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व्यंग्य/महंगाई डायन के नाम एक खुला खत

गिरीश पंकज

जन-जन जिसके नाम से खौफ खाता है। जिसका नाम सुनते ही भयंकर ठंडी में भी पसीना आ जाता है, ऐसी हे महंगाई डायन, तुमको तो दूर से ही प्रणाम। हमने सुना है, कि डायन कम से कम एक घर तो छोड़ ही देती है। तुमसे करबद्ध प्रार्थना है कि तुम इस देश को एक घर मान कर यह देश ही छोड़ दो और विदेश में किसी सम्पन्न राष्ट्र में जा कर अपना डायनत्व दिखाओ। चीन ही चले जाओ न । वह काफी ऐश में है। खूब कैश है, सम्पन्नता है उसके पास। तुम वहाँ जा कर अपनी कैबरे-कला का प्रदर्शन करो। या अमरीका भी जा सकती हो। कहीं भी जाओ लेकिन हमारी जान छोड़ दो। हम समझ सकते हैं, कि तुम्हारी यहाँ के नेताओं, अफसरों, व्यापारियों और कालाबाजारियों से जबर्दस्त सेटिंग चल रही है। बड़ा याराना चल रहा है। इस कारण तुम्हारी और धनपशुओं की बल्ले-बल्ले है। हर जगह तुम्हारा नाम है और हमारा काम तमाम है। सेठ लोग तुम्हारी आरती उतार रहे हैं। जै-जै कार कर रहे हैं। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति भी उतनी सुर्खियों में नहीं रहते, जितनी कि तुम रहती हो। सुबह और शाम, बस तुम्हारा ही नाम है। लेकिन इस देश के गरीब अंगने में तुम्हारा क्या काम है? हे प्राणखादेश्वरी, पेट्राल-डीजल वालों को तुमने आपने कुछ ज्यादा ही प्यार दिया। रह-रह कर उनका घर भरती रहती हो। जब मन में आए, वे लोग पेट्रोल-डीजल के भाव बढ़ा देते हैं। बस इनके भाव बढ़े और दूसरी चीजों के भाव भी बढऩे लगते हैं। देश की दु:खी जनता आपसे अनुरोध करती है, कि इन पेट्रालियम वालों के दिमाग को तनिक फेर दो ताकि ये कीमतें घटा दें। व्यापारियों की साजिश समझ। मौका भर मिलना चाहिए कीमतें बढ़ाने का। ये धनपिपासु कीमतें घटाएँगे तभी तो दूसरी बहुत-सी चीजों के भाव भी घटते चले जाएंगे। पेट्राल की कीमत बढ़ गई है, इसकी आड़ में कीमतें दो-चार गुना बढ़ा दी जाती हैं। घर से आदमी तेजी के साथ निकलता है कि महँगाई न बढ़े पर हद है तेरी गति, आदमी बाजार पहुँच भी नहीं पाता कि तू पहले से धमक जाती है। तू मुसकराते हुए गाती है, ‘अजी हमसे बचकर कहाँ जाइगा,जहाँ जाइगा, हमें पाइएगा’।

हे रहस्यलोक की विश्व सुंदरी, हम लोगों के दर्द को तुझसे बेहतर भला और कौन समझ सकता है। सरकार भी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए। हर कोई सरकार को कोस रहा है। नेताओं को गरिया रहा है। बेचारे अपना मुँह छिपाए फिर रहे हैं। ये घोटालेवीर चैन से घोटाले भी नहीं कर पा रहे हैं। जब देखो जनता महंगाई-महंगाई चिल्लाती रहती है। कुरसी का जीना हराम हो गया है। इसलिए वह भी तुझे कोस रही है। हे सुमुखी, (पाठको, ऐसा कहना पड़ता है वरना और अधिक नाराज हो गई तो दिक्कत में भी परेशानी वाली बात हो जाएगी…) तेरे कारण समाज में अब वर्गभेद पनपने लगा है। लोग अपनी अमीरी का खुले आम प्रदर्शन करके दूसरे को जला रहे हैं। लोग प्याज खरीदते हैं और उसे अपने पारदर्शी झोले में रख कर लाते हैं। पहले मोहल्ले में दो-तीन चक्कर लगाते हैं फिर घर के भीतर प्रवेश करते हैं ताकि वे रौब गाँठ सकें कि देखो, इस कमरतोड़ महंगाई के दौर में भी हम प्याज खा रहे हैं। रोज प्याज खरीदने वाले की सामाजिक हैसियत बढ़ गई है। लोग समझ जाते हैं, कि अगले के पास कोई गढ़ा खजाना हाथ लगा है, तभी तो प्याज खरीदता रहता है। लोग एक-दूसरे का जलाने-कुढ़ाने का काम करने लगे हैं और यह सब तेरे कारण हो रहा है।

हे बदनउघारू हीरोइन की सगी बहन और महान विषकन्या, हम समझ रहे हैं, कि तू किनके इशारे पर खेल कर रही है। उन लोगों सेभी इस देश की जनता निपटेगी, मगर उसके लिए अभी समय नहीं आया है। राजनीति कलमुँही ऐसा ही करती है। जब आम चुनाव से बहुत दूर रहती है तब जनता की छाती पर सवार हो जाती है। तरह-तरह के अत्याचार करती है। तेरे साथ रोमांस जारी रहता है। यानी महंगाई बढ़ती है तो बढऩे दो। पुलिस अत्याचार होता है तो होने दो। घोटाले होते रहते हैं। सकल करम होते हैं। लेकिन जैसे ही चुनाव की पावन बेला आती है, लोकलुभावन नारे सामने आने लगते हैं। महंगाई कम होने लगती है। तू जालिम कहीं जा कर छिप जाती है। इस कुरसी और तेरे खेल बड़े निराले हैं। ये सब खेल चलते रहेंगे, मगर तुझसे गुजारिश है कि हम पर रहम कर, बहुत हो गया। अब तो कहीं और जा कर मुँह काला कर। हमारी बात का बुरा मत मान। जब दिल दुखी रहता है तो जीभ बहकने लगती है।अगर हमने तुझे ऐसा-वैसा कुछ कह दिया है तो तू नाराज होकर और निर्वसन नृत्य करने लगना। तू अब पलायन कर जा। वरना इस देश में लूट-पाट की नौबत आ जायेगी। चोर लोग प्याज की बोरियाँ चुराने लगे हैं। दहेज में प्याज का ट्रक माँगा जा रहा है। तो हे महँगाई माई, तुझे डायन कहना ठीक नहीं, इसलिए हे महंगाईदेवी तुझसे करबद्ध प्रार्थना है कि अब तू किसी पतली गली से निकल और हमें चैन से जीने-खाने दे। एक घर छोड़ दे, तू ये देश छोड़ दे। एक बार तो हमारा कहा मान ले।

विनीत-

हम सब महंगाई-पीड़ित आमजन.

महंगाई की सुनामी में फंसा देश

सतीश सिंह

पिछले साल के 25 दिसम्बर को मंहगाई साल के उच्चतम स्तर 18.32 फीसदी तक पहुँच गई थी। ‘करैला और नीमचढ़ा’ वाले कहावत को चरितार्थ करते हुए सरकारी तेल कंपनियों ने कच्चे तेल की कीमत में इजाफा होने का बहाना करते हुए नए साल के पहले महीने में फिर से पेट्रोल की कीमत में 2.5 से 2.54 रुपये तक की बढ़ोतरी की है। जाहिर है कि मंहगाई को कम करने का सरकार का हर प्रयास विफल हो चुका है।

दूध-सब्जी जैसे खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ने से आज की तारीख में मंहगाई बेलगाम हो चुकी है। सरकार ने पूरी तरह से हथियार डाल दिया है और बौखलाहट में अतार्किक बयान दे रही है। सरकार कह रही है कि मंहगाई पर काबू सिर्फ कृषि उत्पादों की उत्पादकता को बढ़ाकर किया जा सकता है, जबकि जगजाहिर है कि खाद्य पदार्थों की कीमतों में उछाल जमाखोरों और कालाबाजारी के कारण आया है।

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कार्यालय भी इस बात से इत्तिफाक रखता है कि मुद्रास्फीति में उफान आने का मूल कारण सब्जियों और फलों की कीमतों का आसमान छूना है। पीएमओ कार्यालय यह भी मानता है कि चूँकि ऐसे खाद्य उत्पादों का बहुत दिनों तक भंडारण नहीं किया जा सकता है, इसलिए मंहगाई पर फिलहाल काबू पाना सरकार के वश में नहीं है।

वित्त मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी का भी मानना है कि आर्थिक मोर्चे पर मंहगाई एक चुनौती है और इसको बढ़ाने में मुख्य योगदान प्याज, लहसुन, दूध, फल, सब्जी और अन्यान्य खाद्य पदार्थों का रहा है। प्याज का भाव 22 महीनों के उच्चतम स्तर पर पहुँच चुका है। इसकी कीमत 100 फीसदी से भी अधिक बढ़ चुकी है।

वैसे सरकार इस मुद्दे पर चुप नहीं है। उसने मंहगाई को कम करने के लिए अनेकानेक घोषणाएँ की है, मसलन नैफेड और मदर डेरी के माघ्यम से प्याज 35 रुपये किलो (सब्सिडायज्ड) दर पर बेचा जाएगा, आयात और निर्यात को नियंत्रित और उदार बनाया जाएगा, जमाखोरों और कालाबाजारी करने वाले व्यापारियों और दलालों के खिलाफ सख्त कारवाई की जाएगी, राज्य की एजेंसियों के द्वारा खाद्य पदार्थों को खरीदने का निर्देश जारी किया जाएगा, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को और भी मजबूत बनाया जाएगा, बागवनी उत्पादों को एपीएसी कानून से बाहर किया जाएगा, अनाज और दूध-सब्जी के वितरण प्रणाली को और मजबूत किया जाएगा तथा केबिनेट सचिव की निगरानी में सचिवों की समिति नियमित तौर पर खाद्य पदार्थों की कीमतों की समीक्षा करेगी।

सरकार की योजना किसान मंडी और मोबाईल बाजार स्थापित करने की भी है। केन्द्र सरकार राज्यों से मंडी टैक्स, चुंगी तथा अन्यान्य प्रकार की शुल्क को कम करने के लिए जल्द ही निर्देश देने वाली है। महानगरों की जनता को राहत देने के लिए सरकार ने फल और सब्जियों के खुदरा दुकान खोलने के लिए निजी क्षेत्र के बड़े उद्यमियों से अपील की है। यहाँ विडम्बना यह है कि व्यापारियों को ही मुख्य रुप से मंहगाई को बढ़ाने के लिए जिम्मेवार बताया जा रहा है। सरकार 1000 टन प्याज आयात करने के बारे में भी विचार कर रही है, किन्तु प्याज के आयात की जरुरत को नैफेड जरुरी नहीं मानता है। इस विरोधाभास पूर्ण स्थिति पर सरकार चुप है। उल्लेखनीय है कि नैफेड सरकार की ही एक एजेंसी है। बावजूद इसके फिलवक्त पाकिस्तान से प्याज का आयात किया जा रहा है।

हाल ही में दिल्ली के आजादपुर सब्जीमंडी पर आयकर विभाग के द्वारा छापे मारने के बाद व्यापारियों ने हड़ताल कर दी थी। ज्ञातव्य है कि आयकर विभाग की टीम पर व्यापारियों ने हमला बोल दिया था। आयकर कर्मचारियों को पुलिस का संरक्षण लेना पड़ा था। इस घटना से साफ हो जाता है कि या तो हमारी सरकार कमजोर है या फिर वह व्यापारियों की यूनियन के सामने घुटने टेक चुकी है।

दूसरा वाकया भी दिलचस्प है। हाल ही में खाद्य उत्पादों की बढ़ी कीमत पर हुई बैठक में देश के गृह मंत्री श्री पी चिदंबरम और खाद्य और कृषि मंत्री श्री शरद पवार 5 लाख टन चीनी निर्यात के अनुबंध से होने वाले खुदरा कीमतों एवं चीनी अर्थव्यवस्था पर असर को लेकर बहस-मुबाहिस कर रहे थे। किसी भी मुद्दे पर विचार-विमर्श करना तो अच्छी बात है, लेकिन अतार्किक बहस कभी भी फायदेमंद नहीं हो सकता है। सचमुच, इस तरह की नकारात्मक स्थिति का सरकार के काबीना मंत्रियों के बीच पनपना देश के भविष्य के लिए बेहद ही खतरनाक है।

मुद्रास्फीति को कम करने के लिए रिजर्व बैंक इस महीने के अंत में होने वाली मौद्रिक नीति की समीक्षा में फिर से ब्याज दरों में बढ़ोत्तारी का रास्ता साफ कर सकती है। ताकि मंहगाई पर कुछ हद तक लगाम लगाया जा सके। वित्ता मंत्री श्री प्रणव मुखर्जी भी जल्द ही राज्यों के वित्ता मंत्रियों के साथ बैठक कर पुनष्च: मंहगाई को कम करने के उपायों के बारे में चर्चा करने वाले हैं।

सरकार द्वारा उठाए गए हालिया कदमों के बावजूद क्रिसिल से जुड़े आर्थिक विशेषज्ञ श्री सुनील सिन्हा का मानना है कि सरकार ने जो भी कदम उठाये हैं वे पूरी तरह से नाकाम हो चुके हैं।

उदाहरण के तौर पर एक तरफ सरकार नैफेड और मदर डेरी के माध्‍यम से प्याज 35 रुपये किलो बेचने का दावा कर रही है तो दूसरी तरफ प्याज नैफेड और मदर डेरी दोनों जगहों पर 35 किलो की दर से आम नागरिकों के लिए उपलब्ध नहीं है। मोबाईल वैन के द्वारा एनसीआर में प्याज बेचने की दिल्ली सरकार की योजना भी असफल हो चुकी है। सच कहा जाए तो प्याज बेचते मोबाईल वैन को एनसीआर में किसी आम आदमी ने अभी तक नहीं देखा है।

एनडीए तो मंहगाई को लेकर बार-बार यूपीए सरकार पर हमला कर ही रही है। आम लोगों का हमेशा से सबसे बड़ा हिमायती बताने वाले वाम ट्रेड यूनियनें भी बेकाबू मंहगाई को लेकर बेहद चिंतित हैं। इनका मानना है कि वायदा कारोबार के कारण ही मंहगाई पर काबू पाना मुश्किल हो गया है। लिहाजा इस पर रोक लगाना सबसे अहम है।

हालांकि व्यावहारिक तरीके से इस मुद्दे पर विचार करने पर मंहगाई का मूल कारण आसानी से समझ में आ सकता है। हम यह नहीं कह सकते हैं कि राहत पैकेज और बाजार में नगदी की ज्यादा उपस्थिति के कारण मंहगाई बढ़ी है।

कृषि उत्पादों की कमी को भी कुछ हद तक ही जिम्मेदार माना जा सकता है। यह ठीक है कि केन्द्र और देश के सभी राज्यों में अनाज या सब्जी भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं है। फिर भी हम इसे मंहगाई के लिए महत्वपूर्ण कारण नहीं मान सकते हैं।

हकीकत तो यह है कि आज भी हमारे देश में जमाखोरों और कालाबाजारी करने वाले दलालों की चाँदी है। अस्तु मंहगाई पर नियंत्रण मंडी व्यवस्था में सुधार लाकर और जमाखोरों पर नकेल कसकर ही किया जा सकता है।

मंडी व्यवस्था में व्याप्त खामियों की वजह से खुदरा बाजार तक पहुँचते-पहुँचते खाद्य पदार्थों की कीमत आसमान को छूने लगती है। इस कीमत को बढाने का काम करते हैं बिचौलिए या दलाल। कभी-कभी सरकार द्वारा आरोपित कर व शुल्क के कारण भी खाद्य पदार्थों की कीमत बढ़ जाती है।

आष्चर्यजनक रुप से प्याज के मामले में ऐसा नहीं हुआ। अचानक ही दलालों और वायदा कारोबार करने वाले व्यापारियों ने प्याज की कीमत को 70 से 80 रुपये किलो तक पहुँचा दिया। कभी हर्षद मेहता भी अपनी ऊंगलियों पर शेयर बाजार के सूचकांक को नचाता था। आज वही काम कोई एक खाद्य व्यापारी या सभी व्यापारी सम्मिलित रुप से मिलकर कर रहे हैं। जिसको जहाँ भी मौका मिल रहा है, वह वहीं प्याज की कालाबाजारी कर रहा है। इस संबंध में मीडिया की भूमिका भी नकारात्मक रही है।

अर्थशास्त्र का सामान्य सा सिंध्दात है कि किसी भी उत्पाद का मूल्य कम करने के लिए उसका उत्पादन बढाना जरुरी है। लेकिन इसके साथ-साथ यह भी जरुरी है कि उत्पादित उत्पाद का 100 फीसदी उपभोक्ता तक पहुँचे।

हमारे देश में विसंगति यह है कि कोई भी चीज 100 फीसदी गंतव्य स्थल तक कभी भी पहुँच नहीं पाती है। कभी राजीव गाँधी ने भी इस तथ्य को माना था। अपने शासनकाल के दौरान उन्होंने कहा था कि 1 रुपये में मात्र 10 से 15 पैसे ही हितग्राही तक पहुँच पाते हैं।

आज राजीव गांधी की धर्मपत्नी सोनिया गांधी अप्रत्यक्ष रुप से यूपीए सरकार की सर्वेसर्वा हैं। अगर वे राजीव गांधी द्वारा बताए गए विसंगति को दूर करने का प्रयास करती हैं तो स्वत:-स्फूर्त तरीके से मंहगाई पर काबू पाया जा सकता है।

जितना कृषि उत्पाद का उत्पादन हो रहा है, उसे जनसंख्या के अनुपात में कम जरुर कहा जा सकता है, लेकिन वह इतना भी कम नहीं है कि उसकी कीमत 70 से 80 रुपये तक पहुँच जाए। मंहगाई की मार झेलते हुए नौकरी पेशा और मध्यम वर्ग किसी तरह गुजर-बसर कर भी लेंगे, किन्तु मनरेगा की मजदूरी से कैसे किसी का पेट भरेगा ?

आकाश का दुलार

-चैतन्य प्रकाश

शिखर और सागर दोनों मनुष्य को आनंदित करते हैं मनुष्य की लगभग सारी यात्राएं शिखरों और सागरों की ओर उन्मुख रही हैं। मानवी सभ्यता के दो आत्यंतिक उत्कर्ष बिन्दुओं-धर्म और विज्ञान के विकास में शिखर और सागर सदैव प्रमुख सहयोगी रहे हैं।

किसी शिखर (पहाड़) की तलहटी से या सागर के तट से आंखें पसार कर आकाश को देखना बेहद आनंदित करता है, यों लगता है जैसे आकाश हमें गोद में उठाने के लिए तत्पर खड़ा है, लगभग ऐसे ही जैसे आंगन में खेलते छोटे बच्चे को उठाने के लिए पूर्णकाय पिता उपस्थित हो।

आकाश का ऐसा दुलार घर, नगर, गली, मोहल्ले में मिलना मुश्किल होता है। किसी तलहटी या सागर तट से धरती की नगरीय बसावट को देखने से हैरत होती है। सुंदरता की प्यास को जाने-अनजाने हर कहीं बयान करने वाला इंसान इतनी बेतरतीब बसावट का निर्माता क्यों है?

नगरीय बसावट की इस बेतरतीबी को यदि भीतर आकर देखा जाए तो आर्थिक, सामाजिक विषमताओं के अतिरिक्त ‘अपनी ढपली अपना राग’ की प्रवृत्ति एक प्रमुख कारक की तरह सामने आती है। यों लगता है जैसे मनुष्य घेरों में घिरे रहने के लिए अभिशप्त है। उसका यह ‘घिरा’ रहना उसकी अपनी भाषा में घर हो जाता है मगर सृष्टि के सौंदर्य के संदर्भ में यह एक कुरूपता निर्मित करता है।

सारे गङ्ढे, तालाब, पोखर लबालब होकर भी वह सौन्दर्य उत्पन्न नहीं कर पाते हैं जो एक मंद-मंद बहती नदी कर पाती है। वास्तव में सौंदर्य और पवित्रता का पर्याय बन कर नदियां इसीलिए पूज्य रही हैं क्योंकि उनमें अखंड प्रवाहमयता है। मनुष्य का ‘घिरा’ रहना उसे गङ्ढे, तालाब, पोखर की तरह कुरूप एवं अस्वच्छ बनाता है, मगर प्रकृति उसे निरंतर प्रवाहित करने के लिए उत्सुक है, इसीलिए मनुष्य घिरा रहकर जी नहीं पाता है।

अन्तर्निर्भरता उसके जीवन की प्रमुख शर्त है। इस कारण वह संबंध बनाता है, तदंतर सामाजिक बनता है। संबंधित होकर मनुष्य प्रवाहित होता है, परिणामत: उसमें सौंदर्य और पवित्रता का प्रकटीकरण होता है। निरंतर संबंधों में अपने स्नेह और प्रेम की ऊर्जा से प्रवाहित रहने वाला मनुष्य ‘घिरा’ रहने के अभिशाप से मुक्त होकर ‘अखंड प्रवाहमयता’ के वरदान को पा जाता है।

फिर वह विषमताओं की खाइयों को भी पाट पाता है और अलग-अलग ढपलियों में समवेत् स्वर लहरी का सा राग भी उठा पाता है। तब सचमुच वह व्यष्टि होकर भी समष्टि के व्याप को भीतर समाहित पाता है, फलत: उसे तरतीब बनाने के लिए आयोजन नहीं करना पड़ता, वह संबंधों की सूत्रात्मकता के सिलसिले में इस तरह खड़ा होता है कि समग्र का सहज हिस्सा हो जाने का उसका समर्पण ही सौंदर्य उत्पन्न करता है।

इन दिनों टेलीविजन धारावाहिकों में संबंधों की कुरूपता का बेहद चित्रण है, आम आदमी को यह नकारात्मक अतिरंजना लगता है। ये कथानक काल्पनिक हैं, मगर वास्तविक की तरह दिखाए जा रहे हैं। धारावाहिकों में चित्रित ये संबंध अपने-अपने अहं के गङ्ढों को भरने की नैतिक-अनैतिक कोशिशों के परिणाम हैं। अहं के गङ्ढों की अभिव्यक्ति के रूप में बने ऐसे सभी संबंध नगरीय सभ्यता के घरों (मकानों) की तरह बेतरतीब हैं, इसलिए असुंदर एवं अपवित्र हैं।

यहां नजरें और नजरिए तंग हैं, यहां आकाश को भरपूर आंखों से देखने की फुर्सत और गुंजाइश ही नहीं है तो उसका दुलार कैसे मिले? ये तमाम संबंध ‘घिरे रहने’ के अभिशाप को भोगने जैसे मारक हैं। ये खंड-खंड बंटे मनुष्य के आपसी तनाव और कलह की सूचना है।

इस खंड-खंड अलगाव को जोड़कर अखंड प्रवाहमय सृष्टि के सेतु की तरह प्रकट होने वाले संबंधों से समाज और सभ्यताओं की जीवंतता परिलक्षित होती है। हमारे संबंध परस्पर पोषक और प्रेरक होंगे तो हमारे जीवन भी सुंदर होंगे और नगर भी।

तब शिखर की तलहटी और सागर के तट से धरती को देखना भी सुखद होगा, कि हमारे नगर फूलों की बगिया जैसे स्वाभाविक सिलसिले की तरह होंगे, वे एक दूसरे से ऊपर-नीचे, आगे-पीछे, बड़े-छोटे होने की स्पर्धाओं के बजाय परस्पर सहज साथी, संबंधी होने की आकांक्षा का परिणाम होंगे और तब हमारे घर, नगर, गली, मोहल्ले के प्रांगण से भी आकाश का, परमपिता (परमात्मा) का दुलार हमें सहज उपलब्ध हो सकेगा। हम उसका आशीष पाकर धन्य हो सकेंगे।

भारत के अनुकूल हो व्यवस्था

(क्या भारत में संसदीय लोकतंत्र असफल सिद्ध हो रहा है- परिचर्चा के संदर्भ में)

-के. एन. गोविंदाचार्य

भारत में संसदीय प्रजातंत्र असफल है या नहीं, इस पर विवाद हो सकता है लेकिन यह तो अत्यंत साफ दिखाई देता है कि राजसत्ता के संचालन का देश की गति और दिशा से कोई तालमेल नहीं है।

राजसत्ता के अंग अपनी प्रेरणा और दिशा से चल रहे हैं जिसका देशहित या समाजहित से कोई संबंध नहीं है। संयोगवश कभी-कभी राजसत्ता से कुछ समाजहित सध जाता है। परंतु यह व्यवस्था भारत जैसे पारंपरिक देश के लिए अपर्याप्त है।

इस संचालन व्यवस्था में भारत का मतलब केवल 30 करोड़ लोग ही हैं, शेष 75 करोड़ लोगों के बारे में किसी सोच का इसमें अभाव है। यदि कोई सोच दिखती भी है तो केवल शाब्दिक स्तर पर ही। व्यावहारिक स्तर पर तो वंचित वर्ग और वंचित होता जा रहा है। लोकतंत्र में लोकेच्छा अभिव्यक्त होनी चाहिए लेकिन वह अभिव्यक्त नहीं हो पा रही है। लोक पर तंत्र हावी है। इसलिए एक अतिरिक्त वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता अनुभव हो रही है जिससे वंचित वर्ग के हितों की रक्षा हो सके।

भारत में इस व्यवस्था के लोक से अलग होने का प्रमुख कारण इसकी वह पृष्ठभूमि है जहां से यह व्यवस्था ली गई है। पश्चिम में पिछले दो-ढ़ाई सौ वर्षों से जो सामाजिक स्थितियां रही हैं, उसमें व्यक्ति का केवल राज्य से रिश्ते को ही प्रमुखता दी गई है। व्यक्ति, परिवार, जाति, समुदाय, संप्रदाय आदि की भी अपनी सत्ता है, इसका न तो उन्हें अहसास है न अनुभव। इसलिए व्यक्ति को सबसे कटा हुआ और केवल राज्य से जुड़ा हुआ मानते हैं।

भारत के पारम्परिक समाज में एक व्यक्ति केवल एक व्यक्ति नहीं होता। उसके परिवार के रिश्ते, जाति, संप्रदाय, भाषा आदि भी उस पर प्रभाव डालते हैं। उम्र, लिंगभेद, समाज में अच्छे-बुरे की पहचान आदि भी उस पर प्रभाव डालते हैं। इसलिए एक आदमी एक वोट की आज की व्यवस्था उस लोकेच्छा को अभिव्यक्त नहीं कर पाता।

यह व्यवस्था केवल सत्ता में हिस्सेदारी का रास्ताभर ही है। इस रास्ते पर चलने की इच्छा रखने वालों के मन में यह इच्छा जग जाती है कि सत्ता की हिस्सेदारी समाज की बजाय उनके लिए ही हो। फलत: पूरी राज्यसत्ता, सत्ता के पूरे तंत्र में लगे हुए लोगों के स्वार्थ साधन में उपयोगी बन जाती है। शेष समाज उससे अलग-अलग, कटा हुआ अनुभव करता हुआ, थोड़ा कुंठित और थोड़ा नाराज रहता है। यदि स्थिति दिखाई पड़ती है।

व्यक्ति में इयत्ताएं सार्वभौतिक होने के बावजूद भारत और पश्चिम की इयत्ताओं में फर्क है। भारत में जाति, भाषा, संप्रदाय का व्यक्ति पर जो प्रभाव है, उसकी तुलना पश्चिम की प्रतिक्रियावादी मानसिकता से उभरी इयत्ताओं से नहीं की जा सकती। यहां सभी इयत्ताएं परस्पर पूरक और सर्व समावेशक हैं, सबको साथ लेकर चलने वाली हैं, वहां ये इयत्ताएं एकांतिक और अलग-अलग हैं।

जैसे, परिवार संस्था की जो पहचान और संबंधों की निरंतरता व गहराई जितनी भारतीय समाज में पाई जाती है, उतना अन्य समाजों में नहीं मिलती। इसी प्रकार विवाह की जो मर्यादा भारतीय समाज में है, वह पश्चिमी समाज में नहीं है। इसलिए इयत्ताओं की गहनता समान नहीं है।

पश्चिमी समाज और विशेषकर यूरोप में जनसंख्या का स्थानांतरण और मारामारी 78 सौ वर्ष तक इतनी अधिक रही कि उन्हें परंपरा नाम की चीज का अहसास कम होता है। भारत मे परंपरा की निरंतरता अधिक गहरी है। इसलिए यहां जो वैकल्पिक व्यवस्था बने, उसमें व्यक्ति की बजाए परिवार को एक इकाई मान जाना चाहिए।

उसके कई तरीके हो सकते हैं। तरीके बाद में भी ढूंढ़े जाते रहें, क्योंकि भारतीय समाज में पिछले ढाई सौ वर्षों में सोच, ढांचे और तौर तरीकों के संदर्भ काफी कुछ बाहर से थोपा गया है जो न केवल हमारे लिए अनावश्यक है बल्कि नुकसानदेह भी है। यह ढाई सौ वर्षों का कूड़ा कचड़ा एक साल या दस साल में तो दूर होगा नहीं। बुद्धि और आत्मविश्वासपूर्वक अगर काम करेंगे तो 20-25 साल लगेंगे। इसमें भी आज हमने जो राजनीतिक व्यवस्था अपने ऊपर लाद रखी है, पहले इसमें कृमश: तात्कालिक बदलाव किया जाए और व्यापक, गहरे और दूरगामी बदलाव के बारे में बहस चले।

जैसे, क्या जरूरी है कि लोकसभा और राज्यसभा अलग-अलग हो। अब तो यह स्पष्ट हो गया है राज्यसभा के लोग राज्यों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। वे नाम के लिए ही किसी-किसी राज्य के बाशिंदे बन जाते हैं। तो ऐसा ही क्यों न किया जाए कि लोकसभा और राज्यसभा मिलाकर 1000 स्थान हों जिसमें 500 स्थान संस्था के आधार पर और शेष 500 स्थान विभिन्न क्षेत्रों के निगमों, निकायों या संगठनों द्वारा प्रेषित लोगों से भरे जाएं।

तब देश के अलग-अलग वर्गों के लोगों के हितों की अपेक्षाकृत अधिक चर्चा हो। नहीं तो अभी क्या हो रहा है कि चुनाव प्रणाली, भारतीय समाज और पारंपरिक समाज में नई अधकचरी व्यवस्था थोपे जाने के कारण एक ओर जहां सारी व्यवस्था जातिवाद, बाहुबल, धनबल आदि का शिकार हो रही है, वहीं दूसरी ओर अभावग्रस्त लोगों की चिंता कम हो रही है।

जब यह व्यवस्था नोट, वोट, बिखंडन और असंतोष के आधार पर चलेगी तो सही परिणाम कैसे दे पाएगी? मेरे विचार से इस व्यवस्था में क्रमश: सुधार हों। इस सुधार का एक सूत्र होगा धन और राजसत्ता का प्रभावी और परिणामकारी विकेंद्रीकरण और दूसरा सूत्र होगा परिवार जिसे अभी तक केवल सामाजिक और धार्मिक दृष्टि से एक इकाई माना गया है, को आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से एक इकाई की मान्यता देना।

इसको व्यावहारिक रूप देने के लिए सबसे पहले तो 49-51 की जगह पर बहुलायतन, सकलायतन अर्थात् आम सहमति की दिशा में बढ़ें। इसके लिए निर्वाचन प्रक्रिया में न्यूनतम 50 प्रतिशत वोट मिलना सुनिश्चित किया जाए। यदि किसी को 50 प्रतिशत वोट नहीं मिलते तो सभी प्रत्याशियों को अयोग्य घोषत करके फिर से चुनाव कराए जाएं। मतलब किसी भी तरह 50 प्रतिशत वोट मिलना सुनिश्चित किया जाए।

नीचे की इकाइयों के लिए 80 प्रतिशत वोट मिलना निश्चित किया जाए। तभी सर्वानृमति, आम सहमति की दिशा में बढ़ना संभव होगा। तब उस स्पर्धा की जगह सहयोग उस चुनाव का मंत्र बनेगा। इस प्रकार परिवार को राजनीतिक इकाई की मान्यता देने के लिए बहुबिध प्रयोगों की जरूरत है। यह भी जरूरी नहीं है कि सभी प्रदेशों में एक ही निर्वाचन प्रद्धति हो। अलग-अलग प्रयोग किए जाएं। उन प्रयोगों से मिले अनुभवों के आधार पर परिवर्तन किए जाएं। यह आसान प्रक्रिया नहीं है।

प्लेटो ‘रिपब्लिक’ पुस्तक लिख रहा था, उस समय भारत के अलग-अलग हिस्सों में 16 अलग-अलग प्रकार की राज्य व्यवस्था कारगर रूप से चल रही थीं। अत: कोई जरूरी नहीं है कि पूरे देश में एक ही व्यवस्था हो। केवल देश की एकता, अखंडता और सुरक्षा आदि की देख रेख के लिए व्यवस्था बनाएं। नए रास्ते ढूंढ़ने होंगे। नए रास्ते वही ढूंढता है जो आत्मविश्वास से भरा होता है। हम अपना नया रास्ता गढ़ सकते हैं क्योंकि हम पहले भी गढ़ चुके हैं।

यह अहसास कि दूसरे का रास्ता दूसरे के लिए उपयोगी हो तो जरूरी नहीं कि हमारे लिए भी उपयोगी हो और यदि हमारे लिए उपयोगी है भी तो उसके निरीक्षण, परीक्षण और समीक्षण की बुध्दि स्वाभिमान और आत्मविश्वास से ही आती है। विश्व के देशों को देखें तो फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड, अमरीका, रूस आदि देशों में लोकतंत्र की व्यवस्थाएं अलग-अलग प्रकार की हैं। यह किसने कह दिया कि अंग्रेजों का प्रारूप ही कारगर होने वाला प्रारूप है।

यह केवल आत्मविश्वासहीनता के भाव के कारण ही हमने माना हुआ है।

आज जो व्यवस्था चल रही है, वह न तो भारत की जनता द्वारा स्वीकृत थी और न ही भारत की जनता के हित को ध्यान में रखकर बनाई गई थी। आखिर जो संविधान हमने स्वीकार किया उस संविधान सभा की सदस्यता का आधार क्या था? 1936-37 में जो चुनाव हुआ था, उसमें वयस्क मताधिकार तो था नहीं। उस समय तो जिसके पास कुछ संपति वगैरह थी, वे ही वोट देते थे। उनके द्वारा ही चुने गए लोग संविधान सभा में थे। अत: देश के केवल 14-15 प्रतिशत लोगों का ही उसमें प्रतिनिधित्व था।

वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन राजसत्ता के अंदर से नहीं हो सकता। यदि राजसत्ता के अंदर से कुछ परिवर्तन प्रारंभ भी हों तो सत्ता उसे अपना सहभागी बना लेती है। इसलिए बाहर से जन-चेतना, जन समझ और जन सहमति बढ़ानी होगी। कोशिश इतनी ही हो कि सबकुछ अहिंसक ढंग से हो क्योंकि हिंसात्मक पद्धति से सच का आधा हिस्सा मर जाता है। इसलिए इतना परहेज रखते हुए आगे बढ़ना होगा।

हम अपने ढंग से अपने हितों के बारे में सोचें और अपनी समस्याओं का समाधान अपने ढंग से निकालें। इसकी आवश्यकता है।

सोमयाग : महत्त्व एवं प्राचीनता

सूर्यकांत बाली

सतयुग के भारतीयों का, चाहे वे आम लोग रहे हों या फिर राज परिवारों के लोग रहे हों, सोमयाग एक बहुत ही प्रिय यज्ञ रहा है। यज्ञ के नाम से जिस संस्था से हमारा परिचय रहा है वह क्रमश: काफी जटिल और महंगी होती चली गई थी। मनु महाराज ने जब प्रकृति के प्रति समर्पण की भावना से प्रेरित होकर यज्ञ नामक पद्धति की शुरूआत की थी, उसमें शुद्ध रूप से यही भाव निहित था कि जो प्रकृति हमें इतना दे रही है, हम भी उसे बदले में अपना कुछ दें।

अर्थात् वह हमारी रक्षा कर रही है, हमारा पालन-पोषण कर रही है, हमें जीवन दे रही है, हम भी उसकी रक्षा की सोचें, उसके स्वरूप को विकसित करें, उसके जीवन का विस्तार करें। बिना दूसरे के प्रति पूरी तरह समर्पित हुए हम उसके बारे में इस हद तक कहीं सोच सकते हैं भला?

अग्नि को प्रकृति का प्रतिनिधि मानकर, उसमें डाली जाने वाली आहुति को हमारे समर्पण भाव का प्रतीक मानकर जो यज्ञ शुरू हुआ उसमें क्रमश: फैलाव होता गया, विविधता आती गई, जटिलता आती गई। यानी, यज्ञ नामक एक सरल प्रक्रिया क्रमश: एक संस्था बन गई, कर्मकाण्ड बन गया। वैसा क्यों हुआ, यह निश्चित ही शोध और विचार का विषय है। पर प्रारम्भ में ही इस यज्ञ संस्था के साथ दो चीजें अचानक जुड़ गईं। एक ओर जहां अग्नि में आहुति डालते वक्त कुछ बोलना भी चाहिए, इस स्वाभाविक इच्छा की पूर्ति यजुष मन्त्रों की रचना और यज्ञों में उनके उच्चारण के रूप में हुई जो मन्त्र आगे चलकर यजुर्वेद में संकलित हुए, वहां सोमरस का भी आहुति के रूप में उपयोग काफी पहले शुरू हो गया। चूंकि जिसके प्रति पूरा समर्पण हो, लगाव हो उसे हम अपना अतिमहत्वपूर्ण, सर्वस्व दे देना चाहते हैं, इसलिए लगता है कि सोम का स्थान हमारे पूर्वजों के जीवन में काफी ज्यादा और काफी महत्वपूर्ण था कि यज्ञ संस्था के शुरू होते ही जो यज्ञ या याग सबसे पहले कुछ आकार ग्रहण कर सका उसका नाम था सोमयाग।

आज हम नहीं जानते कि सोम शब्द का अर्थ क्या है। इसलिए हम उसे कभी शराब तो कभी दूसरे नशीले पेय के साथ जोड़कर देखते हैं। ऐसा कुछ नहीं है। पर ऐसा कुछ न होते हुए भी सोम एक ऐसा पेय जरूर रहा होगा जो थकान दूर करने में मदद करता होगा और अत्यधिक प्रयोग में आने के बावजूद जो सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक रहा होगा। इसीलिए जहां अग्नि को कुछ समर्पित करने की इच्छा पैदा हुई तो सबसे पहली निगाह सोम पर पड़ी और सोमयज्ञ हमारा सबसे पहला यज्ञ बन गया।

जो हमें पसन्द है वह हमारे देवताओं को भी पसन्द है, इस आधार पर आगे चलकर हम मन्त्र पढ़कर देवताओं को सोम समर्पित करने लगे। क्रमश: जैसे यज्ञों में इन्द्र की स्तुति का महत्व बढ़ा तो कुछ ऐसी छवि बना दी गई कि इन्द्र को सोम बहुत पसन्द है। बात यहां तक बढ़ गई कि अन्तत: खुद सोम को ही एक देवता मानकर उसके बारे में मन्त्र लिखे जाने लगे और यह बात इस कदर रेखांकित हुई कि मुनि वेदव्यास ने जब वेदों को (आज उपलब्ध) अन्तिम आकार दिया तो उन्होंने ऋग्वेद के एक पूरे मंडल को, नौवें मंडल को ही सोम मंडल बनाकर सोम संबंधी तमाम सूक्त उसमें संकलित कर दिए।

तो क्या था सोम? जाहिर है कि वह सोमरस था, पर वह रस कैसे बनता था, इसकी जानकारी चाहिए तो ऋग्वेद के सोम संबंधी मन्त्र इसमें काफी सहायता करते हैं। ऋग्वेद का नौवां मंडल, जिसमें कुल मिलाकर 113 सूक्त सिर्फ सोम को लेकर ही लिखे गए हैं, सोम के बारे में जानकारी नहीं देंगे तो और क्या करेंगे? मसलन एक मन्त्र (9.5.4) कहता है कि सोम एक लता या एक घास जैसा है और काफी समय से देवताओं की बलप्राप्ति का साधन रहा है, बर्हि: प्रत्वीनमोजसा, पवमान: स्तृणान् हरि: देवेषु देव ईयते। जैसा कि इस मन्त्र में संकेत है, सोम की बेल हरे (हरि:) रंग की थी और यह बात नौवें मंडल में अनेक स्थानों पर लिखी है। पर कहीं-कहीं उसे भूरे या लाल रंग का भी कहा गया है। नौवें मंडल की मन्त्र संख्या 11.4 में उसके दोनों रंगों का उल्लेख है-बभ्रवे नु स्वतवसे, अरुणा दिविस्पृशे, सोमाय गाथमर्चत। सोम की बेल को बढ़ने के लिए पानी की भारी जरूरत रहती थी। इसलिए पहाड़ों पर यह बेल जमीन के अन्दर ही अन्दर कहीं बढ़ती रहती होगी अव्यो वारे परि प्रियो हरिर्वनेषु सीदति, रेभो वनुष्यते मती (9.8.6)।

सोम के इस हरे रंग की बेल को, जो कई बार पक कर भूरे या लाल रंग की हो जाया करती थी, पीसने का बड़ा ही सुन्दर वर्णन नौवें मंडल के मन्त्रों में मिलता है जिसका अर्थ इतना ही है कि सोम रस निकालने की इस प्रक्रिया में हमारे पूर्वज कितना मजा लेते रहे होंगे। सोम को हाथों की उंगलियों से ही पीसते और निचोड़ते थे। इन दस उंगलियों के कई तरह के अलंकारिक वर्णन इस नौवें मंडल में दिए गए हैं। इसे ऊखल में मूसल की मदद से और ग्राव यानी पत्थर पर कूटने के विवरण भी खूब मिलते हैं। चूंकि इस काम में दसों उंगलियों की जरूरत पड़ती है, इसलिए कहीं इन दस उंगलियों को सोम की माताएं तो कहीं इसकी बहनें कह दिया गया है।

सोम का रस निकालने के बाद इसमें दूध से बने पदार्थ और शहद मिलाकर इसे स्वादिष्ट बनाते थे, इसके भरपूर संकेत ऋग्वेद के नौंवे मंडल में मिल जाते हैं। मसलन यद् गोभिर्वासियिष्यसे (2.4) संगोभिर्वासियामसि (8.5) या मृजान: गोभि: श्रीणान: (119,17) सरीखे मन्त्रों में सोमरस में दूध से बने पदार्थों को मिलाने की बात है तो मन्त्र संख्या 5.10 में इसमें शहद मिलाने की बात कही गई है-वनस्पतिं पवमान मह्वासमंखि धारय। ऐसे सोमरस की बहती धार को देखकर हमारे पूर्वज खुशी से नाच उठते थे और धारा का ही वर्णन कर उसे कभी सहस्त्रधार तो कभी कुछ कहने लगते-सोम: पुनानो अर्षति सहस्त्रधारो अत्यवि: (9.13.1) पवनो वाजसातये सो न: सहस्त्रयाजस: (9.13.3) असर्जि वाजीतिर: पवित्रामिन्द्राय सोम: सहस्त्रधार: (9.109.19) इत्यादि।

सोम के इस तमाम वर्णन का मतलब या उद्देश्य आखिर क्या है? यह बताना उचित ही है कि सोमयज्ञ इसलिए हमारा पहला और सरल यज्ञ बना क्योंकि सोम की हमारे पूर्वजों के जीवन में कुछ खास जगह बन चुकी थी। ऐसा सोमरस मादक जरूर था और खुद ऋग्वेद उसे बार-बार वैसा कहता है-अभित्यम् मद्यं मदमिन्दो इन्द्र इति क्षर अभिवाजिनो अर्वत: (9.6.2)। पर जाहिर है कि न तो सोमरस शराब थी जो कि किसी भट्टी में या जमीन में गाड़ कर बनाई जाती है और न ही इसमें वैसा नशा था। पर नशा कुछ न कुछ था, इसके बारे में बहुत मिलता है। इन्द्र हमारे पूर्वजों का प्रिय देवता रहा है और किसी भी अन्य देवता की तुलना में इन्द्र को सोमरस बहुत प्रिय था, ऐसा बार-बार आता है।

बल्कि यहां तक कह सकते हैं कि अकेले इन्द्र को ही सोमरस इस कदर पसन्द था कि इस देवता को आगे चलकर ब्राह्मणग्रन्थों और पुराणों में बहुत ही घटिया चरित्र का और निरन्तर अप्सराओं के बीच रहने वाला बताया गया। ऐसे इन्द्र के तिरस्कार और परित्याग की शुरूआत तो द्वापर युग के अन्त में खुद कृष्ण ने ही कर दी थी, जिन्होंने इन्द्र पूजा को छोड़ गोवर्धन पूजा की परम्परा का सूत्रपात किया। बाद में लिखे गए ब्राह्मण ग्रन्थों और पुराणों में इसी धारणा को आगे बढ़ाया गया। अब ऐसे इन्द्र की भला कौन प्रशंसा करेगा जो सोम की तलाश में पागलों की तरह घूमता हुआ चिल्ला रहा है कि हाय, कहीं से सोम पीने को मिल जाए तो उसे पीकर मैं इस पृथ्वी को (एक गेंद की तरह) यहां पटक दूं या वहां पटक दूं- हन्ताहं पृथिवीमिमां, निदधानीहवेहवा, कुवित्सोमस्यापाम् (10.119.9)।

आज जैसी शराब न होने पर भी अगर सोमरस में नशा था तो उसका हश्र क्या हो सकता है, यह ऋग्वेद के आखिरी रचना-वर्षों में लिखे लब ऐष के ऊपर उद्धृत सूक्त (10.119) से और कृष्ण द्वारा एक झटके में इन्द्र की पूजा सफलता पूर्वक बन्द करवा देने की घटना से मालूम पड़ जाता है। पर चूंकि कभी सोमयाग, जो शुरू में सिर्फ सुबह से वक्त होता था, फिर बढ़ते-बढ़ते एक दिन, दो दिन, तीन दिन तक फैल गया, हमारे पूर्वजों का एक सहज, सरल और मनपसन्द यज्ञ था और सोमरस उनका मनपसन्द पेय, तो इस बारे में दो-एक जरूरी बातें और जान ली जाएं। ऋग्वेद (10.34.1) में ऋषि कवष ऐलूष ने महत्वपूर्ण सूचना देते हुए सोम को मौजवत (सोमस्येव मौजवतस्य भक्ष:) यानी मूजवान पर्वत से प्राप्त हुआ कहा है। तो सवाल है कहां है यह मूजवान पर्वत जहां से सोमबेल लाई जाती थी? चूंकि सोम नामक देवता हओम के रूप में पुराने ईरानियों में बहुत ज्यादा लोकप्रिय था, इसलिए शोधकर्ताओं ने इस पर्वत को भारत के पश्चिम (यानी पश्चिमोत्तर) में कहीं माना है।

पर सोमयाग से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण सन्दर्भ हम सबसे अन्त में कहना चाहते हैं। वेद में सोम को इन्दु कहा गया है। दोनों शब्द पर्यायवाची हैं। कोई गिनती करे तो शायद दोनों शब्दों का एक दूसरे के पर्यायवाची के रूप में लगभग बराबर प्रयोग वेद में हुआ होगा। दोनों इस हद तक पर्यायवाची हो गए कि जब इन्दु का अर्थ चन्द्रमा हो गया तो सोम का अर्थ भी चन्द्रमा हो गया। मसलन सोमवार यानी चन्द्रवार, जो रविवार यानी सूर्यवार के बाद आता है। जहां यह बेल मिलती थी वहां इसे सोम कहते थे और चूंकि हम इसको निचोड़ते थे इसलिए हम इसे इन्दु (निचड़ा हुआ) कहते थे। सोम बेल चूंकि भारत के बाहर से लाई जाती थी इसलिए जो लोग यहां से सोम लेने मूजवान पर्वत जाते थे उन्हें इन्दु खरीदने वाले या इन्दु कह दिया जाता होगा और यह बात बिल्कुल स्वाभाविक नजर आती है।

इस आधार पर कुछ शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि हम भारतीयों के लिए हिन्दू शब्द सिन्धु के आधार पर बाद में और इस इन्दु के आधार पर पहले ही चल पड़ा होगा। ठीक इसी आधार पर यह निष्कर्ष भी निकाला गया है (प्रा. ह. रा. दिवेकर, 1970) कि जिसे हम आज हिन्दूकुश पर्वत कहते हैं वही कभी मूजवान रहा होगा और हम इन्दुओं के सोमप्राप्ति के लिए वहां बार-बार जाने के कारण उसका नाम इन्दु के साथ जुड़ गया होगा।

बस इसमें एक ही आशंका बाकी बचती है। इन्दु के कारण हमारा नाम हिन्दू पड़ गया, यह बात समझ में आती है। बात यह भी समझ में आती है कि इस इन्दु के आधार पर मूजवान पर्वत इन्दुवान या हिन्दूवान बन गया हो। पर वह हिन्दूकुश कब बना? यहां कुश का अर्थ है संहार। यानी कभी उस पर्वत पर इन्दु लेने गए इन्दुओं ने वहां के लोगों का संहार किया या वहां के लोगों ने इन्दुओं का संहार किया जिससे तीन बातें हुई होंगी। एक पड़ाव का नाम हिन्दूकुश पड़ गया। दो, इस घटना के बाद इन्दु यानी सोम का भारत आना बन्द हो गया होगा और तीन, खरीददार न रहने से सोमबेल की देखरेख बन्द हो गई और वह लुप्त हो गई। ये सब अनुमान हैं, जो सही लगते हैं। पर सही ही हैं, इसके लिए शोध चाहिए। सोमयाग पर शोध हुआ तो निष्कर्ष इस हद तक महत्वपूर्ण होंगे।

मां नर्मदा सामाजिक कुंभ


गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा क्षिप्रा, गोदावरी, कावेरी जैसी पवित्र नदियों के किनारे ही सम्पूर्ण विश्व को अपने ज्ञान से आलोकित करने वाली सनातन संस्कृति ने जन्म लिया। इन नदियों के तटों पर ही आयोजित होने वाले कुम्भों में देश के कोने-कोने से संत व प्रबुद्धजन एकत्र होकर काल, परिस्थिति का समग्र विश्लेषण करने के साथ समाज का मार्गदर्शन करते हैं।

आज देश के सामने अनेक संकट खड़े हो गए हैं। आतंकवाद, अलगाववाद चरम सीमा पर है। विधर्मी मतान्तरण का कुचक्र चला रहे हैं। समाज को अपनी आस्थाओं के प्रति दृढ़ बनाना आज की आवश्यकता है। समाज में समरसता निर्माण हो तभी संपूर्ण राष्ट्र की एकता संभव है। इन सभी विषयों को ध्यान में रखकर मां नर्मदा के पावन तट पर मां नर्मदा सामाजिक कुंभ 10 से 12 फरवरी 2011 माघ शुल्क सप्तमी, अष्टमी एवं नवमीं को संपन्न होगा।

विस्तार क्षेत्र

इस कुंभ में मध्यभारत, महाकोशल, मालवा, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, काशी, गुजरात, विदर्भ, आंध्रप्रदेश, बिहार, राजस्थान, दिल्ली, उत्तरप्रदेश आदि प्रांतों से 20 से 30 लाख के बीच लोगों के आने की संभावना है। कुंभ के लिए जनजागरण करने हेतु दिसंबर मास से गांव-गांव में नर्मदा गाथा सुनाने का कार्यक्रम शुरू किया गया है। इस जागरण कार्यक्रम में मंडला का महत्व, मां नर्मदा की महिमा, रानी दुर्गावती की बलिदान की गाथा, गोड वंश का गौरवशाली इतिहास आदि बताया जा रहा है। इस सामाजिक कुंभ में देश के प्रख्यात संत महात्मा और महापुरूषों का सान्निध्य मिलेगा वहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राष्ट्रीय पदाधिकारी एवं स्वयंसेवक विशेष रूप से उपस्थित रहेंगे।

प्रमुख उपस्थिति

इस धार्मिक आयोजन में मुख्य रूप से रा. स्व. संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत, सरकार्यवाह श्री भैयाजी जोशी, निवर्तमान सरसंघचालक श्री कुप्प. सी. सुदर्शन, सरकार्यवाह श्री सुरेश सोनी, श्री दत्ता होसबोले, श्री गोविंदगिरी महाराज (आचार्य किशोर जी व्यास), जगद्गुरू बदरीपीठ श्री वासुदेवानंद सरस्वती, पूज्य दीदी मां ऋतंभरा जी, भारतमाता मंदिर के संस्थापक स्वामी सत्यमित्रानंद जी, आचार्य महामंडलेश्वर श्यामदासजी महाराज-जबलपुर, म.म. सुखदेवानंदजी- अमरकंटक, जगद्गुरू राजराजसेवाश्रम- हरिद्वार रामानंदाचार्य स्वामी हंसदेवानंद, साध्वी निरंजनज्योति – कानपुर, बाल्मीकि संत श्री मानदासजी – हरिद्वार, युगपुरूष म.म. स्वामी परमांद गिरी- हरिद्वार, स्वामी गिरीशानंद – जबलपुर म.म. मैत्रेयगिरीजी महाराज – मंगलोर, ऐश्वर्यानंद सरस्वती- इंदौर, रामहृदयदास- चित्रकूट, योगी आदित्यनाथ- गोरखपुर म.म. शान्तिस्वरूपानंद गिरी उज्जैन, शंभूनाथ महाराज गुजरात, दशनामी पचायती महानिर्मोही अखाड़ा के प्रमुख महामंडलेश्वर आचार्य सुखदेवानंद जी- अमरकंटक सहित अनेक संत उपस्थित रहेंगे।

कुंभ के तीन उद्देश्य रहेंगे

धर्म का दृढ़ीकरण, विकास के साथ सामाजिक समरसता और राष्ट्र की एकता और अखंडता इनके बारे में अलख जगाना। जनजागृति के लिए 30 लाख मां नर्मदा चित्र घर-घर स्थापित किए जाएंगे तथा पांच लाख स्टीकर्स कुंभ मं सहभागी लोगों के लिए प्रवेशिका रहेंगी। कुल 8 लाख प्रवेशिका छपेगी जिसमें 4 लाख मप्र को, 2 लाख छत्तीसगढ़ को, विदर्भ आंध्रप्रदेश, गुजरात आदि को मिलाकर 1 लाख प्रवेशिका बटेंगी।

गांव-गांव में प्रचार के लिए 20 हजार सीडी एवं कैसेट बने हैं, उसमें से 10 हजार कैसेट का वितरण हो चुका है, डॉक्युमेंटरी फिल्म चल रही है।

संगठन रचना

प्रत्येक ब्लॉक, तालुका तथा जिला स्तर पर कुंभ आयोजन समिति का गठन किया गया है, केन्द्रीय कुंभ आयोजन समारोह समिति उसके पश्चात् प्रांत, जिला तालुका ब्लॉक तथा गांव स्तर पर कुंभ समारोह समिति का गठन हुआ है जो सभी को साथ लेकर चल सकता है ऐसे व्यक्ति को समिति का संयोजक तथा उसका साथ देने वाले को सह-संयोजक बनाया गया है। ब्लॉक स्तर पर कोष प्रमुख, प्रचार, प्रमुख सामग्री संग्रह प्रमुख यातायात प्रमुख, संस्कृति प्रशासन संपर्क जाति बिरादरी प्रमुख, महिला प्रमुख, युवा प्रमुख, परावर्तन प्रमुख गांव स्तर पर 11 लोगों की समिति जिसमें संघ के विभिन्न संगठनों के सदस्य रहेंगे। इस समिति में अधिकतम सदस्यों की संख्या 11 से 21 तक रहेगी।

कुंभ की तैयारी

संपूर्ण कुंभ क्षेत्र को मंडला महारानी दुर्गावती का नाम दिया है। चार भव्य प्रवेशद्वार रहेंगे। तीन बड़े मंडप-स्वामी लक्ष्मणानंदजी के नाम पर, महिलाओं के लिए रानी लक्ष्मीबाई के नाम पर और युवाओं के लिए हनुमानजी क नाम पर बनाए जाएंगे। स्वामी लक्ष्मणानंद कहते थे कि ईसाई मिशनरी हमें मार डालेंगे क्योंकि हम अपने हिंदुओं को जगाने का काम करते हैं। मेरे मरने के बाद भी हिन्दुत्व का बचाव कार्य जारी रहेगा। रानी लक्ष्मीबाई ने विदेशी आक्रमणकारियों के साथ लड़कर उनको उखाड़ फेंकने का संदेश दिया। हनुमानजी हर समस्या से मार्ग निकालने, धैर्य साहस तथा ज्ञान से काम करने का संदेश देते हैं। मंडला के समीप महारजपुर के पास कुल 3500 एकड़ जमीन क्षेत्र पर कुल 45 नगर बनेंगे। प्रत्येक नगर में 5 हजार लोगों के रहने, भोजन आदि की व्यवस्था रहेगी।

भोजन विभाग

स्नान के लिए नर्मदा पर घाट बनाए गए हैं। हर स्नान घाट पर गोताखोरों की व्यवस्था, महिलाओं के कपड़े बदलने की व्यवस्था की गई है। भोजनालयों में 2 से 3 लाख लोगों का भोजन बनेगा। भोजन बनाने के लिए गुजरात से 1400 तथा वितरण करने हेतु 600 से 2 हजार लोग आएंगे तथा भोजन पंक्ति में परोसा जाएगा।

स्वास्थ्य विभाग

संपूर्ण कुंभ क्षेत्र में 20 बेड का सुसज्जित आकस्मिक सेवा से परिपूर्ण आईसीयू एम्बुलेंस आदि की सुविधाओं के साथ अस्पताल रहेगा।

एक मध्यवर्ती भंडार होगा तथा सुरक्षा की दृष्टि से एक केंद्रीय नियंत्रण कक्ष रहेगा। साथ ही तीन उपनियंत्रण कक्ष होंगे। सुरक्षा के लिए 3 से 5 हजार पुलिसकर्मी भी कुंभ स्थल पर रहने वाले हैं।

प्रदर्शनी

सारे कुभ में 10 प्रदर्शनियां लगने वाली हैं। उनके विषय-रानी दुर्गावती, पर्यावरण एवं मां नर्मदा, सीख, गुरूपुत्रों की बलिदान गाथा, राष्ट्रीय एकता विधर्मियों के कुटिल हथकंडे विश्वमंगल गौमाता, जलसंरक्षण, सामाजिक सुरक्षा, महाराणा प्रताप, अयोध्या राममंदिर इत्यादि।

व्यवस्था विभाग

कुंभ की संपूर्ण व्यवस्था निर्बाध रूप से चले इस हेतु 10 विभागों की रचना की गई है। ये विभाग हैं-विश्वकर्मा (निर्माण), वरूण (जल, ध्वनि तथा विद्युत) नारद (प्रचार और प्रसार), हनुमान (सुरक्षा एवं चिकित्सा), अन्नपूर्ण (भोजन), साधन संग्रह, केशव (सभी संघ के वरिष्ठ अधिकारी, वीआईपी तथा वीवीआईपी व्यवस्था) प्रचार धर्मजागरण, गरूड़ विभाग (यातायात)। एक हैलिपैड बनाया गया है तथा तीन प्रमुख वाहन पार्किंग स्थल रहेंगे, जहां 1 हजार बड़े तथा 1 हजार छोटे वाहन पार्क किए जा सकेंगे। इसके अलावा प्रत्येक नगर में पार्किंग की व्यवस्था रहेगी।

कार्यक्रम विशेष

3 फरवरी से 9 फरवरी तक कुंभ स्थान पर श्री अतुल कृष्ण जी भारद्वाज के श्रीमुख से श्री राम कथा प्रारंभ होगी, पूज्य कन्हैयालालजी महाराज के संचालन में वृंदावन के श्री भुवनेश्वर महाराज रासलीला रात्रि 7.30 से, प्रदर्शनी का उद्धाटन 8 फरवरी को होगा।

9 फरवरी को देशभर के वंशावली लेखकों का सम्मेलन, 10 फरवरी को कुंभ का विधिवत उद्धाटन होगा। तीन दिन चलने वाले इस कुंभ में धर्म सभा, युवा सम्मेलन, संत सम्मेलन, महिला सम्मेलन, मां नर्मदा की आरती और विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम होंगे। प्रस्ताव तथा उद्धोषणा पत्र भी अंतिम दिन जारी रहेगा। कुंभ के उद्धाटन पर मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और अन्य गणमान्य व्यक्ति उपस्थित रहेंगे।

कुंभ के लिए सामग्री

महाराष्ट्र से चीनी, मुंबई 50 लाख लॉकेट बनाकर दिए हैं। जबलपुर से 6 लाख परिवारों से प्रति रविवार 1 किलो चावल और आधा किलो दाल का संग्रह होगा। महाकौशल से 20 लाख परिवारों से संपर्क होगा। 1 किलो चावल, आधा किलो दाल और एक रूपया घर-घर से किया जाएगा। छत्तीसगढ़ से चावल तथा दाल और ब्रज प्रांत से 15 ट्रक आलू प्राप्त होंगे। भोजन बनाने और वितरण में गुजरात से दो हजार लोग आएंगे। प्रचार साहित्य बनाने में छत्तीसगढ़ की सराहनीय भूमिका रही जिसके तहत 30 हजार सीडीज और 20 लाख पत्रक युगबोध प्रकाशन, रायपुर से प्राप्त हुई है। मध्यप्रदेश सरकार ने मंडला को पवित्र नगरी घोषित करते हुए यहां के विकास के लिए विशेष बजट देकर सहयोग दिया है।

चूँकि भारत विभाजित है इसलिए ‘इंडिया इज़ शाइनिंग…’

श्रीराम तिवारी

आम तौर पर भारत को हिंदी में भारत और अंग्रेजी में इंडिया कहते हैं; जहाँ तक लिखने का सवाल है, तो अंग्रेजी में भारत और हिंदी में इंडिया भी धडल्ले से लिखा जाता है; कोई संवैधानिक प्रतिबन्ध नहीं है; जो जी में आये लिखो, किन्तु भारत राष्ट्र का शब्दार्थ दोनों में ही द्वैत का पृथक्करण दर्शाने लगा है. इसमें कोई शक नहीं कि स्वाधीनता संग्राम में कुर्बानियों; बलिदानों; और क्रांतिकारी संघर्षों के दौरान इंडिया और भारत में हलकी सी दरार पड़ने लगी थी. इंडिया वाला हिस्सा तो आम तौर पर बड़े जमींदारों, शहरी पूंजीपतियों और उन दलाल नेताओं कि गिरफ्त में था जो ब्रिटिश साम्राज्य के पदारविन्दों को सम्मान से नवाजते थे. इसमें पाकिस्तान को रूप -आकार और दर्शन की उटोपिया को जमीनी हकीकत में बदलने बाले कुटिल कलंकी भी शामिल थे. आम तौर पर इंडिया का बंटवारा हो गया और भारत का सिर्फ उतना भा ग ही पाकिस्तान में जा सका जो क्रांतिकारियों की विरासत का हकदार नहीं था, शेष बचा इंडिया और भारत विगत ६४ वर्षों में भी एक नहीं हो पाए बल्कि दोनों के बीच दूरी या खाई बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है. वर्तमान पूंजीवादी राजनैतिक -आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था ने दोनों का रूप-रंग और आकार पानी की लकीर से नहीं; बालू की लकीर से भी नहीं अपितु पत्थर की लकीर से रेखांकित कर के रख छोड़ा है. आंतरिक द्वंदात्मकता के बीज भी इसी में विद्यमान हैं और आपस की खाई पाटने के सूत्र भी इसी में निहित हैं.

संयुक्‍त राष्ट्र संघ के तहत यूनेस्को की रिपोर्ट हो या यूपीए-1 की अर्जुनसेन गुप्ता रिपोर्ट हो या तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट हो, सभी का निचोड़ यह है की भारत में गरीबी रेखा के नीचे आने वालों की संख्या बढ़ी है और औसतन प्रति-व्यक्ति क्रय क्षमता घटी है जिसमें देश की ७७% आबादी आती है और इसके हिस्से में मात्र २०% सम्पदा ही बची है. इस आबादी के श्रम से ही देश ने लगातार तरक्की की है, दुन िया में प्रतिष्ठा प्राप्त की है, अनेक कुर्बानियों देकर देश के दुश्मनों से रक्षा की है, यही प्रजातंत्र की बुनियाद है, इसी का नाम भारत है और सत्ता प्रतिष्ठान के शिखर पर निरंतर चल रहे चौसर के खेल में इंडिया के हाथों पराजित होते रहने को अभिशप्त है, जो लोक विख्यात उस कथा का बुद्धिहीन छोटे भाई जैसा है जो जीवन भर एकमात्र गाय के बंटवारे में अगला भाग याने गौ माता के आहार की जिम्मेदारी भर उठाता रहता है और दूसरा चालाक भाई गाय के पिछले हिस्से याने दूध उत्पादन पर कब्ज़ा कर मौज करता रहता है- इसी का नाम इंडिया है.

इंडिया में- टाटा होता, अम्बानी होता, प्लेन होता, बंगला होता गाड़ी होता. बैंक में करोड़ों रुपया होता, शेयर मार्केट होता. पूँजी निवेश होता, इलिम भी होता-फिलिम भी होता, रिश्वत होता,लाबिंग होता,राजा होता, राडिया होता (होती?) कब्जे में सरकार और क़ानून होता, इसमें बड़ा- बड़ा संत, बड़ा-बड़ा बाबा लोग होता, बड़ा- बड़ा एन जी ओ होता, बड़ा-बड़ा किसान होता, बड़ा- बड़ा क्रिकेटर होता, बड़ा-बड़ा अधिकारी होता और बड़ा -बड़ा घपला होता.

भारत में लगातार महंगाई बढ़ती, रोजगार घटते, मशीनों से हाथ कटते. सड़कों पर एक्सीडेंट होते बिना दवा के लोग बेमौत मरते, भूख -कुपोषण-अशिक्षा की प्रचंड आंधी में गरीबों के झोपड़े उड़ते. ये भारत के ही लोग है जो इंडिया के सुख साम्राज्य निर्माता होते. ये निर्धन भारत-भूमि-भोजन-रोजगार के मुद्दों पर इंसानी बदमाशी को कभी भी समझ न पाए सो तथाकथित ईश्वर और अल्लाह की मर्जी बताने बाले नजूमियों के झुण्ड -मीडिया, मठ, मंदिर और महात्माओं के रूप में इफरात से पाले जाते हैं. इसीलिये तमाम शक्तियों को धारण करने वाला इंडिया, शाइनिंग होता इंडिया, दुनिया के टॉप -१० पूंजीपतियों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा चुका इंडिया भी भारत की बदरंग तस्वीर के साए से भी डरता है.

भारत में सूखा या शीत लहर की चपेट में किसानो की फसलें बर्बाद होने, गरीब किसानों के द्वारा आत्महत्या करने पर एक प्रदेश का मंत्री कहता है कि ये तो तुम्हारे पूर्व जन्मों के पापों का परिणाम है. महंगाई के प्रश्न पर केंद्र का खाद्य मंत्री कहता है की प्याज और सब्जियों के भाव आगामी फसल के आने तक और बढ़ेंगे, उनका ये भी एक बेतुका तर्क है की वर्तमान में मावठा या बारिश होने से फसलें ख़राब हुईं हैं, ये मंत्री महोदय वास्तव में व्यक्तिगत रूप से भी जमाखोरों, कालाबाजारियों और मुनाफाखोरों के खेर्ख्वाह रहेहैं. पूंजीवादी नव्य उदारवादी और भारत विरोधी नीतियों पर अंकुश लगा पाने के लिए बेहतर, कारगर, अनवरत संघर्ष चला सकें. ऐसे जन -संगठनों, श्रम -संगठनों की भारत में कोई कमी नहीं; किन्तु देश की आम जनता आपस में बुरी तरह -जातिवाद; साम्प्रदायिकतावाद;भाषावाद और क्षेत्रवाद में‚ बँटी होने से इंडिया वास्तव में चेन से सो रहा है और भारत का चीत्कार ईश्वर को भी सुनाई नहीं दे रहा है।

समान्तर सिनेमा के प्रभाव की तरह का एक नाटक ‘लाल देद’

प्रमोद कुमार बर्णवाल

समान्तर सिनेमा की एक उल्लेखनीय विशेषता चीजों, घटनाओं, स्थितियों, परिस्थितियों, अवस्था और दशा को ठीक उसी तरह से प्रकट करना रहा है जैसा कि वह है। कई बार फिल्मकार कहानी की मांग कहकर वह सब पर्दे पर प्रदर्शित करते रहे हैं जिसका यथार्थ से संबंध नहीं रहा है। फिल्मकारों का आरोप रहा है कि जनता ऐसा ही चाहती है, वह अश्लीलता और हिंसा में मजा लेती है, जब वह ऐसा देखना पसंद करती है तो फिर हम क्या कर सकते हैं।

इन फिल्मकारों की ये बातें सही तो लगती हैं किंतु इनमें अंशत: सच्चाई ही है पूर्णता नहीं। इन बातों की सच्चाई जाननी हो तो फिर श्याम बेनेगल निर्देशित अंकुर, मंडी, सूरज का सातवां घोड़ा, भूमिका, निशांत फिल्में देख लीजिये या फिर गोविन्द निहलानी निर्देशित आक्रोश, अर्धसत्य, हजार चौरासी की मां देख लीजिये। या फिर समान्तर सिनेमा के दौर की ऐसी ही अन्य फिल्मों को देख लें। समान्तर सिनेमा जिसे कि कला सिनेमा और सार्थक सिनेमा भी कहा जाता है को लेकर एक वहम आम जन में यह है कि ये मनोरंजन नहीं परोसती। दरअसल समान्तर सिनेमा के दौर की फिल्मों की असफलता का एक बहुत बड़ा कारण यह रहा कि ये जनता तक ठीक से पहुंच ही नहीं पाई। जितनी संख्या में अन्य फिल्में जनता तक पहुंचने में सफल हो पाईं उतनी समान्तर सिनेमा नहीं। इसलिये समान्तर सिनेमा को व्यावसायिक रूप से असफल ओर अलोकप्रिय मान लिया गया।

समान्तर सिनेमा के द्वारा किस तरह से यथार्थ का प्रकटीकरण होता है इसे हम उदाहरणों से समझने का प्रयत्न करेंगे। स्वर्गीय उत्पल दत्त का एक नाटक है जिसमें खान में कार्य करते मजदूरों के बारे में दिखाया गया है। इस नाटक के प्रदर्शन के दौरान प्रकाश व्यवस्था इस प्रकार की थी कि ऐसा जान पड़ता था मानो वास्तव में मजदूर खान में फंस गये हैं और पानी में डूब रहे हैं। इसे देखकर दर्शक तालियां पीटने लगते थे कि वाह क्या नाटक प्रदर्शित किया है मंच पर ही खान में डूबते हुए मजदूरों को दिखला दिया।

लेकिन वास्तव में देखा जाये तो यह तालियों का बजना और प्रशंसा का भाव नाटक की असफलता कहा जाना चाहिए। जब कभी आसपास बीमारी, मृत्यु, हिंसा, बलात्कार का प्रसंग आये तो हम सभी इससे विचलित होते हैं। बलात्कार सिर्फ एक शब्द तभी तक है जब तक यह घटित ना हो, जिस पर यह घटे उस स्त्री से जानने का प्रयास कीजिये, उसके लिये यह कभी ना मरने वाला एक नासूर बन जाता है। जिस घर में मृत्यु हो जाये वहां पसरे सन्नाटे को सुनने का प्रयास कीजिये और तब खान में डूबकर मरते हुए मजदूरों को दखेकर अगर लोग तालियां बजायें तब आप समझ जाईये कि नाटक असफल है।

समान्तर सिनेमा के दौर की फिल्मों में मानवीय भावों को ज्यो का त्यो दिखाने का प्रयास किया गया है। यानी कि अगर कभी हंसी का प्रसंग है तो दर्शक भी उसका एक हिस्सा बन जाते हैं अगर कहीं समर्पण और तल्लीनता का भाव है, जीवन में एक अवस्था से दूसरी अवस्था, एक भाव से दूसरी में परिणति का भाव है तो फिर दर्शक इसमें इस तरह से खो जाते हैं कि नायिका का पर्दे पर निरावरण हो जाना भी दर्शकों को सीटी बजाने और फब्तियां कसने का मौका नहीं देता। श्याम बेनेगल की ‘मंडी’ को देख लीजिये जो कि है तो वेश्याओं की कहानी, किंतु पर्दे पर वेश्याओं को दिखाये जाने के बावजूद यह दर्शकों को उत्तेजित नहीं करती, जितनी उत्तेजित ‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिये’ जैसे गीत करते हैं। वेश्यायें भी इंसान हैं, अगर उन्होंने यह पेशा अपनाया है तो किसी मजबूरी के तहत, वह मजबूरी कमर के नीचे की भूख-प्यास नहीं है बल्कि कमर के ऊपर के हिस्से यानी पेट के कारण है। श्याम बेनेगल की ही ‘वेलकम टू सज्जनपुर’ में एक मुन्नी बाई है यह उस समाज का प्रतिनिधि चरित्र है जिसे हम हिजड़ा कहकर मजाक उड़ाते हैं। मुन्नी बाई के ही शब्दों में ‘हम इंसान नहीं हैं का?’ इस तबके के दुख के संगीत को सुना जा सकता है।

शेखर कपूर निर्देशित ‘बैंडिट क्वीन’ को ले लें जिस समय पर्दे पर फूलन देवी का बलात्कार दिखाया जाता है दर्शक तालियां नहीं बजाते। उत्तेजित होते हैं किंतु इसलिये नहीं कि बलात्कार देखकर उन्हें मजा आता है बल्कि इसलिये क्योंकि फूलन का दुख उन्हें अपना जान पड़ने लगता है। दर्शक एक बलत्कृत होती स्त्री को देखकर दुख में बहते चले जाते हैं।

‘अर्द्धसत्य’ का नायक जब समाज में बुरे कार्यों को होते हुए देखता है और उसका दम घुटता सा महसूस होता है तब दर्शक भी ऐसा ही महसूस करता है और जब नायक उस बुराई की जड़ को उखाड़ फेंकता है तब दर्शक भी राहत की सांस लेता है। मणिकौल निर्देशित फिल्म ‘सिद्धेश्वरी’ में जब एक साधारण सी स्त्री का संगीत के प्रति समर्पण होता है तो वह एक मछली की भांति संगीत रूपी पानी में तैरती चली जाती है, उसके शरीर से वस्त्र गिरते जाते हैं और दर्शक भी अपने कानों में संगीत की ध्वनि महसूस करता है। समान्तर सिनेमा में जिस तरह से यथार्थ को रचने का प्रयास किया जाता है वैसा ही नाटकों में भी। समान्तर सिनेमा, व्यावसायिक सिनेमा और रंगमंच में एक साथ कार्य करने वाली मीता वशिष्ठ की रंगमंचीय प्रस्तुति ‘लाल देद’ में भी समान्तर सिनेमा की तरह के यथार्थ की झलक पाई जाती है। भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद ओर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के महिला अध्ययन और विकास केन्द्र द्वारा 15 दिसम्बर 2010 को वाराणसी में इसकी संयुक्त प्रस्तुति में भी यथार्थ की झलक देखी गयी।

मीता वशिष्ठ ने बताया कि जब उनके मन में आया कि ‘लाल देद’ पर नाटक किया जाये तो उन्होंने ‘लाल देद’ पर विभिन्न लेखकों को पढ़ना शुरू किया, फिर उनके मन में आया कि क्यों विभिन्न आलोचकों द्वारा लिखे गये पुस्तकों को पढ़ा जाये। क्यों नही मूल स्त्रोत को ही पढ़ा जाये जिनको आधार बनाकर आलोचक लिखते रहे हैं और इन्हीं की परिणति ‘लाल देद’ नामक नाटक के रूप में हुई।

एक कश्मीरी साध्वी लल्ला उर्फ लल्लेश्वरी उर्फ लाल देद के माध्यम से स्त्री की मुक्ति की छटपटाहट को दर्शाया गया है। आतंकी घटनाओं के बाद कश्मीर का समाज किस तरह से भय का शिकार हुआ है वहां की संस्कृति को धक्का लगा है यह भी इस नाटक् के माध्यम से समझा जा सकता है। जीवन क्या है? अगर कोई आपकी बुराई करे, गाली दे तो क्या इसे दुख माना जाये और अगर सम्मान मिले तो क्या इसे ही सुख मान लिया जाये? इन्हीं सब प्रश्नों के जवाब ‘लाल देद’ नाटक में ढ़ूंढ़ने के प्रयत्न किये गये हैं। लल्ला का ब्याह 12 वर्ष में कर दिया गया था। मुक्ति की छटपटाहट में उसने 24 की होने पर सन्यास ले लिया। लाल देद के ही शब्दों में ‘नाम उसका हो जो भी मुक्त करे मुझको इस संत्रास से’ ; लल्ला मुक्ति के उपाय खोजती अटकती रही। अंत में उसने समझा कि परम एक है। वह सबके लिये है। उसे साधना से पाया जा सकता है। यह समझ आते ही वह कपास की तरह खिल गयी। उसे कुछ लोगों ने पागल समझकर पत्थर मारे तो कुछ ने सम्मान भी दिया। एक वस्त्र विक्रेता ने निर्वस्त्र लल को वस्त्र भेंट किया। लल ने उसे दो हिस्सों में फाड़ा और दोनों कंधों पर लटका लिया। कोई गाली देता तो एक कंधे पर रखे कपड़े में बांध देती और कोई सम्मान देता तो दूसरी ओर एक गांठ लगा देती। शाम को तौला तो दोनों बराबर निकले। जो मुक्त हो चुका है उसके लिये मान-अपमान के कोई मायने नहीं हैं। लाल देद को कोई बौद्ध, कोई शैव तो कोई मुस्लिम मानता था। अंतिम संस्कार के लिये हिंदू-मुस्लिम में विवाद पैदा हो गया ठीक काशी के कबीर की तरह, किन्तु लाल देद का अंतिम संस्कार कोई नहीं कर पाया वह रौशनी बनकर चली गयी, केवल उसके गीत गूंजते रह गये।

अभिनेत्री मीता वशिष्ठ ने लल्ला के काव्य कोलाज को अपने अभिनय के फ्रेम ममें सजाकर प्रस्तुत किया और सबको ‘लाल देद’ की तड़प से वाकिफ कराया। उन्होंने हर दृश्य को एक पेंटिंग बनाकर प्रस्तुत किया। मीता वशिष्ठ ने प्राचीन नृत्य शैली कुडिअट्टम से सौंदर्र्य विधान ग्रहण करके नाटक के दृश्यों को रचा।

‘लाल देद’ की रचना में राजेश झा, विष्णु माथुर और बंशी कौल ने मीता वशिष्ठ की मदद की है। नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के अशोक सागर भगत ने प्रकाश संयोजन किया। कला संकाय प्रमुख प्रो0 कमलशील, प्रो0 शुभा राव, प्रो0 सदानंद शाही ने नाटक आयोजित करवाने में विशेष सहयोग किया। संचालन डॉ0 आभा गुप्ता ने किया।

प्रकाश व्यवस्था इस नाटक की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। प्रकाश के संयोजन के कारण दर्शकों को ऐसा जान पड़ रहा था कि कभी लाल देद रात्रि में कार्यशील है तो कभी सूर्य की रोशनी फैल चुकी है मानो मंच पर सूर्य उग आया है। मंच पर ना ही सूई धागा रखा गया था, ना ही चक्की और ना ही जल ; किंतु मीता वशिष्ठ के अभिनय ने दर्शकों को यह महसूस कराने पर मजबूर कर दिया कि मंच पर ये सब चीजें रखी हुई हैं। सबसे बड़ी बात बनारस के आम लोग यह जानकर कि एक बॉलीवुड की हीरोइन उनके सामने अभिनय करेंगी प्रफुल्लित थे, तो कुछ उत्तेजित भी। कुछ मनचलों ने खुशी में सीटियां भी बजाई। लेकिन यह सीटी बजाना नाटक शुरू होने से पहले तक रहा। जब मीता वशिष्ठ मंच पर आईं और एक साधारण स्त्री का साध्वी में परिवर्तन अभिनीत कर रही थीं, तो दर्शक सीटी मारना भूल गये थे, एक झीने वस्त्र में नायिका के आने के बावजूद; बिल्कुल समान्तर सिनेमा के प्रभाव की तरह। ‘लाल देद’ नाटक एक स्त्री की सुख, दुख, गम, खुशी से मुक्ति की झांकी प्रस्तुत करता है, साथ ही कुछ फिल्मकारों के इस मत को भी ध्वस्त करता है कि दर्शक ही अश्लीलता और हिंसा देखना चाहते हैं तो हम क्या करें?

(लेखक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में शोध-छात्र हैं)

पराजित विजेता, विजयी विजित

-नरसिंह जोशी

पानीपत रण संग्राम के 250वें वार्षिक स्मृति दिन 14 जनवरी 2011 पर विशेष

भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण लड़ाई जिसे टर्निंग प्वाईंट आफ हिस्ट्री यह कह सकते हैं ऐसी लड़ाई 14 जनवरी 1761 को पानीपत में हुई। मराठा और अफगानिस्तान का अहमदशाह अब्दाली के बीच का यह महाभीषण संग्राम था। देश की स्वतंत्रता के लिए, विदेशी आक्रांताओं को रोकने के लिए मराठों ने यह संघर्ष किया था। इस लड़ाई में मराठा वीरों का बलिदान हुआ परन्तु देश की रक्षा हुई। इस ऐतिहासिक लड़ाई को इस वर्ष 250 वर्ष पूरे हो रहे हैं।

शिवाजी के उत्ताराधिकारियों ने नर्मदा उल्लंघित की, चम्बल पार की, दिल्ली पर जोरदार दस्तक दी, अटक पर भगवा झण्डा फहराया और पानीपत की रणभूमि पर भयंकर तांडव करते हुए एक लाख मराठों ने वीर-गति प्राप्त की। परिणामस्वरूप जिसे आज तक पानीपत का विजेता माना जाता रहा है, वह अब्दाली, जिसने अपने को दिल्ली का बादशाह घोषित किया था, वह अब्दाली वापस अफगानिस्तान भाग गया और इस्लाम के अनुयायियों के वायव्य सीमा की ओर से होने वाले आक्रमण सदा के लिए बन्द हो गये। अब्दाली भागा और उसने अपना वकील -राजदूत संधि करने के लिए पुणें की राजसभा में भेजा और आज तक जो पराजित माने जाते हैं उन मराठों ने पानीपत के पश्चात 10-12 वर्षों के अन्दर पुन: दिल्ली के बादशाह की नाक में नकेल डाला। अपनी सत्ता का दबदबा स्थापित किया।

अटक पर भगवा झण्डा (सन् 1758) फहराने के पश्चात् रघुनाथराव पेशवा दक्षिण वापिस लौटे। पंजाब की व्यवस्था और फिर दोआब पार कर बंगाल तक सत्ता प्रस्थापित करने हेतु दत्ता जी शिन्दे की नियुक्ति हुई। उसी समय ईस्लाम खतरे में यह नारा देकर मौलवी वलीउल्लाह ने अब्दाली को भारत पर आक्रमण करने का न्यौता भेजा। जलते अंगारों के समान शब्दों से भरे आमंत्रण पत्र को पढ़कर अब्दाली का खून खौल उठा और वायुवेग से प्रचण्ड फौज के साथ निकलकर खून भरी आखों का अब्दाली पंजाब पहुंचा। स्वर्ण मंदिर ध्वस्त कर विभिन्न प्रकार के अत्याचार करते हुए वह दिल्ली पहुंचा, वहां तखत पर विराजमान हुआ। उसने अपने को बादशाह घोषित किया और वह कुंजपुरा में दत्ता जी के घेरे में फंसे हुए नजीब की सहायता के लिए निकला। नजीब शुकताल के किले में था। दत्ता जी ने किले पर हमला बोला था। एक ओर से अब्दाली और दूसरी ओर से नजीब के बींच दत्ता जी फंस गये और कुंजपुरा (बुराडी) की रणभूमि पर भीषण लड़ाई हुई, दत्ता जी सिंधिया ने वीरगति प्राप्त की। रणभूमि पर आहत पड़े हुए दत्ता जी पर नजीब और कुतुबशाह द्वारा लत्ता प्रहार करने का क्षोभजनक समाचार महाराष्ट्र में पहुंचते ही महाराष्ट्र प्रतिशोध भाव से धधक उठा।

श्रीमंत सदाशिव राव भाउ साहब पेशवा और श्रीमंत विश्वासराव पेशवा के सेनापतित्व में प्रचण्ड हरि भक्तों की फौज निकल पड़ी। उसने नर्मदा और चम्बल पार की तथा दिल्ली पर हमला बोला। यमुना के उत्तर किनारे अब्दाली की छावनी थी। अब्दाली के आंखों के सामने मराठों ने दिल्ली पर कब्जा किया। पाण्डवों से पृथ्वीराज तक भारत की परम्परागत अविच्छिन्न राजधानी में- दिल्ली में प्रवेश करते ही भाउसाहब के उपलब्ध पत्र के अनुसार – भाउसाहब के मन में प्रथमत: भाव जागा – ‘हे हस्तिनापुर चे राज्य’ (यह हस्तिनापुर का राज्य) और भाउसाहब के मानस पटल पर रेखांकित और रंगांकित चित्र में छत्रपति शिवाजी महाराज, छत्रपति राजाराम महाराज और श्रीमंत बाजीराव पेशवा को देखा। भाउसाहब ने मराठों की छावनी में विश्वास राव पेशवा की राजसभा आयोजित की। दरबार में विश्वासराव विराजमान होने के पूर्व भाउसाहब ने शाही तख्त के ऊपर के रजत छत्र पर घणाघात किया, छत्र भग्न हुआ। दरबार में श्रीमत विश्वासराव राज गद्दी पर विराजमान होते ही उपस्थित सरदारों ने, सेनाधिकारियों ने श्रीमंत को उपायन अर्पण कर मस्तक (मुजरा) नमाया। भाउसाहब ने अपनी धीर गम्भीर वाणी से हस्तिनापुर के पाण्डवों के राज्य की और पाण्डवों से पृथ्वीराज तक परम्परागत् भारत की राजधानी की स्मृति जागृत की।

इस राजसभा की अपेक्षित प्रतिक्रिया हुई। मौलवी वलीउल्लाह और नजीबुद्दौला ने ‘हिन्दू राज्य स्थापना की’ निन्दा की। और इस्लाम खतरे में है इस नारे के साथ काफिरों का नाश करने के लिए गाजियो के रणभूमि पर आने का आहवान किया। उधर पंजाब में प्रसन्नता की लहर दौड़ी और सिखनेता मालासिंग जाट ने ‘भाउ महाराज के नाम की द्वाही’ घोषित की। अब्दाली भी थोड़ा कांप उठा था। वह वापस जाने के विचार में था। परन्तु मौलवी वलीउल्लाह और नजीब ने उसे उकसाया और वह युध्द के लिए तैयार हुआ। उधर भाउसाहब भी दत्ता जी शिन्दे की वीरमृत्यु का प्रतिशोध लेने की दृष्टि से कुंजपुरा की ओर निकल पडे। मार्ग में ही भाउसाहब ने शाहआलम को बादशाह घोषित करते हुए विरोधियों को कमजोर करने का प्रयत्न किया। कुंजपुरा पहुंचकर अब्दाली की आखों के सामने नजीबुद्दौला को पराजित कर तथा कुतुबशाह का मस्तक अब्दाली को भेंट कर दत्ता जी की वीर मृत्यु का प्रतिशोध किया। पश्चात दोनों सेनाएं अब्दाली और मराठा पानीपत के मैदान पर आमने सामने आ गई।

दिनांक 14 जनवरी 1761 पौष शुक्ल 8 को पानीपत की भूमि पर भयंकर रण संग्राम हुआ। मराठों की भयंकर हानि हुई, यह मान्य करना ही होगा। और इस कारण ही आज तक मराठों को पराजित माना जाता है। परन्तु विजयी अब्दाली भी दिल्ली की बादशाही का त्याग कर अफगानिस्तान वापस लौट गया और उसने अपना वकील संधि करने के लिए पुणे की राजसभा में भेजा। तो फिर कौन विजेता और कौन विजित? पानीपत की रणभूमि पर मराठे हारे यह अर्धसत्य है और यही प्रचारित और प्रचलित रहा। अब्दाली पुन: आया नहीं, इतना ही नहीं अपितु वायव्य सीमा की ओर से आने वाले आक्रमण सदा के लिए समाप्त हुए। समकालीन ब्रिटिश अधिकारी मेजर इवान बॉक लिखता है पानीपत की हार भी गर्व की और कीर्तिदायक थी। मराठा हारे परन्तु अब्दाली को भी वापस जाना पड़ा। यह विजेता को पराजित करने वाला पराभव था। इस युध्द के पश्चात केवल दस वर्षों में फिनिक्स पक्षी जैसे महादजी सिंधिया के नेतृत्व में मराठा फिर से दिल्ली आये और बादशाह शाहआलम की नाक में नकेल डाला।

आखिर में एक बात बताना चाहता हूं कि 16 सितम्बर 1760 का भाउसाहब पेशवा एक महत्वपूर्ण पत्र है। वे लिखते हैं, शुजा और नजीब खान का समझौता का प्रस्ताव आया कि सरहिन्द (पंजाब) तक का प्रदेश अब्दाली का यह मान्य करो……. हम सहमत नहीं है…… अटक (पेशावर) तक हिन्दुस्तान….. उसके आगे अब्दाली का प्रदेश। देश की सरहद के सम्बन्ध में समझौता करने के लिए पेशवा तैयार नहीं हुए यह अत्यन्त महत्वपूर्ण बात है। उन्होंने समझौता नहीं किया, संघर्ष किया, बलिदान दिया और देश की रक्षा की। अगर यह समझौता होता तो अपने भारत का मानचित्र अलग होता…..।

ऐसे स्वतंत्र सेनानियों को अभिवादन करना हरेक भारतीय का पवित्र कर्तव्य है और इसी दृष्टि से 14 जनवरी को पानीपत में कार्यक्रम को रहा है। पानीपत में इस युध्द का स्मारक बनाना चाहिए ताकि आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा मिले।

क्या टूट रहा है राहुल गांधी की लोकप्रियता का जादू

प्रदीप चन्द्र पाण्डेय

क्या राहुल गांधी की लोकप्रियता का जादू टूट रहा है। कम से कम उत्तर प्रदेश के दो दिवसीय उनके दौरे से तो यही लगता है कि राहुल अब स्वयं उन युवाओं के बीच ही प्रश्न बनकर उभर रहे हैं जिनके कंधों पर भरोसा कर वे मिशन 2012 फतेह करने का मंसूबा पाले हुये हैं। उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद, लखनऊ, झांसी और आगरा में वे युवाओं से मिले तो दूसरी ओर उन्हें युवाओं के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। मंहगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी जैसे यक्ष प्रश्नों पर जहां राहुल गांधी मौन साधे रहें वहीं अनेक स्थानों पर उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। कांग्रेसियों का प्रतिक्रिया में कहना है कि राहुल गांधी के विरोध के पीछे भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के युवा संगठन है, उनका यह पक्ष आधा सच हो सकता है किन्तु यह तो तंय है कि बिहार में करारी पराजय के बाद अब शायद राहुल गांधी का प्रायोजित तिलस्म टूट रहा है। उनके बयान सरकार में सहयोगी दलों के लिये ही संकट बन रहें हैं और नौजवान अब उनके साथ चलने की जगह उनसे सवाल करने लगा है। इन यक्ष प्रश्नों का हल तो राहुल गांधी और कांग्रेस को ढूढना ही होगा।

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने अपने दो दिवसीय यात्रा के दौरान छात्रों का आवाहन किया है कि वे राजनीति में आये। ऐसा आवाहन पहली बार नहीं किया गया है। राजनीतिक दलों ने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिये नौजवानों का आवाहन अनेको बार किया गया और जब उनकी शक्ति से सत्ता परिवर्तन हुआ तो युवाओं को ही भुला दिया गया। देश में युवाओं के लिये कोई नियामक संस्था नही है जो उनकी कठिनाइयों, समस्याओं को सुलझाने की दिशा में सहयोग स्वरूप आगे आ सके। युवा छात्र राजनीति के माध्यम से राजनीति की मुख्य धारा में प्रवेश करते थे किन्तु जब छात्र संघ चुनाव को लेकर सड़क पर हिंसा होने लगी, वातावरण अराजक हो गया तो समस्या का हल ढूढने की जगह छात्र संघों को ही समाप्त कर दिया गया। छात्र संघ के माध्यम से ही देश को पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर सिंह, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार सहित अनेक नेता मिले किन्तु छात्र संघ के उज्जवल पक्ष को दर किनार कर इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया। अब जब युवाओं के राजनीति में आने की पौधशाला को ही रौंद दिया गया तो नौजवान सियासत में आये भी तो किस रास्ते से। यदि शरीर या समाज के हिस्से में गंदगी आ जाय तो क्या शरीर या समाज के उस हिस्से को ही समाप्त कर दिया जाय ? भला यह कहां का न्याय है। कम से कम छात्र संघों का समापन तो इसी रूप में देखा जाना चाहिये। लोकसभा, विधानसभा से लेकर त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव तक राजनीति में बेशर्मी के हर औजार इस्तेमाल किये जा रहें हैं तो क्या हम लोकतंत्र को भी इसी तरह से नमस्कार कर लें जैसा छात्र संघों के साथ हुआ? क्या छात्र संघों की बहाली के लिये राहुल गांधी कोई पहल करेंगे? यदि इसका उत्तर हां है तो कब और किस तरह किन्तु यदि इसका उत्तर न में है तो उन्हे इस बात का क्या अधिकार बनता है कि वे युवाओं को सलाह दें कि वे राजनीति में आये?

आज राजनीति में अच्छे लोगों का आना लगातार कम होता जा रहा है। बिडम्बना यह कि अधिकारी से लेकर आम आदमी सभी राजनीतिज्ञों को गालियां देते नहीं थकते किन्तु विचित्रता यह कि मौका मिलने पर हर कोई नेता बनने को तैयार है। इसके पीछे शुद्ध अवसरवादिता है या कुछ और इसके लिये तो बड़े बहस की जरूरत है किन्तु छात्र संघों का चुनाव बन्द कर देना एक दुर्भाग्यपूर्ण फैसला है। राहुल गांधी युवा है और बेहतर होगा कि वे स्वंय छात्र संघों की बहाली के लिये पहल करें।

यदि छात्र संघों की बहाली शीघ्र न हुई तो आने वाले दिनों में पढे लिखे सुशिक्षित योग्य नेताओं का सर्वथा अभाव हो जायेगा और राजनीति की मुख्य धारा में सेवानिवृत्त अधिकारी, बड़े नेताओं के पुत्र, परिजन, नात रिश्तेदारों की भरमार होगी और यह स्थितियां स्वस्थ राजनीति के लिये कदापि बेहतर नही है। हम छात्रों से आस तो लगायें हैं, उनमें हम कल का भारत देखते हैं ,कम से कम छात्र संघ के रूप में ही सही उन्हें लोकतंत्र के हिस्से का थोडा सा आकाश मिलना ही चाहिये।

(लेखक दैनिक भारतीय बस्ती के प्रभारी सम्पादक है।)

महंगाई की मार

अनिल त्यागी

महंगाई का शोर चीख पुकार में बदलने को है, पता नहीं किस दिन जनता मंहगाई के भूत से लड़ने के लिये अराजकता का रास्ता अपना ले, लेकिन इन सबसे बेफिकर केन्द्र की राजसत्ता विफल बैठकों के आयोजन भर कर रही है। विपक्ष सहयोग के स्थान पर सरकार की खिल्ली उड़ाने की मुद्रा में है। बेबस सरकार के प्रधानमत्री जितने गुना कोशिश की घोषणा करते है उतने ही गुना महंगाई बढ जाती है। खाद्य वस्तुओं की मंहगाई दर 18 प्रतिशत के आकड़े पार कर गई है। ऐसे में मनमोहन सिंह की आर्थिक विकास की दस प्रतिशत दर की घोषणा गरीबों के जले पर नमक छिडकती सी लगती है।

महंगाई का आइना व प्रतीक प्याज बन गया है, पिछले वर्ष चीनी ने कड़वाहट भर दी थी। शरद पवार साहब की कोशिशें सफल होती तो सरकार अब तक चीनी के मुद्दे पर ही विफल हो जाती पर सरकार की कोशिशे सफल हुई ,पर कितनी? बीस इक्कीस रूपये से जाकर बत्तीस रूपये पर थम गई यानि कि लगभग डेढ गुना पर जाकर रूकी। जनता ने पचास रूपये के बदले कुछ राहत पर संतोष किया फिर दालों ने आम आदमी को दल कर रख दिया आम दाल अस्सी से सौ तक चढ गई इस पर भी कुछ काबू हुआ तो प्याज परत दर परत सरकार को उधेड़ती नजर आ रहीं है।

किसी सब्जी का रेट बढना नया नही है सीजन के आधार पर आलू प्याज टमाटर महगे होते है तो जिसकी औकात हो वही खाता है बाकी सस्ता होने का इतजार करते है, भिंडी जब अस्सी और सौ के भाव बिकती है तो कोई मध्यम वर्ग का आदमी इसकी और देखता भी नहीं, आस्ट्रेलिया और रूस के सेव अभी तक हाईप्रोफाइल लोगों तक ही सीमित है। ऐसे में अकेले प्याज पर ही इतना बाबेला क्यो?

प्याज यदि चाहे तो लोग न भी खरीदे या कम खरीदे सम्भव है पर ऐसा नहीं है कि मंहगा सिर्फ प्याज ही है, आटा दाल चावल चीनी तेल घी नमक आलू जैसी सभी खाद्य वस्तुओं के दाम बढे ही नही रोज बढ रहे है। प्याज के दाम बहुत ही ज्यादा बढे तो लोगो ने उसे ही मुद्दा बना लिया खाद्य वस्तुए ही नही स्कूल पढाई कपडा सिलाई पहनना ओढना सब कुछ आम लोगो की पहुंच से बाहर होता जा रहा है। वैज हो या नान वेज सब पर महगाई की मार है।

केन्द्र सरकार राज्य सरकारों पर जिम्मेवारी थोपने के प्रयास में है पर आम आदमी इस तर्क को मानने को तैयार नहीं है। केन्द्र की बात कुछ सही भी नजर आती है, राज्यों के काम काज में दखल का अधिकार केन्द्र के पास नही है तभी तो केन्द्र को प्याज व्यापारियों पर छापे के लिये आयकर विभाग के अफसरों को लगाना पडा छापों को असर पडता नजर आया पर लोभी व्यापारियों ने हडताल के हथियार से इसे विफल करने का सफल प्रयास कर लिया अब या तो केन्द्र की सरकार तानाशाही के आस पास जाकर एस्मा जैसे अगले हथियार इस्तेमाल करें या कार्यवाही के लिये राज्यों का मुंह ताकती रहे। पर केन्द्र के नेताओं को ऐसे बेशर्म बयान देने से पहले सोचना चाहिये कि जहां-जहां व्यापारियो ने हडताल की नासिक और दिल्ली में वहां दोनों ही जगह राज्य सरकार भी कांग्रेस की ही है। ऐसे में मंहगाई का ठीकरा राज्य सरकारों पर थोपना अजीब सा लगता है। सरकार केन्द्र की हो या राज्य की इच्छाशक्ति गंवा चुकी है, बाजार को बाजार के हाल पर और आम आदमी को बेहाल छोड़कर सरकार विकास दर के आंकडों का राग गाने के अलावा कुछ भी तो करती नजर नहीं आती।

सरकार ऐसी बचकानी घोषणाएं करती है जिनसे लगता है कि भारत एक देश नही अलग अलग राज्य भर है। दिल्ली में प्याज पर सबसीडी देने का ऐलान कितना अलगाववादी है, कालाबाजारी करें दिल्ली का व्यापारी, सस्ता प्याज खाये दिल्ली की जनता बाकी देश जाये भाड़ में. राहुल गांधी हमेशा से ही दो भारत की बात कहते आये है यहॉ यह दो भारत वही सरकार बना रही है जिसकी अहम पार्टी के ताकतवर महासचिव राहुल जी ही है। कश्‍मीर के लोगो को सस्ता सामान मुहैया कराने पर शोर मचाने वाली भाजपा दिल्ली मे हो रही इस अलगाववादी कोशिश पर शायद इसी लिये खामोश है क्योंकि उसके भी सारे बडे नेता दिल्ली में ही रहते है।

सरकार को गभीर होना होगा मंहगाई रोकने की ईमानदार कोशिश करनी होगी, सरकार को चाहिये कि खाद्य पदार्थो का खरीद मूल्य निर्धारित करते समय उसका विक्रय मूल्य भी घोषित करने की नीति अपनाये यह कोई ज्यादा मशक्कत का काम भी नहीं है।और यदि प्राकृतिक आपदाओं या अन्य किन्ही भी कारणों से यदि खरीद मुल्य और समर्थन मूल्य में बढोतरी हो तो उसे सब्सीडी का अन्तर देकर पूरा किया जाये इससे सरकार का कोई नुकसान भी नहीं होने वाला। यदि सब्सिडी देनी पडी तो मंहगाई भत्ते कम होंगे और सरकार कुल मिलाकर फायदे में ही रहेगी।

सरकार को होने वाली फसलों का सही अनुमान लगाना होगा जिससे की मूल्य निर्धारित करने में निश्चितता हो और आम आदमी अपना बजट सही बना सके।

सरकार को खाद्य पदार्थो के वायदा बाजार और सट्टेबाजी पर पूरी तरह रोक लगानी होगी जिससे की व्यापारी इन पदार्थो की नकली किल्लत दिखाकर मनमाने दाम वसूल न कर सके।

दलहन और तिलहन की फसलों को बढावा देना होगा और इन वस्तुओं को सही समय पर पर्याप्त आयात कर देश की जरूरत के मुताबिक भंडारण की नीति अपनानी होगी। खाद्य पदार्थों के निर्यात को निरूत्साहित करने के उपाय करने होंगे।

खाद्य पदार्थों के अपमिश्रण और उनसे सम्बन्धित सभी अपराधो के लिय कडे दण्ड निर्धारित करने होंगे, खाद्य सुरक्षा बिल जैसे उपाय जल्दी से जल्दी अपनाने होंगे इसके लिये राजनेताओं को भी पक्ष विपक्ष के पचडे से बाहर आकर देश हित मे एकता दिखानी होंगी। सरकार संकल्प तो करे देश के लोग उसके साथ होंगे।

सियासत और सेक्स की कॉकटेल-कथा : 4

सीडी, जिसने सनसनी मचा दी…

– चण्डीदत्त शुक्ल

साल-2006 : उत्तर प्रदेश के एक पूर्वमंत्री का घर। बैकड्रॉप में मंत्रीजी के शपथग्रहण समारोह का चित्र लगा है। एक और तस्वीर डिप्लोमा संघ के अभिनंदन समारोह की है। यहां भी वो मौजूद हैं। इसी कमरे में हरे रंग की सलवार और कुर्ता पहने हुए एक युवती बैठी है। कुछ देर बाद वहां शिक्षाजगत के एक वरिष्ठ अधिकारी पहुंचते हैं…।

यह सबकुछ एक सीडी में दर्ज किया गया और जब यही सीडी निजी टेलिविजन चैनल पर टेलिकास्ट हुई, तो सियासत की दुनिया में भूचाल आ गया। सीडी में सेंट्रल कैरेक्टर निभाने वाली युवती थी—डॉ. कविता चौधरी। चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय में कविता अस्थाई प्रवक्ता थी और हॉस्टल में ही रहती थी। ये उस दौर की बात है, जब उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी। एक टीवी चैनल ने यूपी के पूर्व कैबिनेट मिनिस्टर मेराजुद्दीन और मेरठ यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर आरपी सिंह के साथ कविता के अंतरंग संबंधों की गवाही देती सीडी जारी की। सनसनी भरी इस सीडी के रिलीज होने के बाद सियासत के गलियारों में सन्नाटा छा गया और यूपी के कई मिनिस्टर इसकी आंच में झुलसने से बाल-बाल बचे। सपा सरकार में बेसिक शिक्षा मंत्री किरणपाल, राष्ट्रीय लोकदल से आगरा विधायक और राज्यमंत्री का दर्जा प्राप्त बाबू लाल समेत मेरठ से सपा सरकार में सिंचाई मंत्री रह चुके डॉ. मेराजुद्दीन इस चक्कर में खूब परेशान हुए।… हालांकि ये सीडी सियासी लोगों को परेशान करने का सबब भर नहीं थी। कई ज़िंदगियां भी इसकी लपट में झुलस गईं।

23 अक्टूबर, 2006 : कविता चौधरी बुलंदशहर में अपने गांव से मेरठ के लिए निकली। 27 अक्टूबर तक वो मेरठ नहीं पहुंची, ना ही उसके बारे में कोई सुराग मिला। इसके बाद कविता के भाई सतीश मलिक ने मेरठ के थाना सिविल लाइन में कविता के अपहरण की रिपोर्ट दर्ज कराई। पुलिस ने इंदिरा आवास गर्ल्स हॉस्टल, मेरठ स्थित कविता के कमरे का ताला तोड़ा। यहां से कई चिट्ठियां बरामद की गईं। एक चिट्ठी में लिखा था—रविन्द्र प्रधान मेरा कत्ल करना चाहता है और मैं उसके साथ ही जा रही हूं। कुछ दिन बाद कविता के भाई के पास एक फ़ोन आया, दूसरी तरफ कविता थी। वो कुछ कह रही थी, तभी किसी ने फोन छीन लिया…।

पुलिसिया जांच में पता चला—रविन्द्र प्रधान ही मेन विलेन था। उसने बताया—मैंने कविता की हत्या कर दी है। रविन्द्र ने 24 दिसंबर को सरेंडर कर दिया और उसे डासना जेल भेज दिया गया। इसके बाद कविता केस सीबीआई के पास चला गया। रविन्द्र ने बताया—24 अक्टूबर को मैं और योगेश कविता को लेकर इंडिका कार से बुलंदशहर की ओर चले। लाल कुआं पर हमने नशीली गोलियां मिलाकर कविता को जूस पिला दिया। बाद में दादरी से एक लुंगी खरीदी और उससे कविता का गला घोंट दिया। आगे जाकर सनौटा पुल से शव नहर में फेंक दिया। रविन्द्र ने बताया कि कविता की लाश उसने नहर में बहा दी थी। पुलिस ने कविता का शव खूब तलाशा, लेकिन वह नहीं मिला। भले ही लाश रिकवर नहीं हुई, लेकिन पुलिस ने मान लिया कि कविता का कत्ल कर दिया गया है।

30 जून, 2008 को गाजियाबाद की डासना जेल में बंद रविन्द्र प्रधान की भी रहस्यमय हालात में मृत्यु हो गई। बताया गया कि उसने ज़हर खा लिया है। हालांकि रविंद्र की मां बलबीरी देवी ने आरोप लगाया कि उनके बेटे ने खुदकुशी नहीं की, बल्कि उसका मर्डर कराया गया है। ऐसा उन लोगों ने किया है, जिन्हें ये अंदेशा था कि रविन्द्र सीबीआई की ओर से सरकारी गवाह बन जाएगा और फिर उन सफ़ेदपोशों का चेहरा बेनकाब हो जाएगा, जो कविता के संग सीडी में नज़र आए थे। कविता के भाई ने भी आरोप लगाया कि चंद मिनिस्टर्स और एजुकेशनिस्ट्स के इशारे पर उनकी बहन का खून हुआ और रविन्द्र प्रधान को भी मार डाला गया।

… पर कहानी इतनी सीधी-सादी नहीं। इसमें ऐसे-ऐसे पेंच थे, जो दिमाग चकरा देते हैं। कविता की हत्या के आरोपी रविन्द्र ने कई बार बयान बदले। पहले कहा गया कि एक मंत्री के कविता के साथ नाजायज़ ताल्लुकात थे, फिर यह बात सामने आई कि कविता का रिश्ता ऐसे गिरोह से था, जो नामचीन हस्तियों के अश्लील वीडियोज़ बनाकर उन्हें ब्लैकमेल करता था। कविता इनकी ओर से हस्तियों को फांसने का काम करती थी। एक स्पाई कैम के सहारे ये ब्ल्यू सीडीज़ तैयार की जाती थीं।

पुलिस की मानें, तो कविता का इस काम में रविन्द्र प्रधान और योगेश नाम के दो लोग साथ देते थे। उन्होंने लखनऊ में पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ. मेराजुद्दीन की अश्लील सीडी बनाई और उनसे पैंतीस लाख रुपए वसूल किए। रवीन्द्र ने बताया था कि कविता के कब्जे में चौधरी चरण सिंह यूनिवर्सिटी के पूर्व वाइस चांसलर आर. पी. सिंह और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष कुंवर बिजेंद्र सिंह की अश्लील सीडी भी थी।

ब्लैकमेलिंग के एवज में मिले पैसे के बंटवारे को लेकर तीनों के बीच झगड़ा हुआ, तो कविता ने धमकी दी कि वो सारे राज़ का पर्दाफ़ाश कर देगी। रविन्द्र और योगेश ने फिर योजना बनाई और कविता को गला दबाकर मार डाला। पुलिस की थ्योरी मानें, तो कविता को भी इसका इलहाम था और उसने अपने कमरे में कुछ चिट्ठियां लिखकर रखी थीं। इनमें ही लिखा था—मुझे रविन्द्र से जान का ख़तरा है। इस मामले में योगेश और त्रिलोक भी कानून के शिकंजे में आए। जांच में पता चला कि कविता के मोबाइल फोन की लास्ट कॉल में उसकी राज्यमंत्री दर्जा प्राप्त बाबू लाल से बातचीत हुई थी।

सीबीआई और पुलिस ने बार-बार कहा कि कई मंत्री इस मामले में इन्वॉल्व हैं और उनसे भी पूछताछ होगी। विवाद बढ़ने के बाद राज्य के पूर्व सिंचाई मंत्री डॉ. मेराजुद्दीन ने राष्ट्रीय लोकदल से इस्तीफा दे दिया, वहीं बाबू लाल ने भी पद से त्यागपत्र दे दिया। सियासत और सेक्स के इस कॉकटेल ने खुलासा किया कि महत्वाकांक्षा की शिकार महिलाएं, वासना के भूखे लोग और आपराधिक मानसिकता के चंद युवा…ये सब पैसे और जिस्म की लालच में इतने भूखे हो चुके हैं कि उन्हें इंसानियत की भी फ़िक्र नहीं है। दागदार नेताओं को कोई सज़ा नहीं हुई, रविन्द्र और कविता, दोनों दुनिया में नहीं हैं, अब कुछ बचा है…तो यही बदनाम कहानी!