अब ऐसे परिवर्तन का हो शंखनाद / नरेश भारतीय

0
114

imagesराजनीति को विष बताने के बावजूद राहुल गांधी ने देश के पूंजीपति और उद्योगपति समुदाय के समक्ष बोलते हुए आगामी लोकसभा चुनाव दंगल में अपने प्रवेश का शंखनाद करने का उपक्रम किया है. भले ही वे बार बार यह जतलाने का प्रयास करते हैं कि उन्हें प्रधानमंत्री बनने से कोई सरोकार नहीं है इस पर भी ऐसा मानने का कोई कारण दिखाई नहीं देता कि वे अपनी वंश परम्परा के अनुरूप अपना भाग्य आज़माने से पीछे रहेंगे. अपने वंश की पृष्ठभूमि की सुरक्षा में कुछ वर्षों से आगे बढ़ाए जाते हुए, पार्टी के उपाध्यक्ष पद पर पहुंचा दिए जाने के बाद, राहुल अपने दल और देश दोनों को अपनी सोच के अनुसार ढालने की तत्परता प्रदर्शित करने की चेष्ठा में रहे हैं. अपनी बात कहने की जितनी स्वतंत्रता और अधिकार उन्हें प्राप्त हैं निश्चय ही पार्टी के अन्य पदाधिकारियों और प्रवक्ताओं को नहीं है. लेकिन अब तक उनके संभाषणों से न तो यह स्पष्ट हो पा रहा है कि देश की अनेकविध गंभीर समस्याओं के समाधान की दृष्टि से उनकी सोच क्या है और न ही वे जनता को यह आश्वासन दे पा रहे हैं कि वे देश में बेहतर परिवेश की उसकी अपेक्षाओं की कसौटी पर पूरा उतर पाएँगे. उन्होंने अपने दल के काम करने के तौर तरीकों में फेर बदल से लेकर देश में प्रशासकीय व्यवस्थाओं में परिवर्तन की आवश्यकता को दोहराया है, देश के लिए विकास योजनाओं में समाज के सभी वर्गों की सीधी भागीदारी की वकालत करते हुए उद्योगपतियों के सहयोग की मांग की है. लेकिन अपनी इन आदर्श परिकल्पनाओं को व्यावहारिक वास्तिकता कैसे बनाएंगे यह नहीं बताया. निष्कर्षत: उन्होंने वर्तमान व्यवस्थाओं की कमियों को तो गिनाया लेकिन उन्हें दूर करने के लिए किसी योजना का कोई प्रारूप प्रस्तुत नहीं किया.

देश के वर्तमान जागरूक वातावरण में जनता का समर्थन पाने के लिए यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है कि चुनावी स्पर्धा में उतरने वाले सभी पक्षों के महत्वाकांक्षी नेता उन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करें जिनकी जनता ने हाल के वर्षों और महीनों में मुखरित चर्चा की है, आन्दोलन खड़े किए हैं और अपना आक्रोश भी प्रकट किया है. राहुलजी ने देश में राजनीतिक व्यवस्था ढांचे में परिवर्तन की आवश्यकता पर बल दिया. कांग्रेस पार्टी में नयी स्फूर्ति उत्पन्न करने की बात भी वे कह चुके हैं. तदर्थ यदि उनका आशय किसी राजनीतिक दल के ढांचे या तौर तरीकों में परिवर्तन से है तो सार्वजनिक भाषणों में तत्संबंधी चर्चा का कोई महत्व नहीं. यदि यह नहीं है तो फिर कैसा राजनीतिक व्यवस्था परिवर्तन चाहते हैं वे? क्या उन्होंने सरकारी विभागों में प्रशासकीय ढांचे या व्यवस्था परिवर्तनों की कोई ऐसी योजना सोची है जिनका सुविधाओं की दृष्टि से जनहितपरक होना समय की आवश्यकता है? औद्योगिक विस्तार और निवेश को प्रोत्साहन देने के लिए विश्वसनीय, सुगम और भ्रष्टाचार-मुक्त व्यवस्थाओं को जुटाना एक ज़िम्मेदार सरकार के द्वारा यह एक सतत प्रक्रिया का अंग होना चाहिए. सरकारी नियंत्रण की जनसेवाओं की दैनंदिन परख उपभोक्ता ही कर सकते हैं इसलिए उनकी प्रतिक्रिया का आकलन ही नहीं अपितु उस पर ध्यान दिया जाए.

आज एक ऐसे भारत राष्ट्र की समस्याओं को गहराई से जांचने समझने और उनके युक्ति-सम्मत समाधान खोजने की आवश्यकता है जो सदियों की परतंत्रता से मुक्ति पा कर स्वाधीन तो हुआ है परन्तु स्वतंत्र को पूरी तरह से प्राप्त नहीं कर सका है. लोकतंत्रीय व्यवस्था चुनावों के माध्यम से ज़िम्मेदार राजनीतिकों के द्वारा देश और समाज के हितों को ध्यान में रखते हुए समाधानों की खोज में नेतृत्व क्षमताओं का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत करती है. आने वाले चुनावी दंगल में प्रकटत: देश की शीर्ष नेतृत्व क्षमता का ऐसा तुलनात्मक अध्ययन, सीधा आमना सामना करते दिखाई देने वाले दो नेताओं, कांग्रेस के राहुल गाँधी और भाजपा के नरेंद्र मोदी, के बीच हो रहा है. कम से कम इन पंक्तियों के लिखे जाते वक्त तो यही स्थिति है. इसी लिए राहुल के शुद्ध सैद्धांतिक भाषणों को धरातल पर वज़नदार बनाने के लिए कांग्रेसी प्रवक्ता तुरंत बयानबाज़ी करते रहे हैं. हाल ही में राहुल के भाषण को उनकी ‘समग्र विकास योजना’ तक का नाम दे दिया गया. प्रकटत: यह गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा गुजरात में सफल सिद्ध ‘विकास मॉडल’ के देश को समर्पित किए जाने के जवाब में किया जाने वाला एक प्रयत्न है. एक को सप्रमाण सफल, सिद्ध और सक्षम विकास मॉडल बताया गया है तो उसकी तुलना में दूसरा अभी मात्र एक विचार कल्पना है.

तेज़ी के साथ आगामी लोकसभा के लिए चुनावी युद्ध की तैयारियां शुरू हो गई हैं. इस बीच देश के अन्दर दिनरात जुटे हुए राजनीतिक गणितज्ञों के द्वारा ये कयास लगाए जा रहे हैं कि चुनाव समयपूर्व हो सकते हैं. गठबंधन की राजनीति भारत में लगभग अपना स्थायी स्थान बना चुकी है. हाल के वर्षों में क्षेत्रीय पार्टियों की भूमिका को केन्द्र में गठबंधन की सरकार बनाए जाने की बाध्यता के कारण विस्तार मिला है. ज्यों ज्यों उन्हें मुख्य दलों कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व में उनके सहयोगी बनने और उनकी सरकारों में भागीदार होने का अवसर मिला है उन्हें अपनी बढती हुई ताकत का अहसास होता चला गया है. इस समय वही शक्ति परीक्षण चल रहा है. इसमें इन पार्टियों के अपने क्षेत्रीय हितों के साथ साथ उनके साथ जुड़े कुछ नेताओं की अपनी महत्वकांक्षाएँ भी काम कर रहीं हैं. चुनाव अगले वर्ष हों या इस वर्ष युद्ध के मैदान में उतरने वाले दोनों मुख्य पक्ष कांग्रेस और भाजपा अपने अपने सेनापतियों को चुनने की बनी हुई चुनौती से दरपेश हैं. कांग्रेसी नेता जो अरसे से राहुल के प्रधानमंत्रित्व का राग लगातार अलापते आए हैं अन्दर ही अंदर स्थतियों का पुनर्मूल्यांकन करते भी नज़र आते हैं. यह संभव है कि राहुल के विकल्प पर इसलिए विचार किया जाए क्योंकि कई कांग्रेसी नेताओं के मन में उनकी नेतृत्व क्षमताओं का प्रश्न कांग्रेस के लिए परेशानी उत्पन्न करने वाला बनता नज़र आता है. इसके विपरीत भाजपा में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव लड़ने की संभावनाएं दिन प्रतिदिन बलवती हो रहीं हैं. उनकी प्रमाणित क्षमता और अविराम बढ़ती हुई लोकप्रियता पर किसी को कोई शंका नहीं है, भले ही उनके नाम पर अंतिम निर्णय को फिलहाल टाला जा रहा है.

स्पर्धात्मक राजनीतिक वाकयुद्ध तेज़ हो रहा है. उसमें जिस प्रकार अभद्रता की सीमाए लांघी जा रहीं हैं वह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है. अभद्र भाषा प्रयोग नरेंद्र मोदी को भाजपा के द्वारा मैदान में उतारे जाने की संभावना के बलवती होते ही कांग्रेस पक्ष से शुरू हुआ जो उनमें मची खलबली का संकेत देता है. लोकतंत्र में, चुनावी युद्धक्षेत्र में उतरते हुए आवश्यकता यह है कि वाणी संयम के साथ इस बल और सूझ बूझ का परिचय दिया जाए जो राष्ट्रहित सर्वोपरि के उद्घोष के साथ देश की महती समस्याओं के प्रभावी एवं सम्यक समाधान की दिशा में अग्रसर करे. आज देश के लोगों को सर्वत्र व्याप्त घोर भष्टाचार, हर तरह के विध्वंसकारी एवं अलगाववादी आतंकवाद और सामाजिक असुरक्षा-जनित अराजकता के शोचनीय वातावरण में राहत देने वाले प्रभावी और व्यावहार कुशल नेतृत्व की आवश्यकता है. ऐसा नेतृत्व जिसके पास इन महती समस्याओं के प्रभावी समाधान के लिए ठोस कार्यक्रम हों और वे सत्तासीन होने पर उन्हें सुचारू रूप से लागू करने का संकल्प भी प्रस्तुत कर सके.

देश की जनता पूर्वापेक्षा अपनी आवश्यकताओं और अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक है और निस्संदेह हाल की कुछ घटनाओं के परिप्रेक्ष्य में जनशक्ति का जैसा प्रखर प्रकटीकरण हुआ है वह ठोस परिवर्तन के उसके आग्रह को मुखरित करता है. समय आ गया है कि अब मुद्दों की लड़ाई लड़ी जाए और समाधानों की क्षमता और संकल्पसिद्धता दिखाई जाए. सामाजिक विभाजन और साम्प्रदायिक आधार पर की जाने वाली स्वार्थपूर्ण राजनीति जो अर्धशताब्दी से भी अधिक समय से चलाई जा रही है उसे विराम दिया जाए. समूचे समाज को समान भारतीयता का विराट स्वरूप दर्शन करने का अवसर प्रदान किया जाए. शासन देश के राष्ट्रियों को समानता का दर्जा दे, उन्हें टुकड़ों में बाँट कर न देखे और न ही उन्हें स्वयं को छोटा या बड़ा, ऊँचा या नीचा देखने और आरक्षणों के लिए याचक बनने देने के लिए विवश करे.

एक श्रेष्ठ लोकतंत्र में समानता की यही भाव भूमि जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त करने की उर्जा का निर्माण करने का मापदंड बनने के योग्य है. इसके बिना किसी व्यक्ति के द्वारा प्रधानमंत्री पद के लिए अपनी दावेदारी जतलाना या किसी के द्वारा उसकी ऐसी दावेदारी की वकालत युक्तियुक्त और जनता के प्रति न्याय को नहीं दर्शाती. राष्ट्र-ऋण से मुक्ति का मार्ग है भारत राष्ट्र और उसके समस्त राष्ट्रियों के जीवन को सुखद, संपन्न, और स्वतंत्र बनाने को सक्षम नेतृत्व का आगे बढ़ना जो स्वहित को गौण बना कर जनता जनार्दन की सेवा की भावना के साथ काम करे. अब ऐसे परिवर्तन का हो शंखनाद होना चाहिए.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here