध्यान में रखते हुए बदलाव किए जा सकते हैं।

नरेंद्र मोदी सरकार अस्तित्व में आने के बाद से ही खेती-किसानी के प्रति चिंतित रही है। इस नजरिए से अपने पहले कार्यकाल में न्यूनतम समर्थन मूल्य में भारी वृद्धि की थी, इसी क्रम में ‘प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण नीति’ लाई गई थी। तब इस योजना को अमल में लाने के लिए अंतरिम बजट में 75,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया था। इसके तहत दो हेक्टेयर या पांच एकड़ से कम भूमि वाले किसानों को हर साल तीन किश्तों में कुल 6000 रुपए देना शुरू किए गए थे। इसके दायरे में 14.5 करोड़ किसानों को लाभ मिल रहा है। जाहिर है, किसानों की आमदनी दोगुनी करने का यह बेहतर उपाय है। यदि फसल बीमा का समय पर भुगतान, आसान कृषि ऋण और बिजली की उपलब्धता तय कर दी जाती है तो भविष्य में किसान की आमदनी दूनी होने में कोई संदेह नहीं रह जाएगा। ऐसा होता है तो किसान और किसानी से जुड़े मजदूरों का पलायन रुकेगा और खेती 70 फीसदी ग्रामीण आबादी के रोजगार का जरिया बनी रहेगी। खेती घाटे का सौदा न रहे इस दृष्टि से कृषि उपकरण, खाद, बीज और कीटनाशकों के मूल्य पर नियंत्रण भी जरूरी है।

बीते कुछ समय से पूरे देश में ग्रामों से मांग की कमी दर्ज की गई है। निःसंदेह गांव और कृषि क्षेत्र से जुड़ी जिन योजनाओं की श्रृंखला को जमीन पर उतारने के लिए 14.3 लाख करोड़ रुपए का बजट प्रावधान किया गया है, उसका उपयोग अब सार्थक रूप में होता है तो किसान की आय सही मायनों में 2022 तक दोगुनी हो पाएगी। इस हेतु अभी फसलों का उत्पादन बढ़ाने, कृषि की लागत कम करने, खाद्य प्रसंस्करण और कृषि आधारित वस्तुओं का निर्यात बढ़ाने की भी जरूरत है। दरअसल बीते कुछ सालों में कृषि निर्यात में सालाना करीब 10 अरब डॉलर की गिरावट दर्ज की गई है। वहीं कृषि आयात 10 अरब डॉलर से अधिक बढ़ गया है। इस दिशा में यदि नीतिगत उपाय करके संतुलन बिठा लिया जाता है, तो ग्रामीण अर्थव्यवस्था देश की धुरी बन सकती है। हालांकि अभी भी खेती-किसानी का जीडीपी में योगदान 16 फीसदी है और इससे देश की आबादी के 41 प्रतिशत लोगों को रोजगार मिलता है।

केंद्र सरकार फिलहाल एमएसपी तय करने के तरीके में ‘ए-2’ फॉर्मूला अपनाती है। यानी फसल उपजाने की लागत में केवल बीज, खाद, सिंचाई और परिवार के श्रम का मूल्य जोड़ा जाता है। इसके अनुसार जो लागत बैठती है, उसमें 50 फीसदी धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य तय कर दिया जाता है। जबकि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश है कि इस उत्पादन लागत में कृषि भूमि का किराया भी जोड़ा जाए। इसके बाद सरकार द्वारा दी जाने वाली 50 प्रतिशत धनराशि जोड़कर समर्थन मूल्य सुनिश्चित किया जाना चाहिए। फसल का अंतरराष्ट्रीय भाव तय करने का मानक भी यही है। यदि भविष्य में ये मानक तय कर दिए जाते हैं तो किसानों की खुशहाली बढ़ेगी। एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय आयोग ने भी वर्ष 2006 में यही युक्ति सुझाई थी।

सरकार अब खेती-किसानी, डेयरी और मछली पालन से जुड़े लोगों के प्रति उदार दिखाई दे रही है, इससे लगता है कि भविष्य में किसानों को अपनी भूमि का किराया भी मिलने लग जाएगा। इन वृद्धियों से कृषि क्षेत्र की विकास दर में भी वृद्धि होने की उम्मीद बढ़ेगी। वैसे भी यदि देश की सकल घरेलू उत्पाद दर को दहाई अंक में ले जाना है तो कृषि क्षेत्र की विकास दर 4 प्रतिशत होनी चाहिए। खेती उन्नत होगी तो किसान संपन्न होगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था समृद्ध होगी। इसका लाभ देश की उद्योग आधारित अर्थव्यवस्था को भी मिलेगा।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here