वैदिक सूक्तों के द्रष्टा स्मृतिकार महर्षि पराशर

महर्षि पराशर

महर्षि पराशर
महर्षि पराशर

अशोक “प्रवृद्ध”

वैदिक सूक्तों के द्रष्टा और ग्रंथकार के रूप में प्रसिद्ध गोत्रप्रवर्तक ऋषि पराशर शक्ति मुनि के पुत्र एवं ब्रह्मर्षि वशिष्‍ठ के पौत्र थे। इनकी माता का नाम अदृश्‍यन्ति था, जो उतथ्‍य मुनि की पुत्री थी। कहीं- कहीं इन्हें पाराशर भी कहा गया है। पौराणिक मान्यतानुसार पराशर प्राचीन भारतीय ऋषि मुनि परंपरा की श्रेणी में एक महान ऋषि महर्षि पराशर का जन्‍म अपने पिता शक्ति की मृत्‍यू के बाद हुआ था, तथापि गर्भावस्‍था में ही इन्‍होंने पिता द्वारा कही हुई वेद ऋचायें कंठस्‍थ कर ली थी। प्रमुख योग सिद्दियों के द्वारा अनेक महान शक्तियों को प्राप्त करने वाले ऋषि पराशर महान तप और साधना भक्ति द्वारा जीवन के पथ प्रदर्शक के रुप में जाने जाते हैं। वेदव्यास कृष्ण द्वैपायन के पिता महर्षि पराशर जी का दिव्‍य जीवन चरित्र अत्‍यंत अलौकिक व अद्वितीय है, जिन्होंने धर्मशास्‍त्र, ज्‍योतिष, वास्‍तुकला, आयुर्वेद, नीतिशास्‍त्र, विषयक ज्ञान मानव मात्र को दिया। महर्षि पराशर रचित ग्रन्‍थ वृहत्‍पराशर होराशास्‍त्र, लघुपराशरी, वृहत्‍पराशरीय धर्म संहिता, पराशर धर्म संहिता, पराशरोदितम, वास्‍तुशास्‍त्रम, पराशर संहिता (आयुर्वेद), पराशर महापुराण, पराशर नीतिशास्‍त्र, आदि मानव के लिए कल्‍याणार्थ रचित ग्रन्‍थ लोकख्यात हैं। प्राचीन काल के शास्त्रियों में प्रसिद्ध पराशर के नाम पर ऋग्वेद के कई सूक्त हैं।

पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार ऋषि पराशर के पिता शक्ति मुनि का देहांत इनके जन्म के पूर्व हो चुका था। अतः इनका पालन पोषण इनके पितामह वसिष्ठ ने किया था। यही ऋषि पराशर वेद व्यास कृष्ण द्वैपायन के पिता थे। अपने पितामह वशिष्‍ठ के द्वारा पालन –पोषण किये जाने और उनके पास ही रहकर विद्याध्‍ययन करने के कारण पराशर वशिष्‍ठ को ही अपना पिता समझते थे। एक बार पराशर की माता अदृश्यंती ने पराशर से कहा पुत्र जिन्‍हें तुम पिता कहते हो वे वास्‍तव में तुम्‍हारे पिता नहीं पितामह हैं। पराशर के पूछने पर माता अदृश्‍यन्ती ने समस्‍त जानकारी उन्‍हें उपलब्ध करा दी कि किस प्रकार तुम्‍हारे पिता को राक्षस ने तुम्‍हारे जन्‍म से पूर्व ही मार डाला था। महाभारत, आदिपर्व अध्याय 177 से 180 के संक्षेप के अनुसार जब पराशर बडे़ हुए तो माता अदृश्यंती से इन्हें अपने पिता की मृत्यु का पता चला कि किस प्रकार राक्षस ने इनके पिता का और परिवार के अन्य जनों का वध किया। यह घटना सुनकर वह बहुत क्रोधित हुए और राक्षसों सहित समस्त लोकों का नाश करने के लिए उद्यत हो उठे। वसिष्ठ ने उन्हें बहुत समझा –बुझाकर शांत किया परन्तु क्रोधाग्नि व्यर्थ नहीं जा सकती थी, अत: समस्त लोकों का पराभव न करके पराशर ने राक्षसों के नाश के निमित्त राक्षस सत्र नामक यज्ञ आरंभ किया। सत्र में प्रज्वलित अग्नि से अनेक निरपराध राक्षस भी नष्ट होने लगे। इस प्रकार इस महाविनाश और दैत्यों के वंश ही समाप्त हो जाने की आशंका को देखकर निर्दोष राक्षसों को बचाने के लिए पुलस्त्य समेत अन्य ऋषियों ने पराशर ऋषि को जाकर समझाया और कहा कि ब्राह्मणों को क्रोध शोभा नहीं देता। शक्ति का नाश भी उसके दिये शाप के फलस्वरूप ही हुआ। हिंसा ब्राह्मण का धर्म नहीं है। इस प्रकार समझा-बुझाकर उन्होंने पराशर का यज्ञ समाप्त करवा दिया तथा संचित अग्नि को उत्तर दिशा में हिमालय के आस- पास वन में छोड़ दिया। वह आज भी वहाँ पर्व के अवसर पर राक्षसों, वृक्षों तथा पत्थरों को जलाती है।

महाभारत के ही एक कथा के अनुसार माघ महीने के शुक्ल पक्ष क़ी एकादशी तिथि को एक बार भगवान सूर्य देव मकर राशि में प्रवेश करने वाले थे। उसी दिन महर्षि पाराशर का एकादशी का व्रत था तथा उन्हें मकर संक्रांति का स्नान भी करना था। उस समय महर्षि पराशर प्रभास क्षेत्र में थे और वहाँ से उन्हें यमुना को पार कर के फिर कान्यकुब्ज क़ी सीमा में प्रवेश करना था। वह यमुना के तट पर पहुंचे और उन्होंने मल्लाह को पुकारा। मल्लाह घर पर उस समय नहीं था। उसकी बेटी मत्स्यगंधा घर पर थी। जिसके शरीर से सदा मछली क़ी बदबू आती रहती थी। मल्लाह ने उसे एक मछली के पेट से निकाला था और उसके शरीर से मछली सी गंध आने के कारण उसका नाम मत्स्यगंधा पड़ गया था। उसका वास्तविक नाम मत्स्योदरी था। उसका सत्यवती नाम भी था। मत्स्यगंधा ने बताया कि उसके पिता अभी जंगल में कहीं गये हुए है। महर्षि ने कहा कि उन्हें अतिशीघ्र अभी उस पार जाना है और उसके बाद भी लम्बी दूरी तय करनी पड़ेगी। समझ में नहीं आता कि कैसे उस पार जाया जाय? मत्स्योदरी ने प्रतीक्षा करने के लिए कहा परन्तु महर्षि ने कहा कि तुम ही नाव चला कर उस पार ले चलो। महर्षि के प्रस्ताव को मत्स्योदरी ने अस्वीकार कर दिया। इस पर महर्षि ने कहा कि यदि उनका व्रत खंड होगा तों उसका पाप तुम्हे ही भुगतना पड़ेगा। यह सुन मत्स्यगंधा भयभीत हो गयी और उसने तत्क्षण नाव खोल कर महर्षि को बिठा नाव लेकर चल पड़ी। जब नाव कुछ दूर चली गयी तों महर्षि का चित्त विचलित होने लगा और उनमे वासना चलायमान हो गयी। महर्षि ने ध्यान लगाया तो भवितव्यता उन्हें दिखाई दे गयी। उन्होंने आँख खोली और फिर मत्स्यगंधा का हाथ पकड़ कर प्रणय के लिये आग्रह करने लगे। महर्षि को काम के वशीभूत देख मत्स्यगंधा बोली कि हे ऋषिवर! आप एक पूज्य एवं अति श्रेष्ठ दिव्य व्यक्तित्व हो। यह व्यवहार आप के लिये शोभा नहीं देता। महर्षि ने कहा कि ऐसा करने पर तुम भी मेरे प्रताप से सामान्य स्त्री नहीं रह जाओगी और जो तुम्हारे शरीर से सड़े मछली क़ी बू आती है उसे मैं अपने तपोबल से दूरकर पुष्पगंधा बना दूँगा। हमारे संपर्क से तुम्हारा कन्याभाव नष्ट न होगा और तुम्हारे शरीर की दुर्गंध दूर होकर एक योजन तक सुंगध फैलने लगेगी, यह वर पराशर ने सत्यवती को दिए। महर्षि ने अपने उद्योग से उसे अति खूबसूरत एवं मनमोहक सुगंध विखेरने वाली युवती बना दिया। जिससे चारों दिशायें भीनी- भीनी मीठी सुगंध से सुगन्धित हो उठीं। इस पर मत्स्यगंधा बोली कि ऐसे खुले आकाश के नीचे यह कार्य निंदनीय है। इस पर महर्षि पराशर ने अपने उद्योग से वहाँ घना कुहरा उत्पन्न किया जिससे चारो तरफ अन्धेरा हो गया। पौराणिक गाथाओं के अनुसार कुहरे का जन्म महर्षि पराशर के द्वारा हुआ था, तभी से कुहरा पड़ना शुरू हो गया। महर्षि के इस चरित्र का सांकेतिक उल्लेख कालिदास ने भी कुमारसम्भवम में किया है। इस प्रकार मत्स्यगंधा एवं महर्षि पराशर के इस संयोग से महर्षि वेदव्यास का जन्म हुआ, जिन्होंने चारो वेद एवं अठारह पुराणों क़ी रचना क़ी। मत्स्यगंधा के पुष्पगन्धा बनने की इस कथा से यह भी स्पष्ट होता है कि महर्षि पराशर एक ज्योतिषाचार्य ही नहीं अपितु एक कुशल एवं उत्कृष्ट चिकित्सा विज्ञान विशेषज्ञ थे। इन्होने स्मृति शास्त्र की भी रचना की, जिसे पाराशर स्मृति के नाम से जाना जाता है। बारह अध्यायों में विभक्त पाराशर-स्मृति में इसके प्रणेता भगवान् वेदव्यास के पिता ऋषि पराशर ने चारों युगों की धर्मव्यवस्था को समझकर सहजसाध्य रूप में धर्म की मर्यादा निर्दिष्ट की है तथा कलियुग में दानधर्म को ही प्रमुख बताया है-
तप: परं कृतयुगे त्रेतायांज्ञानमुच्यते।
द्वापरे यज्ञमित्यूचुदनिमेकं कलौयुगे। – पाराशर स्मृति 1/23
इसके प्रथम अध्याय के अनुसार सतयुग में प्राण अस्थिगत, त्रेता युग में मांसगत, द्वापर युग में रुधिर में तथा कलि युग में अन्न में बसते हैं। कलियुग में आचार-विचार-परिपालन मुख्य धर्म है। तृतीय अध्याय में शिशुओं, गर्भपति में अशौच एवं यज्ञोपवीत होने तक अशौच व्यवस्था वर्णित है। चौथे अध्याय में गर्भपात को ब्रह्महत्या तुल्य मानते हुए इससे दूना पाप का भागी होना बताया गया है। छठे अध्याय में किसी भी प्राणी के वध को पाप कहा गया है तथा इनके प्रायश्चित का विधान बताया गया है। नौवें अध्याय में स्त्री, बालक, सेवक, रोगी तथा दु:खियों पर कोप न करने का निदेश है-
स्त्री बालभृत्य गोवि प्रेष्वति कोपं विवर्जयेत।- पाराशर स्मृति 9/62
बारहवें अध्याय में किसी पापी के साथ शयन, संसर्ग, एक आसन पर बैठना तथा भोजन करना भी पाप कहा गया है, जिसके प्रायश्चित्त के लिए गोव्रत पालन का निदेश है-
गवां चैवानुगमनं सर्वपापप्रणाशनम्।- पाराशर स्मृति 12/12

पराशर ऋषि ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें से ज्योतिष के उनके ग्रंथ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। पराशर के द्वारा रचित बृहतपराशरहोरा शास्त्र अत्यंत प्रचलित है। इन्होंने फलित ज्योतिष सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। एक कथा के अनुसार एक बार महर्षि मैत्रेय के द्वारा आचार्य पराशर से ज्योतिष के तीन अंगों के बारे में उन्हें ज्ञान प्रदान करने के लिए विनती किये जाने पर पराशर ने होरा, गणित, और संहिता तीन अंगों का वर्णन किया है। जिसमें होरा सबसे अधिक महत्वपूर्ण है और होरा शास्त्र की रचना महर्षि पराशर के द्वारा हुई है। महर्षि पराशर के दवारा रचित अनेक ग्रन्थों का उल्लेख परवर्ती विद्वानों ने अपने ग्रंथों में किया है। महाभारत, शांतिपर्व, 291-297 के अनुसार भीष्माचार्य ने धर्मराज को पराशरोक्त गीता का उपदेश किया है। पराशर रचित पराशरोदितं का विश्वकर्मा ने अपने ग्रन्थ वास्तुशास्त्रम्‌ में उल्लेख किया है।

पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार कई अन्य पराशर हुए हैं, जिन्होंने पराशरी गोत्र अर्थात शाखा चलाई जिसके कारण उन्हें भी पराशर की संज्ञा प्राप्त है। वायुपुराण 1- 60 और ब्रह्मांडपुराण 2- 34 के अनुसार वेदव्यास की ऋग्वेद-शिष्य-परंपरा में बाष्कल का शिष्य हुए हैं । जिनकी चलाई हुई शाखा पराशरी नाम से प्रसिद्ध है। यह श्रुतर्षि, ऋषिक और ब्रह्मचारी था ।वायुपुराण 1- 61 व ब्रह्मांडपुराण 2- 35 के अनुसार वेदव्यास की सामवेद-शिष्य-परंपरा में हिरण्य नाम का शिष्य पराशर हुए। इसका ब्रह्मांडपुराण में पाराशर्य पाठभेद है। ब्रह्मांडपुराण 2- 35 तथा वायुपुराण 1- 61 के अनुसार वेदव्यास की सामवेद-शिष्य-परंपरा में कुथुमि का शिष्य पराशर हुए। ब्रह्मांड 3, 65 के अनुसार वेदव्यास की यजुः शिष्य-परंपरा में स्थित याज्ञवल्क्य के वाजसनेय शाखा का शिष्य और शिवपुराण शतरुद्रिय संहिता 4-5 व वायुपुराण 1-23 के अनुसार ऋषभ नामक शिव के अवतार का शिष्य पराशर हुए। महाभारत आदिपर्व 57, 19 कुंभकोणप्रति के अनुसार जनमेजय के सर्पसत्र में मारे गए सर्पों में धृतराष्ट्र नामक कुल का एक सर्प के साथ ही मत्स्यपुराण में सौदास कल्माषपाद के पुत्र का रक्षण करने वाले पराशर का वर्णन मिलता है।

पाराशर ज्‍योतिषियों का गोत्र है। ध्यातव्य हो कि इस गोत्र के लोग ज्‍योतिषीय गणनाएं न भी करें तो भी ये भविष्‍य देखने के प्रति और परा भौतिक दुनिया के प्रति अधिक झुकाव रखने वाले लोग होते हैं। भारद्वाज और कश्‍यप गोत्र की तुलना में ये लोग समस्‍याओं के समाधान एक साथ और स्थायी ढूंढने की कोशिश करते हैं और अधिकतर सांसारिक समस्‍याओं से पलायन करते हैं। ऐसे में परा से इन लोगों का अधिक संपर्क होता है। मत्स्य पुराण अध्याय 201 के अनुसार इनसे प्रवृत्त पराशर गोत्र में गौर, नील, कृष्ण, श्वेत, श्याम और धूम्र छह भेद हैं। गौर पराशर आदि के भी अनेक उपभेद मिलते हैं। उनके पराशर, वसिष्ठ और शक्ति तीन प्रवर हैं।

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अशोक “प्रवृद्ध”
बाल्यकाल से ही अवकाश के समय अपने पितामह और उनके विद्वान मित्रों को वाल्मीकिय रामायण , महाभारत, पुराण, इतिहासादि ग्रन्थों को पढ़ कर सुनाने के क्रम में पुरातन धार्मिक-आध्यात्मिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक विषयों के अध्ययन- मनन के प्रति मन में लगी लगन वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन-मनन-चिन्तन तक ले गई और इस लगन और ईच्छा की पूर्ति हेतु आज भी पुरातन ग्रन्थों, पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन , अनुसन्धान व लेखन शौक और कार्य दोनों । शाश्वत्त सत्य अर्थात चिरन्तन सनातन सत्य के अध्ययन व अनुसंधान हेतु निरन्तर रत्त रहकर कई पत्र-पत्रिकाओं , इलेक्ट्रोनिक व अन्तर्जाल संचार माध्यमों के लिए संस्कृत, हिन्दी, नागपुरी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में स्वतंत्र लेखन ।

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