एलओसी का दर्द तो पूछिए

सज्जाद करगिली

बलतिस्तान (पाक अधिकृत) के एक प्रसिद्ध शायर स्वर्गीय हुस्नी ने अपने कारगिल दौरे के बाद लिखा था ‘एक दीवार की दूरी है कफस…ये न होती तो चमन में होते।‘ कारगिल लद्दाख का वह जिला है जो भारत और पाकिस्तान को लगने वाली नियंत्रण रेखा यानि एलओसी के बिल्कुल करीब स्थित है। जिसके दूसरी ओर बलतिस्तान का क्षेत्र षुरू हो जाता है। आजादी से पूर्व बलतिस्तान और लद्दाख कभी सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से एक हुआ करते थे। लेकिन अब यह पाकिस्तान का क्षेत्र है और दुनिया के नक्षे पर इसे गिलगित-बलतिस्तान के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में बलतिस्तान पाकिस्तान का एक राज्य है जबकि लद्दाख जम्मु कश्मी र राज्य का एक अंग है और 1995 में ‘लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल‘ के माध्यम से इसे स्वायत्ता प्रदान किया गया। यह क्षेत्र देश के अन्य भागों से अत्याधिक ठंढ़ा है लेकिन भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव की तपिश चाहे वह राजनीतिक रूप में हों अथवा युद्ध के रूप में, इसका असर हमेशा इन दोनों क्षेत्रों में देखने को मिलता है। इसका उदाहरण 1999 में कारगिल युद्ध है जिसमें स्थानीय निवासियों को काफी परेशानी उठानी पड़ी थी। इन क्षेत्रों में तैनात फौजियों को सभी सुविधाएं प्रदान की जाती हैं ताकि वह हांडमांस को कंपा देने वाली शून्य से भी कम डिग्री के तापमान को झेल सकें। इसके बावजूद कुछ समय बाद उनकी पोस्टिंग मैदानी क्षेत्रों में कर दी जाती है ताकि बर्फ के इस रेगिस्तान से उन्हें राहत मिल सके। लेकिन कभी किसी ने यहां की जनता की फिक्र की है? जो एक ओर मौसम की बेरूखी तो दूसरी ओर सरकार के उदासीपूर्ण रवैये के कारण सालों भर कठिनाईयों का सामना करते रहते हैं।

1947 मानव इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी के रूप में याद किया जाता है। जब दो देशों के निर्माण के लिए इंसानों का बटवारा हुआ था, हजारों परिवार जुदा हो गए थे। अपनों की जुदाई और बिछड़ने का ग़म वही महसूस कर सकता है जिसका एक भाई सरहद के उस पार हो और वह चाहकर भी अपने भाई के घर शादी की खुशियों में शामिल नहीं हो पाता है। यह दर्द वही महसूस कर सकता है जिसकी मां गुजर गई हो और वह सीमा पार कर अपनी मां को आखिरी कंधा देने के लिए तड़प रहा हो। सीमा रेखा केवल जमीन के दो टुकड़े ही नहीं करती है बल्कि यह लकीर रिश्तोंप का, जज़्बात का और इंसानियत का भी बटवारा कर देती है। इस संबंध में लद्दाख स्थित जोजिला वाच संगठन के संस्थापक प्रोफेसर जावेद नकी के अनुसार ‘एलओसी ने न केवल इंसानी जिंदगी को लाचार बना दिया है बल्कि यहां पाए जाने वाले पहाड़ी जानवरों के जीवन को भी प्रभावित किया है। नियंत्रण रेखा पर सैनिक गतिविधियों के कारण बड़ी संख्या में हिम तेंदुओं की आबादी प्रभावित हो रही है। जिसके कारण यह आबादी की ओर रूख करने लगे हैं। कई बार भोजन के लिए वह पालतू जानवरों और इंसानों पर हमला कर देते हैं। जो इनकी मौत का कारण भी बनता जा रहा है।‘ हालांकि यह खूंखार जानवर भी लद्दाखवासियों की तरह ही कठिन परिस्थितियों में भी जीवन बसर करने की क्षमता विकसीत करने का प्रयास कर रहा है। इसके बावजूद इस दुर्लभ प्राणी के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। इस संबंध में प्रोफेसर जावेद के इस कथन पर गंभीरता से विचार करना चाहिए जिसमें वह एलओसी को दो देशों की सीमा रेखा बनाने की बजाए अमन पार्क बनाने की सलाह देते हैं।

हमें इस संबंध में यूरोप के उन देशों से भी सबक लेनी चाहिए जो दो बड़े विष्व युद्ध में एक दूसरे के जानी दुष्मन थे और आज ऐसे दोस्त बने हैं कि उन्हें जुदा करना मुमकिन नहीं है। अफसोस की बात यह है कि यही बात इस क्षेत्र के रहनुमाओं को समझ में नहीं आ रहा है। उन्हें अपनी जनता की आवाज सुनने से कहीं अधिक सियासी रोटियां सेकना पंसद है। भारत और पाकिस्तान के मध्य अबतक जितने भी युद्ध हुए हैं उससे न तो भारत को कोई फायदा हुआ है न ही पाकिस्तान को और न ही इन दोनों देषों की जनता को। दोनों देशों के बीच रिश्तों् की अहमियत समझौता एक्सप्रेस ट्रेन और अमन का कारवां बस से सफर करने वाले यात्रियों से पूछिए, सियासी तनाव किस कदर उनकी मायूसी को बढ़ाता जाता है। भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव से सबसे ज्यादा फायदा यदि किसी को होता है तो वह अंतरराष्ट्रीपय स्तर पर इंसानियत मिटाने वाले हथियारों के सौदागरों को। ऐसे व्यापारिक दृष्टिकोण रखने वाले देशों के लीडर कभी नहीं चाहेंगे कि भारत और पाकिस्तान के संबंध मधुर हों। याद रखिए दो देशों के बीच तनाव से सबसे ज्यादा कोई प्रभावित होता है तो वह है उसकी सीमा पर बसे लोग। जिन्हें तनाव की कीमत अक्सर अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। इसका अंदाजा हमारे जैसे सीमा पर बसा इंसान ही लगा सकता है।

बहरहाल भारत और पाकिस्तान के बीच रिश्तोंत का यह एक ऐसा दर्द है जिसका इलाज शायद मुमकिन नहीं है मगर दर्द की जगह पर यदि कोई प्यार से हाथ फेर दे तो भी मरीज को दर्द में कमी का अहसास होने लगता है। इसलिए इन दोनों देशों में बसने वाले अमन के पैरोकारों, मानवाधिकार की बात करने वालों और अमन की आशा के नाम पर सेमिनार तथा कार्यक्रम प्रस्तुत करने वालों से मेरी प्रार्थना है कि यदि आप वास्तव में भारत और पाकिस्तान के बीच कड़वाहट को खत्म करने में गंभीरता से प्रयास करना चाहते हैं तो दोनों देशों के राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक और खेल जैसे विषयों पर बात कीजिए, उन्हें प्रचारित कीजिए। मैं केवल क्रिकेट की बात नहीं कर रहा हूं। बल्कि इसके अलावा और भी दूसरे खेल हैं जो सीमा के दोनों ओर पंसद किए जाते हैं। जैसे पोलो-यह खेल लद्दाख में जितने पंसद किए जाते हैं उतना ही बलतिस्तान में भी इस खेल के प्रशंसक मौजूद हैं। यह दोनों क्षेत्रों का परंपरागत खेल है। इसके प्रचार प्रसार में लगे अमीन पोलो कहते हैं कि यदि लद्दाख और बलतिस्तान के दरम्यान पोलो मैच कराया जाए तो सीमा पर बसे दोनों ही क्षेत्रों के लोगों के लिए यह न सिर्फ यादगार रहेगा बल्कि रिश्तोंच की गर्माहट की एक शुरूआत भी हो सकती है। वक्त आ चुका है कि अब जंग नहीं अमन की बात की जाए, बंदूक नहीं व्यापार को प्राथमिकता दी जाए, मरने और मारने की नहीं जिंदगी को गले लगाने की बात की जाए। वक्त अभी भी गुजरा नहीं है, बेहतर यह है कि पर्दे के पीछे से कठपुतलियों की तरह दोनों देषों को नचाने वाली शक्तियों को बेनकाब किया जाए। तनाव के बर्फ पिघलने चाहिए। सोचना यह है कि तनाव किसके लिए पैदा कर रहे हैं उस अवाम के लिए जो हर वक्त दोनों मुल्कों के बीच रिश्तों की मिठास चाहती है। (चरखा फीचर्स)

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