शूद्रों को ब्राह्‌मण बनाने वाले परशुराम

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 भगवान परशुराम जयंती 24 अप्रेल के अवसर पर विशेष आलेख

प्रमोद भार्गव

हमारे धर्म ग्रंथ और कथावाचक ब्राह्‌मण भारत के प्राचीन पराक्रमी नायकों की संहार से परिपूर्ण हिंसक घटनाओं के आख्‍यान तो खूब सुनाते हैं, लेकिन उनके समाज सुधार से जुड़े जो क्रांतिकारी सरोकार थे, उन्‍हें लगभग नजरअंदाज कर जाते हैं। विष्‍णु के दशावतारों में से एक माने जाने वाले भगवान परशुराम के साथ भी कमोबेश यही हुआ। उनके आक्रोश और पृथ्‍वी को इक्‍कीस बार क्षत्रियविहीन करने की घटना को खूब प्रचारित करके वैमस्‍यता फैलाने का उपक्रम किया जाता है। पिता की आज्ञा पर मां रेणुका का सिर धड़ से अलग करने की घटना को भी एक आज्ञाकारी पुत्र के रुप में एक प्रेरक आख्‍यान बनाकर सुनाया जाता है। किंतु यहां यह सवाल खड़ा होता है कि क्‍या व्‍यक्‍ति केवल चरम हिंसा के बूते जन-नायक के रुप में स्‍थापित होकर लोकप्रिय हो सकता हैं ? क्‍या हैह्‌य वंश के प्रतापी महिष्‍मति नरेश कार्तवीर्य अर्जुन के वंश का समूल नाश करने के बावजूद पृथ्‍वी क्षत्रियों से विहीन हो पाई ? रामायण और महाभारत काल में संपूर्ण पृथ्‍वी पर क्षत्रिय राजाओं के राज्‍य हैं। वे ही उनके अधिपति हैं। इक्ष्‍वाकु वंश के मर्यादा पुरुषोत्‍तम राम को आशीर्वाद देने वाले, कौरव नरेश धृतराष्‍ट को पाण्‍डवों से संधि करने की सलाह देने वाले और सूत-पुत्र कर्ण को ब्रह्‌मशास्‍त्र की दीक्षा देने वाले परशुराम ही थे। ये सब क्षत्रिय थे। अर्थात परशुराम क्षत्रियों के शत्रु नहीं शुभचिंतक थे। परशुराम केवल आततायी क्षत्रियों के प्रबल विरोधी थे।

समाज सुधार और जनता को रोजगार से जोड़ने में भी परशुराम की अंहम्‌ भूमिका अतंनिर्हित है। केरल, कच्‍छ और कोंकण क्षेत्रों में जहां परशुराम ने समुद्र में डूबी खेती योग्‍य भूमि निकालने की तकनीक सुक्षाई, वहीं परशु का उपयोग जंगलों का सफाया कर भूमि को कृषि योग्‍य बनाने के काम में भी किया। यहीं परशुराम ने शुद्र माने जाने वाले दरिद्र नारायणों को शिक्षित व दीक्षित कर उन्‍हें ब्राहम्‍ण बनाया। यज्ञोपवीत संस्‍कार से जोड़ा और उस समय जो दुराचारी व आचरणहीन ब्राहम्‍ण थे, उन्‍हें शूद्र घोषित कर उनका सामाजिक बहिष्‍कार किया। परशुराम के अंत्‍योदय के प्रकल्‍प अनूठे व अनुकरणीय हैं। जिन्‍हें रेखांकित किए जाने की जरुरत है।

वैसे तो परशुराम का समय इतना प्राचीन है कि उस समय का एकाएक आकलन करना नमुमकिन है। जमदग्‍नि परशुराम का जन्‍म हरिशचन्‍द्र-कालीन विश्‍वामित्र से एक-दो पीढ़ी बाद का माना जाता है। यह समय प्राचीन संस्‍कृत ग्रंथों में ‘अष्‍टादश परिवर्तन युग’ के नाम से जाना गया है। अर्थात यह 7500 वि.पू. का समय ऐसे संक्रमण काल के रुप में दर्ज है, जिसे बदलाव का युग माना गया। इसी समय क्षत्रियों की शाखाएं दो कुलों में विभाजित हुईं। एक सूर्यवंश और दूसरा चंद्रवंश। चंद्रवंशी पूरे भारतवर्ष में छाए हुए थे और उनके प्रताप की तूती बोलती थी। हैह्‌य अर्जुन वंश चंद्रवंशी था। इन्‍हें यादवों के नाम से भी जाना जाता था। महिष्‍मती नरेश कार्तवीर्य अर्जुन इसी यादवी कुल के वंशज थे। भृगु ऋषि इस वंद्रवंश के राजगुरु थे। जमदग्‍नि राजगुरु परंपरा का निर्वाह कार्तवीर्य अर्जुन के दरबार में कर रहे थे। किंतु अनीतियों का विरोध करने के कारण कार्तवीर्य अर्जुन और जमदग्‍नि में मतभेद उत्‍पन्‍न हो गए। परिणामस्‍वरुप जमदग्‍नि महिष्‍मति राज्‍य छोड़ कर चले गए। इस गतिविधि से रुष्‍ठ होकर सहस्‍त्रबाहू कार्तवीर्य अर्जुन आखेट का बहाना करके अनायास जमदग्‍नि के आश्रम में सेना सहित पहुंच गया। ऋषि जमदग्‍नि और उनकी पत्‍नी रेणुका ने अतिथि सत्‍कार किया। लेकिन स्‍वेच्‍छाचारी अर्जुन युद्ध के उन्‍माद में था। इसलिए उसने प्रतिहिंसा स्‍वरुप जमदग्‍नि की हत्‍या कर दी। आश्रम उजाड़ा और ऋषि की प्रिय कामधेनु गाय को बछड़े सहित बलात्‌ छीनकर ले गया। अनेक ब्राहम्‍णों ने कान्‍यकुब्‍ज के राजा गाधि राज्‍य में शरण ली। परशुराम जब यात्रा से लौटे तो रेणुका ने आपबीती सुनाई। इस घटना से कुपित व क्रोधित होकर परशुराम ने हैहय वंश के विनाश का संकल्‍प लिया। इस हेतु एक पूरी सामरिक रणनीति को अंजाम दिया। दो वर्ष तक लगातार परशुराम ने ऐसे सूर्यवंशी और यादववंशी राज्‍यों की यात्राएं की जो हैह्‌य वंद्रवंशीयों के विरोधी थे। वाकचातुर्थ और नेतृत्‍व दक्षता के बूते परशुराम को ज्‍यादातर चंद्रवंशीयों ने समर्थन दिया। अपनी सेनाएं और हथियार परशुराम की अगुवाई में छोड़ दिए। तब कहीं जाकर महायुद्ध की पृष्‍ठभूमि तैयार हुई।

इसमें परशुराम को अवन्‍तिका के यादव, विदर्भ के शर्यात यादव, पंचनद के द्रुह यादव, कान्‍यकुब्‍ज ;कन्‍नौज, के गाधिचंद्रवंशी, आर्यवर्त सम्राट सुदास सूर्यवंशी, गांगेय प्रदेश के काशीराज, गांधार नरेश मान्‍धता, अविस्‍थान ;अफगानिस्‍तान,, मुजावत ;हिन्‍दुकुश,, मेरु ;पामिर,, श्री ;सीरिया, परशुपुर; पारस, वर्तमानफारस, सुसर्तु ;पंजक्षीर, उत्‍तर कुरु ;चीनी सुतुर्किस्‍तान, वल्‍क, आर्याण ;ईरान, देवलोक; षप्‍तसिंधु, और अंग-बंग ;बिहार के संथाल परगना से बंगाल तथा असम तक के राजाओं ने परशुराम का नेतृत्‍व स्‍वीकारते हुए इस महायुद्ध में भागीदारी की। जबकि शेष रह गई क्षत्रिय जातियां चेदि ;चंदेरी, नरेश, कौशिक यादव, रेवत तुर्वसु, अनूप, रोचमान कार्तवीर्य अर्जुन की ओर से लड़ीं। इस भीषण युद्ध में अंततः कार्तवीर्य अर्जुन और उसके कुल के लोग तो मारे ही गए। युद्ध में अर्जुन का साथ देने वाली जातियों के वंशजों का भी लगभग समूल नाश हुआ। भरतखण्‍ड में यह इतना बड़ा महायुद्ध था कि परशुराम ने अंहकारी व उन्‍मत्‍त क्षत्रिय राजाओं को, युद्ध में मार गिराते हुए अंत में लोहित क्षेत्र, अरुणाचल में पहुंचकर ब्रहम्‍पुत्र नदी में अपना फरसा धोया था। बाद में यहां पांच कुण्‍ड बनवाए गए जिन्‍हें समंतपंचका रुधिर कुण्‍ड कहा गया है। ये कुण्‍ड आज भी अस्‍तित्‍व में हैं। इन्‍हीं कुण्‍डों में भृगृकुलभूषण परशुराम ने युद्ध में हताहत हुए भृगु व सूर्यवंशीयों का तर्पण किया। इस विश्‍वयुद्ध का समय 7200 विक्रमसंवत पूर्व माना जाता है। जिसे उन्‍नीसवां युग कहा गया है।

इस युद्ध के बाद परशुराम ने समाज सुधार व कृषि के प्रकल्‍प हाथ में लिए। केरल,कोंकण मलबार और कच्‍छ क्षेत्र में समुद्र में डूबी ऐसी भूमि को बाहर निकाला जो खेती योग्‍य थी। इस समय कश्‍यप ऋषि और इन्‍द्र समुद्री पानी को बाहर निकालने की तकनीक में निपुण थे। अगस्‍त्‍य को समुद्र का पानी पी जाने वाले ऋषि और इन्‍द्र का जल-देवता इसीलिए माना जाता है। परशुराम ने इसी क्षेत्र में परशु का उपयोग रचनात्‍मक काम के लिए किया। शूद्र माने जाने वाले लोगों को उन्‍होंने वन काटने में लगाया और उपजाउ भूमि तैयार करके धान की पैदावार शुरु कराईं। इन्‍हीं शूद्रों को परशुराम ने शिक्षित व दीक्षित करके ब्राहम्‍ण बनाया। इन्‍हें जनेउ धारण कराए। और अक्षय तृतीया के दिन एक साथ हजारों युवक-युवतियों को परिणय सूत्र में बांधा। परशुराम द्वारा अक्षयतृतीया के दिन सामूहिक विवाह किए जाने के कारण ही इस दिन को परिणय बंधन का बिना किसी मुहूर्त के शुभ मुहूर्त माना जाता है। दक्षिण का यही वह क्षेत्र हैं जहां परशुराम के सबसे ज्‍यादा मंदिर मिलते हैं और उनके अनुयायी उन्‍हें भगवान के रुप में पूजते हैं।

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