हमारी नदियों को जीने दो

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अंतर्राष्ट्रीय नदी दिवस (27 सितम्बर) पर विशेष
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हमारी नदियों को जीने दो
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दिल्ली उद्घोषणा के एक साल बाद

’’हमारी नदियों को जीने दो’’ – दिल्ली उद्घोषणा में निहित इस अपील के साथ गत् वर्ष संपन्न हुए प्रथम भारत नदी सप्ताह को एक वर्ष पूरा हो चुका, किंतु क्या इस एक वर्ष के दौरान अपील पर ध्यान देने की कोई सरकारी-गैर सरकारी समग्र कोशिश, पूरे भारत में शुरु हुई ? क्या भारत की नदियों को जीने का अधिकार देने की मंाग शासकीय, प्रशासनिक, न्यायिक या सामाजिक स्तर पर परवान चढ़ सकी ?

क्या याद रही नदी की परिभाषा ?

याद कीजिए कि नदी सप्ताह के दौरान देशभर के नदी कार्यकर्ताओं, अध्ययनकर्ताओं और विशेषज्ञों ने मिलकर नदी को परिभाषित करने की एक कोशिश की थी। श्री अनुपम मिश्र ने ठीक कहा था कि इंसान की क्या हैसियत है कि वह नदी को परिभाषित करे; इसीलिए नदी की परिभाषा, निष्कर्षों के कुछ टुकङों के जोङ के रूप में आई -’’नदी, मात्र बहते पानी की धारा नहीं है। नदी, एक प्राकृतिक, सजीव व पर्यावरणीय तंत्र है; जो रेत और माटी को अपने साथ निरंतर बहाती रहती है। जलागम क्षेत्र, बाढ़क्षेत्र/खादर, नदी तल और तटों की वनस्पतियां आदि सभी नदी तंत्र के अभिन्न अंग हैं। इन सभी प्राकृतिक संरचनाओं को जोङकर नदी बनती है। एक नदी असंख्य जीव, जन्तुओं और पौधों को आश्रय देती है और उनके साथ पारस्परिक संबंध बनाये रखती है। नदी, वैश्विक जलचक्र की अह्म कङी है, जो अनवरत् प्रवाहमान रहते हुए बङे पारिस्थितिकीय तंत्रों को जोङती तथा पूर्ण करती है। नदी, बेसिन और एस्चुरी तक फैली असंख्य लघु-दीर्घ धाराओं का विशाल तंत्र है।’’

क्या हमें नदी की परिभाषा का यह अंश याद रहा ? क्या हमने नदी के अभिन्न अंगों की समृद्धि के लिए कोई कार्य किया ? क्या इस बीच हमने किसी नदी की किसी लघु अथवा दीर्घ धारा को निर्मल-अविरल बनाने की ईमानदार कोशिश शुरु की ?

भूल गये दिल्ली उद्घोषणा की चेतावनी

दिल्ली उद्घोषणा के रूप में देशभर के नदी चिंतकांे-कार्यकताओं ने बार-बार कहा कि प्रवाहित जल की मात्रा और गुणवत्ता में उतरोत्तर कमी तथा गिरते प्रदूषण से नदी की सेहत पर प्रतिकूल असर पङता है। सहायक नदियो के जलहीन होने, जैवविविधता के कम होने तथा खादर क्षेत्र के विकृत होने से नदी पूरी तरह बीमार हो जाती है। एक सीमा के पश्चात् वह प्रदूषण के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता तथा जल को सोखकर अपने में संजोये रखने की क्षमता खो बैठती है। ऐसी स्थिति में नदी पुनर्जीवन का काम दुष्कर हो जाता है।

क्या हमने किसी नदी के जलागम, बाढ़क्षेत्र/खादर, तट, तल, वनस्पति अथवा जीवों को बचाने की कोशिश की ? जवाब सोचें। हो सकता है कि हिंडन प्रदूषण मुक्ति करने और गंगा नदी तट पर औषधीय पौधे लगाने जैसी कई घोषणाओ को सामने रख आप ’हां’ में उत्तर दें। किंतु क्या सच ही उत्तर ’हां’ ही होना चाहिए ? सोचें। उद्घोषणा में स्पष्ट है कि बाढक्षेत्र और जैव विविधता संरक्षण के बिना अन्य प्रयास आधे-अधूरे हैं।

क्या नदी कार्यों में बाधक कदम पीछे हटे ?

नदी को परिभाषित करते हुए ’दिल्ली उद्घोषणा’ में नदी के कई कार्य बताये गये थे। गहरी घाटियों को काटना, चट्टानों को सरका देना, पत्थरों को लुढ़का कर बजरी, रेत और मिट्टी में बदल देना – इन्हे नदी की कलाकारी कहा गया। जलीय और तटीय जैव विविधता की जनन और मानवों, मवेशियों तथा वन्यजीवों के पोषण को नदी का मां सरीखा कार्य कहा गया। भूजल को बढ़ाना, प्रदूषण फैलाने वाले तत्वों को बेअसर कर स्वयं को निर्मल रखना, माटी की उर्वरा शक्ति बढ़ाना… नदी के ही कार्य है।

क्या हम समझ पाये कि बाढ़ लाकर नदी, भूजल को बढ़ाती और साफ ही करती है ? इस एक वर्ष के दौरान क्या हमारा कोई कार्य नदी के कार्य में सहायक सिद्ध हुआ या हमने नदी कार्य मंे बाधाओं को हटाने की कोई कोशिश की ??
नहीं, अलबत्ता हमने गंगा पर बैराजों के कार्यों पर आगे बढ़ाया। कर्नाटक में नेथरावती नदी का मार्ग बदलने को लेकर ’नेशनल इंस्टीट्युट आॅफ टेक्नालाॅजी’ की रिपोर्ट भी खिलाफ है। विद्यार्थियांे ने नदी की परिभाषा को समझा और मार्ग बदलने का विरोध किया जरूर, किंतु सरकार ने काम जारी है। काली नदी के प्रदूषण से भूजल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बाशिंदों की सेहत पहल खतरनाक कुप्रभाव की रिपोर्ट आई, लेकिन उसमें कचरा गिराने वाली फैक्टरियों और स्थानीय निकायों के खिलाफ कार्रवाई की कोई रिपोर्ट नहीं आई। क्यों ?

कानपुर विकास प्राधिकरण ने उत्तर प्रदेश की पांडु नदी प्रवाह से 200 मीटर दूरी तक सभी प्रकार के निर्माण रोकने का एक सकारात्मक निर्णय लिया है। गौर कीजिए कि ऐसे सकारात्मक निर्णय गंगा, यमुना, हिंडन आदि को लेकर पहले भी लिए गये हैं, किंतु व्यवहार कहां है ? ये लागू कहां हुए ? कोई विवरण है ? नहीं, क्योंकि ऐसे ज्यादातर निर्णय भ्रष्टाचार का सबब बनकर कुर्सी के नीचे दब गये हैं। राष्ट्रीय हरित न्यायधिकरण ने अपने छोटे से कार्यकाल मंे ऐसे कितने ही सकारात्मक निर्णय दिए हैं। ऐसे सकारात्मक को व्यवहार में सुनिश्चित करने की कोशिश क्या इस अंतर्राष्ट्रीय दिवस पर होगी ?

क्या नदी-समुद्र के रिश्ते का मान रखा ?

सच है कि समुद्र से उठा पानी ही बादल बनकर बरसता है। इस पानी को पाकर ही ज्यादातर नदियां, स्वच्छ और सदानीरा होती हैं। किंतु यह भी सच है कि यह नदी ही है, जो नदी ही सागर के तापमान को नियंत्रित और उसकी लवणता को संतुलित करती है। सागर के नमकीन पानी को थलक्षेत्र में आने से रोकना और समुद्री जीवों को पोषक तत्व उपलब्ध कराना भी नदी के ही कार्य हैं। नदी और समुद्र के रिश्ते की यह बात क्या भारत सरकार अथवा राज्यों के पर्यावरण, नदी व सागर विभागों के प्रभारियों को समझ में आई ? नहीं, केन-बेतवा जोङ की पूर्ति को बेताब मध्य प्रदेश को तो न नदी-समुद्र का यह रिश्ता समझ में आया और न ही यह कि कोई भी दो नदियां एकसमान नहीं होती।
गुरुत्व आवेग के अनुकूल प्रवाह, किसी भी नदी के नदी होने का एक लक्ष्ण है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि नदी जोङ परियोजना के पैरोकार, भारत की नदियों को नदी परिभाषा के इस मूल लक्षण से दूर करने की तैयारी में जुट गये हैं। गौरतलब है कि कई राज्य नदी जोङ के नाम पर सपना दिखाने, बजट पाने और खपाने को बेसब्र दिखाई दे रहे हैं। इस नदी दिवस पर क्या हम इससे खुश हों ? नहीं, किंतु आंध्र प्रदेश ने भी गोदावरी और कृष्णा को एक नहर के जरिए औपचारिक तंौर पर जोङे जाने से आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बहुत खुश हैं।

मुख्यमंत्री श्री एन. चन्द्रबाबू नायडू ने इसे एक ऐतिहासिक अवसर और विशेष रूप से कृष्णा और गुंटूर जिलों के किसानों के लिए वरदान बता डाला। आंध्र प्रदेश के सिंचाई विभाग ने घोषणा कि मार्च, 2016 तक इसका काम पूरा कर लिया जायेगा। दिलचस्प है कि मुख्यमंत्री ने इसे अलमाटी बांध की ऊंचाई बढ़ने से कृष्णा डेल्टा में आई पानी की कमी का विकल्प बनाकर पेश किया। जाहिर है कि इससे सागर की लवणता, तापमान और समुद्री जीवों के पोषण में कृष्णा की जो भूमिका ’दिल्ली उद्घोषणा’ में बताई गई है, वह उसकी पूर्ति, ठीक से नहीं कर पायेगी। देखना है कि आगे चलकर, आंध्र की आने वाली सरकारें इसका क्या विकल्प बतायेंगी ?

क्या समझ पाये बांध का चरित्र ?

अलमाटी बांध से उपजे संकट से नदी प्रवाह मार्ग मंे बांध का चरित्र समझ में आ जाना चाहिए। किंतु ऐसे बांधों और नदी जोङ परियोजना के पैरोकारों ने नदी के इस चरित्र को कभी नहीं समझा कि नदी, एक जैविक इकाई के तौर पर उद्गम से डेल्टा तक दण्डवत् (स्वदहपजनकपदंससल), खादर/बाढ़क्षेत्रों और तटों से पाश्र्ववत् (स्ंजमतंससल) तथा नदी तल तथा भूजल में लम्बवत् (टमतजपबंससल) एकरूपता से जुङी हुई होती है। बांध, इस एकरूपता को तोङता है।
सब जानते हैं कि नदी प्रवाह, सिर्फ कोई साधारण पानी नहीं है। नदी प्रवाह, अनेकानेक पारिस्थितिकीय दायित्वों की पूर्ति करता है। लिहाजा, प्राकृतिक बहाव में हस्तक्षेप सिर्फ ऐसी स्थिति में होना चाहिए, जब कोई और विकल्प शेष न हो। दिल्ली उद्घोषणा ने अधिकतम सावधानियों के साथ ही ऐसा किया जाने की अनुमति का जिक्र किया है। किंतु क्या बीते एक साल में हमने प्रवाह को लेकर इनमे से एक भी निर्देश की पालना की।

नहीं, हमने एक ओर हिमालय दिवस मनाया, दूसरी ओर हिमालय को नई चुनौतियों के घेरे में कैद करने की योजना बनाई। इसमें हिमालय को दुनिया में सबसे अधिक बांध घनत्व वाला क्षेत्र बना देने का हमारी जानी-समझी रणनीति अपनाई।

नतीजा ?

उत्तराखण्ड में नौ फीट तक की लंबाई वाली सुनहरी महासिर मछली और उसका ठिकाना…. दोनो कहीं खो गये हैं। जलपरियोजनाओं को अंजाम देने वाले विस्फोट, गांववासियों को उजाङने तथा डराने हिमाचल के कई इलाकों में पहुंच गये हैं। तीस्ता(3) जलविद्युत परियोजना को मंजूरी देकर, भारत सरकार के बिजली मंत्री अपनी पीठ खुद थपथपा रहे हैं। सैंड्रप द्वारा दी जानकारी के मुताबिक, सुबर्नसिरि नदी पर 2000 मेगावाट की एनएचपीसी परियोजना और अरुणांचल तथा असम मंे जलविद्युत का संजाल खङा कर देना बिजली मंत्री श्री गोयल का अगला एजेण्डा है। इसी क्रम मंे गौर कीजिए कि अरुणांचल प्रदेश राज्य सरकार ने तवांग बेसिन में 11 जलविद्युत परियोजनाओं के अध्ययन को मंजूरी दे दी है।

सैंड्रप ने संबंधित अध्ययन के इस निष्कर्ष पर आश्चर्य जताया है कि प्रस्तावित परियोजनाओं को लागू करने से किसी इंसानी आबादी अथवा बसावट का पलायन नहीं होगा। ’’किसी एक नदी पर ’रन आॅफ रिवर बांध’ की श्रृंखला, उतनी ही नुकसानदेह होती है, जितनी कि जलाशययुक्त कोई बांध परियोजना। ’रन आॅफ रिवर’ बांधों की ऐसी श्रृंखला से स्थानीय पारिस्थितिकी, मौसम और स्वयं नदी पर अधिक बुरा प्रभाव पङता है।’’ – पूर्व में कई विशेषज्ञों तथा अध्ययनों द्वारा यह प्रमाणिक तथ्य दोहराये जाने के बावजूद अरुणांचल प्रदेश के ये अध्ययन, यही कहते हैं कि बांध, ’रन आॅफ रिवर’ हो; कोई जलाश्य न हो, तो उससे कोई पलायन व नुकसान नहीं होता।

घोटाले के बांधों में बंधता भारत

केन्द्र से महाराष्ट्र के लिए बङी-बङी बांध परियोजनाओं का बजट खींचकर ले जाने वाले नेता भी एक वक्त बांधों के पक्ष में कुतर्क गढ़ते थे। आज, अधिक बांधों और सबसे अधिक सिंचाई बजट खाने वाले महाराष्ट्र ने सूखे से लङने की अपनी क्षमता खो दी है। वहां सूखे के नाम पर हर साल स्यापा है। आज, सिंचाई परियोजनाओं में घोटालों को लेकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पाटी के नेता अजीत पवार, एंटी करप्शन ब्यूरो के घेरे में हैं। उन पर कोकण क्षेत्र की कोंडाणे, कालू और बालगंगा सिंचाई परियोजनाओं में टेंडर नियमों का उल्लंघन कर ठेके देने का आरोप है। कहा गया कि इसी कारण परियोजनाओं की लागत बढ़ी। मेधा पाटकर, सरदार सरोवर बांध परियोजना को मघ्य प्रदेश में हुए व्यापम घोटाले से बङा घोटाला बता रही हैं। शुक्र है कि पश्चिम बंगाल ने कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए इस बार किसी बङे बांध नहीं, छोटे-छोटे चैकडैम तथा जलसंचयन ढांचों के निर्माण हेतु 500 करोङ की योजना को हाथ में लेने का विचार बनाया है।

स्वावलंबन की सीख का क्या हुआ ?

नदी मध्य बांधों से बनने वाली बिजली को ’क्लीन एनर्जी: ग्रीन एनर्जी’ कहने वाले हावर्ड विश्वविद्यालय के एक अध्ययन की भी उपेक्षा करने पर आमादा हैं। हावर्ड के अध्ययन कि मिथाइल मरकरी को हमारी नसों के लिए जहर बताते हुए बाल मस्तिष्क तथा बौद्धिक क्षमता पर दुष्प्रभाव का स्त्रोत पाया है। ठहरे प्रवाह में होने वाली गैस निर्माण तथा उत्सर्जन प्रक्रिया इस लिहाज से घातक है। दिल्ली उद्घोषणा में ऐसे ज़हरों के निर्माण पर लगाम लगाने के उपाय सुझाये गये थे।

नदी से पानी की न्यूनतम निकासी की राय के साथ कहा गया था कि किसी भी शहर को तब तक बाहरी क्षेत्रों/खादर से जलापूर्ति न की जाय, जब तक वह शहर अपने स्थानीय जलसंसाधनों के संरक्षण,वर्षाजल का संचयन तथा उपचार प्रक्रिया के पश्चात् प्राप्त जल का पूरी तरह इस्तेमाल न करने लग जाये।

क्या किसी शहर ने जलसंचयन, संरक्षण के साथ-साथ उपचारित जल के उपयोग की दिशा में कदम उठाये ? दिल्ली में उपचारित जल के बागवानी, बस की धुलाई आदि में उपयोग की अच्छी खबर है। सीवेज शोधन में विशेषज्ञ, श्री जनक दफ्तरी कहते हैं कि यदि सीवेज के जैविक तरीके से उपचारित न किया गया हो, तो ऐसे पानी का पुर्नोपयोग, दिल्ली के खूबसूरत बागीचों की हरियाली को भी प्रदूषित कर सकता है। यदि यह ठीक है, तो दिल्ली से आई खबर भी पूरी तरह अच्छी नहीं है।

बिहार चुनाव में प्रस्तावित गंगा बैराजों का मुद्दा न बनना दुर्भाग्यपूर्ण

उद्घोषणा में नदी की अविरल और निर्मल बनाये को संवैधानिक सिद्धांत किए जाने की एक अन्य महत्वपूर्ण राय रखी गई थी। तटबंध, बांध, बैराज की उपयोगिता तथा रेत खदान, जलपरिवहन की निष्पक्ष समीक्षा के बाद ही आगे की नीति तय करने को एक जरूरी कदम के रूप में चिन्हित किया गया था। क्या हुआ ? क्या सरकार ने फरक्का से इलाहाबाद तक बैराज और जलपरिवहन की प्रस्तावित परियोजना पर पुनर्विचार करने की जहमत् उठाई। नहीं, बल्कि खबर है कि सरकार ने जलमार्ग परियोजना को फरक्का से पटना के निकट बारा से आगे बढ़ाकर इलाहाबाद तक एक राष्ट्रीय जलमार्ग के रूप में अमलीजामा पहनाना तय कर लिया है। दुर्भाग्य है कि बिहार चुनाव में गंगा की दुर्गति का यह इंतजाम, चुनावी मुद्दा नहीं है।

क्या मूर्ति विसर्जन संबंधी आदेश लागू हो सके ?

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने गंगा-यमुना में मूर्तियों के विसर्जन पर रोक का आदेश दिया। क्या उत्तर प्रदेश के धर्म समाज ने इस आदेश की पालना हेतु कोई व्यापक पहल की ? उङीसा प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सभी जिलाधीशों को पत्र लिखकर मूर्ति विसर्जन हेतु अपने मार्गदर्शक कायदों से अवगत् कराया है। प्रशासन से यह सुनिश्चित करने को कहा है कि विसर्जन की वजह से कोई जलसंरचना प्रदूषित न होने पाये। इसी बीच राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने भी यमुना में प्लास्टर आॅफ पेरिस से बनी मूर्तियों के विसर्जन पर इस माह से रोक लगा दी है। क्या हुआ ? बीते 18 सितम्बर को विश्वकर्मा पूजा के दिन हर तरह की मूर्ति का विसर्जन हुआ। यमुना के घाट पाॅली तथा अन्य कचरे से भर गये। यमुना सिसकती रही, भक्त चले गये विश्वकर्मा जी की जय बोलते हुए।

’दिल्ली उद्घोषणा’ की लाज रखने का वक्त

एक वर्ष पूर्व दिल्ली उद्घोषणा में बहुत कुछ बताया, सुनाया और सिखाया गया था। सभी को यहां एक लेख में शामिल करना व्यावहारिक नहीं हैं; फिर भी मैं बार-बार प्रथम भारत नदी सप्ताह के निष्कर्षों के रूप में जारी ’दिल्ली उद्घोषणा’ का उल्लेख एक खास मकसद से कर रहा हूं। मकसद यह है कि वर्ष 2015 के अंतर्राष्ट्रीय नदी दिवस पर हम इतना तो सोचें कि पिछले वर्ष 2014 में की महत्वपूर्ण कवायद से हमने जो कहा, जो सीखा; उसे कितना अपनाया। गौर कीजिए कि कहने और सीखने वालों में वर्तमान जल संसाधन, नदी विकास और गंगा पुनर्जीवन मंत्री सुश्री उमा भारती और पूर्व वन एवम् पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश भी थे।

सुश्री उमा भारती ने कहा था – ’’ यदि हम अपनी नदियों को बचाना चाहते हैं, तो हमारा सबसे पहला कदम यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि बिना शोधन किया हुआ पानी या सीवेज, शोधित किए हुए पानी व नदी में मिश्रित न होने पाये।’’ क्या भारत के सभी जल-मल शोधन संयंत्रों, नालांे और फैक्टिरियों ने यह सुनिश्चित किया ?
उमा जी ने भारत नदी सप्ताह को आश्वस्त किया था कि नदियों के लिए ’न्यूनतम पर्यावरणीय प्रवाह’ सुनिश्चित किया जायेगा। क्या भारत की किसी एक भी नदी में शासकीय तौर पर यह सुनिश्चित किया गया ?

उमा जी ने यह भी कहा था कि नदी जोङ परियोजना अध्ययन के बाद यदि पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय समस्या का निष्कर्ष सामने आया, तो नदी जोङ परियोजना को आगे नहीं बढ़ाया जायेगा। प्रख्यात अध्ययनकर्ता हिंमाशु ठक्कर ने कृष्णा-गोदावरी नदी जोङ का सच सामने लाने की कोशिश की है। क्या उमा जी ने गौर किया ?

उमा जी, अपने कहे पर आगे बढ़कर दिखायें। जयराम रमेश, पर्यावरण मंत्री के तौर पर पूर्व में दिखाये अपने तेवरों को कांग्रेस शासित वर्तमान प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों, जलसंसाधन, सिंचाई व पर्यावरण मंत्रियों को सीखा सकें। झारखण्ड के मुख्यमंत्री ने जो नदी और तालाबों की कब्जा मुक्ति को लेकर जो घोषणा की थी, उसकी पालना सुनिश्चित करें। उ. प्र. सरकार के मुख्यमंत्री, सिंचाई व जलसंसाधन मंत्री तथा संबंधित आला अफसरों ने जल संरचनाओं को कब्जा मुक्त करने और गोमती और हिंडन नदी की प्रदूषण मुक्ति का संकल्प कई बार दोहराया है। वे बतायें कि इन संकल्पों को पूरा करने के लिए उन्होने अब तक क्या किया है। उत्तराखण्ड मुख्यमंत्री ’हिमालय दिवस’ घोषणा का मान रखें। नदी के कार्यकर्ताओं को भी चाहिए कि वे ’दिल्ली उद्घोषणा’ की अनुपालना कर, अपनी स्थानीय छोटी नदियों को जीने का अधिकार लौटाने में लग जायें; इस अंतर्राष्ट्रीय नदी दिवस पर नदियों को इतनी सौगात काफी होगी। किंतु क्या ’दिल्ली उद्घोषणा’ के एक वर्ष बाद भी यह होगा ? यह प्रश्न मेरे लिए भी है और आपके लिए भी।
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