“भौतिकवाद से हमारी मानवीय संवेदनायें घटती हैं जिन्हें आध्यात्मिकता से सन्तुलित कर जीवन को सुखी बना सकते हैं”

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मनमोहन कुमार आर्य,

भौतिकवाद आध्यात्मवाद का विलोम शब्द है। पृथिवी, अग्नि, जल, वायु और आकाश को भौतिक पदार्थ कहते हैं। इसमें ईश्वर व जीवात्मा सम्मिलित नहीं हैं। यह दोनों पदार्थ भौतिक न होकर चेतन वा आत्मतत्व हैं जो ज्ञान व कर्म गुणों वाले होते हैं। भौतिक पदार्थ ज्ञान व सम्वेदनाशून्य होते हैं। इनकी अधिक संगति से मनुष्य भी संवेदनाशून्य व अल्प-संवेदनावान हो जाता है। जो मनुष्य ईश्वर व जीवात्मा की उपेक्षा कर सृष्टि, शारीरिक व इन्द्रिय सुखों सहित धन व सम्पत्ति को महत्व देते हैं उन्हें भौतिकवादी कहा जाता है। इसके विपरीत जो मनुष्य ईश्वर व जीवात्मा का अध्ययन कर इन्हें जानते व समझते हैं तथा कुछ समय ईश्वर की उपासना व आत्म-चिन्तन में व्यतीत करते हैं उन्हें आध्यात्मवादी कहा जाता है। आध्यात्मवाद में ईश्वर की उपासना सहित प्रकृति व पर्यावरण को शुद्ध रखना तथा माता, पिता, आचार्य सहित समाज व देश के प्रति अपने कर्तव्यों को जानकर उनका आचरण व पालन करना अनिवार्य होता है। भौतिकवाद में मनुष्य सांसारिक ज्ञान व विज्ञान विषयों की शिक्षा प्राप्त कर उसका उपयोग उचित व कुछ लोग अनुचित तरीकों से धनोपार्जन आदि कार्यों में लगाते हैं जिससे उनका सारा समय प्रायः शिक्षा प्राप्त कर अपने परिवार के लालन-पालन व धनोपार्जन सहित सुख व सुविधाओं का भोग करने में लगता है। उन्हें अपने सुख का तो ध्यान रहता है परन्तु दूसरों के सुख अर्थात् सम्वेदनाओं व दुःखों की चिन्ता नहीं रहती। ऐसे मनुष्य दूसरों के अधिकार की भी परवाह नहीं करते और उनके प्रति शोषण व अन्याय करते हुए धन व सम्पत्ति के संग्रह द्वारा सुख भोग को ही जीवन का मुख्य उद्देश्य मानकर जीवन व्यतीत करते हैं। यह जीवन शैली मानवीय मूल्यों से शून्य आधुनिकता की देन है। जीवन में त्याग व परोपकार की कमी के कारण ही देश में अधिकांश समस्यायें उत्पन्न हो रही हैं जिनका निदान केवल दृष्टिकोण को बदल कर तथा भौतिकवाद व आध्यात्म के सन्तुलन से भी प्राप्त हो सकता है। जब हम मनुष्य जीवन पर विचार करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि हमारा जन्म माता-पिता के त्याग व बलिदान की देन है। यदि माता-पिता व आचार्य न हों तो मनुष्य का जन्म नहीं हो सकता है। माता-पिता के त्याग व बलिदान से ही सन्तान का पालन व उसकी शिक्षित होकर वह संस्कारयुक्त होता है। हमारे इन माता-पिता व आचार्यों को भी एक अदृश्य सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान सत्ता ईश्वर ने उत्पन्न किया है। उसी सत्ता ईश्वर ने सत्य, चित्त, सूक्ष्म, अल्पज्ञ, एकदेशी, ससीम, अनादि व नित्य सत्तायुक्त जीवात्माओं को जन्म व सुख देने के लिये यह संसार बनाया है। यह संसार दुःख व सुखमय दोनों है। मनुष्य 10 माह तक माता के गर्भ में रहकर दुःख पाता है। उसके बाद शैशव अवस्था में भी वह कुछ वर्ष तक माता-पिता के आश्रय में रहकर सुख व दुःख का अनुभव करता है। माता-पिता से ही वह उठना-बैठना-चलना, भाषा व संस्कार प्राप्त करता है। जीवन में अनेक बार अनेक प्रकार के रोग होने पर मनुष्यों को दुःख प्राप्त होता है और कुछ लोग अनेक प्रकार की दुर्घटनाओं से ग्रस्त होकर दुःखी जीवन व्यतीत करने को विवश होते हैं। यदि किसी के साथ ऐसा कुछ न हो तो युवावस्था के बाद वृद्धावस्था का आरम्भ हो जाता है जो दिन प्रतिदिन दुःखों की वृद्धि करने वाली होती है। अतः इन सब प्रकार के दुःखों से छूटना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। हमारे प्राचीन विद्वानों जिन्हें हम शास्त्रकार व ऋषि आदि नामों से जानते हैं, उन्होंने मनुष्यों के दुःख निवारण पर विचार किया और बताया कि सत्य ज्ञान को प्राप्त कर ही मनुष्य अपने दुःखों पर विजय प्राप्त कर सकता है। उन्होंने चिन्तन व अनुसंधान किया और प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर कहा कि सृष्टि में एक सत्य-चित्त-आनन्द-स्वरूप, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, अनादि, अविनाशी व नित्य सत्ता ईश्वर है। उस ईश्वर का उपदेश व स्वाध्याय द्वारा ज्ञान, ईश्वर की उपासना, परोपकार, दान व सादगीपूर्ण जीवन से ही मनुष्य सभी दुःखों पर विजय प्राप्त कर सकता है। उन्होंने अति-भौतिकवादी जीवन की भी समीक्षा व विश्लेषण किया और इसे मनुष्य जीवन के वर्तमान तथा मृत्योपरान्त जीवन की उन्नति में बाधक व हानिकारक पाया। इसी कारण से भौतिकवाद त्याज्य है तथा भौतिक व आध्यात्म का सन्तुलित जीवन ही श्रेयस्कर है।मनुष्य की आत्मा एक चेतन सत्ता है। इसे जैसा सुख व दुःख होता है उसी प्रकार का सुख व दुःख अन्य सभी मनुष्यों व पशु, पक्षी आदि थलचर, नभचर व जलचरों को भी होता है। अतः यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि हमें जो दूसरों का जो व्यवहार अपने प्रति प्रिय न हो वह व्यवहार हमें दूसरों के प्रति भी नहीं करना चाहिये। इसके साथ हमें दूसरों का जो व्यवहार अपने लिए प्रिय है वही व्यवहार हमें दूसरों के प्रति करना चाहिये। यही कर्तव्य भी है और इसी व्यवहार का नाम धर्म है। मानवीय सम्वेदनायें मनुष्यों को तप व पुरुषार्थ का जीवन व्यतीत करने पर अनुभव होती हैं। सच्ची व अच्छी पुस्तकों का अध्ययन करने पर भी मनुष्य मानवीय सम्वेदनाओं से परिचित हो सकता है। अनेक प्रकार की सच्ची घटनायें एवं आख्यान भी मानवीय सम्वेदनाओं को उद्बुध करने में सक्षम होते हैं। अतः हमें मानवीय सम्वेदनाओं का परिचय प्राप्त करने के लिये योगदर्शन आदि पुस्तकों के हिन्दी व अंग्रेजी भाष्य जिसमें हमें सुगमता हो, पढ़ने चाहिये। इससे हम अपने शरीर, ज्ञान-इन्द्रियों व कर्म-इन्द्रियों सहित अपने मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व आत्मा आदि को अच्छी प्रकार से समझ कर अपने व दूसरों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन कर न्याय कर पायेंगे। इसके साथ हमें अपने माता, पिता, परिवारजनों, आचार्यों एवं समाज के सज्जन लोगों के प्रति कर्तव्यों तथा व्यवहार को भी जानना है। किन लोगों पर हम पर कैसे व कितने उपकार हैं, किसने हमारी उन्नति व वृद्धि में क्या क्या योगदान किया है, उस सबको जानकर हमें उनका ऋण चुकाना है। माता-पिता व आचार्यों का ऋण सन्तानों व विद्यार्थियों पर सबसे अधिक होता है। हमें उनको सदैव सन्तुष्ट रखने के लिये उनके निवास, भोजन, वस्त्र, चिकित्सा आदि का अपनी सामर्थ्यानुसार ध्यान रखना चाहिये। सत्शास्त्रों में यहां तक कहा है कि कोई सन्तान अपने माता-पिता आदि की कितनी भी सेवा कर लें, वह उनके ऋण से उऋण नहीं हो सकती। यदि हम उनकी सेवा करेंगे तो इससे वह प्रसन्न होकर हमें आशीर्वाद देंगे जिससे हमारा कल्याण होगा।

 

यह जानना भी आवश्यक है कि मनुष्य जैसा कर्म करेगा उसको उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। इसका कारण यह है कि ईश्वर सर्वव्यापक होने से जीवात्माओं व सभी प्राणियों के सभी कर्मों का साक्षी होता है। वह न्यायकारी है। न्याय करने के लिए वह सभी जीवों को उनके सभी कर्मों का सुख व दुःख रूपी भोग कराता है। हमारे सुख व दुःख हमारे वर्तमान व अतीत के कर्मों का ही परिणाम होते हैं। हम शुभ कर्म करेंगे तो हमें सुख प्राप्त होगा और यदि हम अशुभ अन्याय, शोषण, अनुचित रीति से धनोपार्जन, अभक्ष्य पदार्थों मांस, मदिरा, तला हुआ, बासी व प्रतिकूल अन्न का सेवन करेंगे तो इसका परिणाम दुःख होना निश्चित है। अतः दुःख निवारण के लिये भी मानवीय संवेदनाओं सहित अपने वेद निर्दिष्ट कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है। सभी शास्त्रों का अध्ययन करने पर भी यही तथ्य सम्मुख आता है कि हमारे पूर्वज मनीषियों ने शास्त्रों की रचना मानवीय संवेदनाओं व उनके सुख व दुःख को सामने रखकर उन्हें अधिक से अधिक सुख पहुंचाने के उद्देश्य से ही की है। सभी संस्कृत के पुराने ग्रन्थ शास्त्र की कोटि में नहीं आते। पुराणादि ग्रन्थ त्याज्य कोटि के ग्रन्थ हैं। अतः ऋषियों के बनाये हुए योगदर्शन व सांख्य दर्शन सहित वैशेषिक दर्शन आदि सभी दर्शनों, उपनिषदों, वेदों व सत्यार्थप्रकाश आदि का अध्ययन हम सभी को करना चाहिये। इससे हम भौतिकवाद से होने वाली हानियों व आध्यात्म से होने वाले लाभों को जानकर इस जन्म व परजन्म दोनों में होने वाले दुःखों से बच सकते हैं।

 

भौतिकवाद व आधुनिकता मनुष्य को कुछ समय के लिए सुख व सुविधायें तो दे सकती हैं परन्तु जीवात्मा के अनन्त काल के जीवन में मनुष्य व उनकी जीवात्माओं का भविष्य स्वास्थ्य व सुख की दृष्टि से हमेशा संदिग्ध रहता है जबकि तप व पुरुषार्थ सहित आध्यात्मिक जीवन से युक्त भौतिकवाद का सन्तुलित जीवन ही लाभकारी व श्रेयस्कर होता है। हम मानवीय सम्वेदनाओं को जानकर सबके प्रति मानवीय दृष्टिकोण अपनाये। सबको अपने समान जानकर किसी के अधिकार का हनन न करें। किसी को दुःख व हानि न पहुंचायें। अपने माता-पिता व आचार्य आदि सहित हम जीवन में जिन जिन मनुष्यों से लाभान्वित हुए हैं उनके प्रति आदर का भाव रखकर उन्हें सुख पहुंचाने का भाव अपने हृदय में रखें। पुरुषार्थी बने और पुरुषार्थ करते हुए उचित तरीकों से प्रभूत धन अर्जित करें तो इससे मनुष्य जीवन का वास्वविक सुख प्राप्त कर सकते हैं। सार रूप में यही कह सकते हैं कि कोरा भौतिकवाद स्थिर सुख व शान्ति नहीं दे सकता। हमें अपने जीवन में भौतिकवाद के साथ आध्यात्मिकता को भी उचित मात्रा में स्थान देना होगा तभी हमारा कल्याण होगा। कोरे भौतिकवाद से मानवीय सम्वेदनायें घटती हैं और उससे हमारे शुभचिन्तकों का प्रिय लोगों को दुःख पहुंचता है। हमें अपने दृष्टिकोण को व्यापक बनाकर सबके प्रति सद्भावना का व्यवहार करना है।

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