पौराणिक मत के रक्षक ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज

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ऋषि बलिदान एवं दीपावली पर्व पर

मनमोहन कुमार आर्य

सृष्टि के आरम्भ से महाभारतकाल तक संसार भर में वैदिक मत, भाषा, संस्कृति व सभ्यता का प्रचार व प्रसार रहा। महाभारत युद्ध के परिणामस्वरूप अव्यवस्था होने से वैदिक मत अज्ञान से ग्रस्त हो गया जिसका परिणाम वैदिक धर्म में अधंविश्वास, कुरीतियां और असमानता आदि जैसे विचार उत्पन्न हो गये और सत्य सनातन वैदिक धर्म का स्थान अंधविश्वास व मिथ्या परम्पराओं ने ले लिया। इस अज्ञान के कारण वेदों का भी प्रायः लोप हो गया था। संगठित रूप से वेदों का प्रचार बन्द हो गया था और उसका स्थान अविद्या के ग्रन्थों पुराणों ने ले लिया था। इन कारणों से आर्यों का समाज हिन्दू समाज में बदल गया जो अनेक अवैदिक मान्यताओं का अनुमागी बना जिसमें मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, अवतारवाद, मृतक श्राद्ध व सामाजिक असमानता आदि व अनेकानेक मिथ्या मान्यताओं का प्रचलन है। यह भी जान लें कि वेद और समस्त वैदिक साहित्य में वैदिक धर्मावलम्बियों को ‘आर्य’ नाम से स्मरण किया जाता है। हिन्दू नाम वैदिक धर्म व संस्कृति का न होकर मुसलमानों द्वारा दिया गया नाम है जिसके अर्थ भी आर्य के समान अच्छे व श्रेष्ठ न होकर अपमानजनक हैं। हिन्दू का अर्थ काला, नाटा, चोर, काफिर आदि हैं। बतातें हैं कि यह अरबी व वहां की भाषाओं व शब्द-कोषों से मुसलमानों के साथ भारत आया और हिन्दुओं को गुलाम बनाकर उन्हें हिन्दू शब्द एक गाली के रूप में प्रयोग किया जाता रहा। कालान्तर में आर्यों के स्थान पर यह शब्द रूढ़ हो गया। वैदिक धर्म में अज्ञानता व अन्धविश्वासों का दुष्प्रभाव यह हुआ कि महाभारत काल के बाद छोटे छोटे राज्य व राजा बन गये थे जिनमें आपस में मेलजोल न होकर विवाद रहते थे। आठवीं शताब्दी में जब भारत पर मुगलों के आक्रमण हुए तो राजाओं ने संगठित होने के स्थान पर अलग अलग अपनी सीमित शंक्ति व अन्धविश्वासों को सामने रखकर विरोध किया और पराजित होकर एक के बाद दूसरा, फिर तीसरा और चौथा, सिलसिलेवार गुलाम होते चले गये। यदि वेदों का प्रचार होता तो एक केन्द्रीय राज्य होता जो सबको संगठित रखता और वेदों वा मनुस्मृति की शुद्ध मान्यताओं के अनुसार शासन करता। मुगलों के आक्रमण का एक स्वर से संगठित होकर मुंहतोड़ उत्तर देता और देश कदापि गुलाम न होता।

 

मुगलों के भारत आने पर मन्दिरों को लूटा व समृद्ध हिन्दुओं को मारा काटा व धर्मान्तरित किया जाने लगा। धर्मान्तरितों को गोमांस तक खिलाया जाता था। हिन्दुओं को गुलाम बनाया गया और उनकी स्त्रियों को अपवित्र किया गया। लोगों को भय व आतंक दिखाकर उन्हें बलात् विधर्मी अर्थात् मुसलमान बनाया गया। आज भारत में जो मुसलमान हैं वह प्रायः सभी व अधिकांश हिन्दू व आर्य पूर्वजों की सन्तानें हैं। इतने जघन्य अत्याचार होने पर भी किसी प्रकार हिन्दू जाति जीवित रही और अत्याचार झेलती रही वा मुकाबला करती रही। इसके बाद राजनीतिक परिस्थितियां बदली और देश की सत्ता मुसलमानों से हटकर अंग्रेजों के हाथों में आ गई। अंग्रेजों ने सभी छोटे बड़े राज्यों को डिवाइड एण्ड रूल नीति के द्वारा अपने अधीनस्थ संगठित किया, उन का शोषण और अत्याचार भी किये और कहीं कहीं कुछ विकास आदि के कार्य भी किये। उनका भी ध्येय हिन्दुओं को धर्मान्तरित कर भारत को ईसाई बनाना ही था। इसके पक्ष में अंग्रेजों के मुख्य शासकों के अनेक प्रमाण इतिहास में उपलब्ध होते हैं। उनके प्रयत्नों से बंगाल व दक्षिण के राज्यों सहित भारत के सभी प्रदेशों में अनेक हिन्दुओं को बल व प्रलोभन से ईसाई बनाया भी गया। ऐसा करते हुए उन्नीसवीं शताब्दी का आरम्भ हुआ। सन् 1825 में ऋषि दयानन्द जी का गुजरात के टंकारा नगर में जन्म हुआ। चौदह वर्ष की आयु व कुछ वर्ष बाद उन्हें वैराग्य हो गया। वह सच्चे ईश्वर व आत्म ज्ञान की खोज के लिए घर से निकले और देश देशान्तर में घूमकर उन्होंने विद्वानों को ढूंढा और उनसे योग व आध्यात्म विद्या को सीखा। भारत का सौभाग्य उदय हो रहा था। कुछ काल बाद स्वामी दयानन्द वेद सहित भारत के प्राचीन समस्त धार्मिक, सामाजिक व ऐतिहासिक साहित्य के अप्रतिम ज्ञानी व विद्वान बन गये। मथुरा के गुरू स्वामी विरजानन्द सरस्वती ने उन्हें सभी विद्याओं में निपुणता प्रदान की और उन्हें देशोपकार हेतु अज्ञान दूर कर वैदिक परम्पराओं का पुनः प्रचलन करने की सलाह दी। स्वामी दयानन्द ने उनकी आज्ञा वा सलाह को स्वीकार किया। देश से अज्ञान दूर करने व अज्ञान पर आधारित मत-मतान्तरों के अन्धविश्वासों व कुरीतियों का सुधार करने के लिए वह कर्म क्षेत्र में अपने अपूर्व वैदिक ज्ञान, योग, आध्यात्म सहित अपनी सम्पूर्ण शारीरिक क्षमताओं के साथ प्रस्तुत हुए।

 

स्वामी दयानन्द ने कार्यक्षेत्र में प्रविष्ट होकर सत्य वैदिक धर्म की मान्यताओं का प्रचार किया। वह एक स्थान पर लम्बे समय तक टिक कर प्रचार नहीं करते थे अपितु देश के निकट व दूर के भागों की यात्रा करते और वहां पहुंच कर विज्ञापन कराकर वृहद सभा करके वेदोपदेश आदि के द्वारा सत्य वैदिक मान्यताओं से लोगों को परिचित कराते हुए धर्म का सच्चा स्वरूप और मत-मतान्तरों की मिथ्या मान्यताओं का खण्डन किया करते थे। प्रवचन वा व्याख्यान सहित वह शंका समाधान व प्रमुख लोगों से वार्तालाप करते, उनके सुझावों को सुनते और व्यवहारिक बातों को अपनाते भी थे। किसी ने उन्हें अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों के अनुरूप ग्रन्थ लिखने का परामर्श दिया तो उन्होंने उसे अपना लिया, किसी ने वस्त्र धारण का सुझाव दिया तो उपयोगी जानकर उसे भी अपना लिया, इसी प्रकार से संस्कृत के स्थान पर हिन्दी का प्रयोग करने का सुझाव भी उन्हें ब्रह्मसमाज के नेता श्री केशवचन्द्र सेन ने दिया जिसे उन्होंने अपनाया। उनके हिन्दी को अपनाने के निर्णय का देश के वर्तमान व भविष्य दोनों पर लाभकारी प्रभाव हुआ। उन्होंने पौराणिक सनातनियों, ईसाई, मुसलमानों सहित जैन, बौद्ध व अन्य प्रचलित प्रायः सभी मत-मतान्तरों का खण्डन व मण्डन भी किया। इस खण्डन मण्डन का उद्देश्य लोगों के सम्मुख सत्य का स्वरूप रखकर असत्य का खण्डन करना व लोगों को सत्य के ग्रहण करने के लिए प्रेरित करना था। ऋषि दयानन्द जी की यह भी एक बहुत बड़ी उपलब्धि कह सकते हैं कि उन्होंने मौखिक ही नहीं लिखित खण्डन किया और न केवल पौराणिक सनातनी आर्य हिन्दुओं की असत्य मान्यताओं व परम्पराओं का ही खण्डन किया अपितु मुसलमान व ईसाई आदि अनेक मतों की असत्य व मानव अहितकारी मान्यताओं व परम्पराओं का भी खण्डन किया। उनके समय से पूर्व ईसाई व मुसलमान हिन्दुओं के देवी देवताओं व पूजा आदि का उपहास करते थे और असत्य व भाम्रक प्रचार कर हिन्दुओं का धर्मांतरण करते थे। स्वामी दयानन्द जी के प्रचार व खण्डन मंडन से ईसाई व इस्लाम की अवैदिक व भ्रामक असत्य बातों का खण्डन होने से हिन्दुओं को भी उन उन के मतों की असत्य व अव्यवहारिक अथवा अनुचित बातों का ज्ञान हो गया। इससे जो हिन्दुओं का एकतरफा धर्मान्तरण वह करते थे उस पर प्रभावी अंकुश लगा।

 

ऋषि दयानन्द ने ही सबसे पहले देहरादून में मोहम्मद उमर नामी मुस्लिम बन्धु को परिवार सहित आर्य धर्म की विशेषताओं व श्रेष्ठताओं के कारण उसकी इच्छा से सपरिवार वैदिक धर्म ग्रहण कराया था। बाद में यह सिलसिला आरम्भ हुआ तो इस्लाम व ईसाई मत के इमाम व पादरी तुल्य व्यक्ति भी वैदिक धर्म की श्रेष्ठता व सिद्धान्तों से प्रभावित होकर आर्यधर्म की शरण में स्वेच्छा से आये। हिन्दुओं का ईसाई व इस्लाम मत में धर्मान्तरण रूकने व बहुत कम होने के कारण हिन्दू धर्म वा पौराणिक मत की रक्षा हो सकी है। यदि दयानन्द जी न आते और सभी असत्य मतों का खण्डन मण्डन न करते तो हिन्दू धर्म में जो सुधार हुआ और मतान्तरण रूका है, वह कभी सम्भव न होता। आज भी हिन्दू मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, मृतक श्राद्ध आदि नाना अवैदिक परम्पराओं का पालन कर रहे हैं परन्तु विधर्मियों को इनकी आलोचना करने का अवसर इस लिये नहीं है क्योंकि उनका अपना मत भी इन व ऐसी अनेक बुराईयों से भरा पड़ा है। यह ऋषि दयानन्द की हमारे पौराणिक बन्धुओं व उनके पौराणिक मत की रक्षा के लिए बहुत बड़ा योगदान व देन है। हमारे पौराणिक भाई माने या न माने, भले ही आर्यसमाज की आलोचना करें, पहले भी करते थे आज भी करते हैं, इससे उनका स्वार्थ प्रभावित होता है, फिर भी ऋषि दयानन्द व आर्यसमाज ने पौराणिक लोगों को परिवार व बन्धु माना है। हिन्दुओं पर कोई कष्ट आये, इसे सच्चा आर्य कभी सहन नहीं कर सकता। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. लेखराम और महाशय राजपाल सहित अनेक आर्य नेताओं ने हिन्दूओं की रक्षा व उत्थान के लिए ही अपने बलिदान दिये हैं। यह बात भी सम्भव है कि कुछ विदेशी शक्तियों व विधर्मियों के एजेन्ट आर्यसमाज को अपने कृत्यों से कमजोर करने का निरन्तर प्रयास कर रहे हैं। ऐसे लोग कभी सफल नहीं हो सकते क्योंकि आर्यसमाज ऋषि दयानन्द द्वारा लगाया गया सत्य से पोषित पौधा है। आज भी आर्यसमाज धार्मिक जगत की सबसे बड़ी शक्ति है जो सभी मतों व मतान्तरों से अधिक उपयोगी, सत्य मान्यताओं व सिद्धान्तों की दृष्टि से परिपूर्ण, व्यवहारिक एवं उपयेगी धार्मिक संगठन है। जब तक आर्यसमाज है कोई मत अपनी श्रेष्ठता व उत्तमता की शेखी नहीं बखार सकता। आर्यसमाज वैदिक धर्म का पोषक है और वैदिक धर्म ही श्रेष्ठ मानव धर्म है। अन्य मत व सम्प्रदाय मान्यताओं, श्रेष्ठता व सत्य की दृष्टि से आर्यसमाज के वैदिक सिद्धान्तों से बहुत दूर हैं।

 

यह भी बता दें आर्यसमाज ने प्रायः सभी प्रमुख मतों के प्रमुख आचार्यों से ऋषि दयानन्द के जीवन काल व उसके बाद भी शास्त्रार्थ किये हैं जिसमें आर्यसमाज द्वारा प्रस्तुत वैदिक सिद्धान्तों की ही विजय हुई। विधर्मी व विपक्षी इन शास्त्रार्थों में पराजित हुए हैं। इन शास्त्रार्थों के अनेक ग्रन्थ आज भी आर्यसमाज द्वारा प्रचारित होते हैं जिन्हें विद्वदजन पढ़ते व प्रचारित करते हैं। इन शास्त्रार्थों को देख व पढ़कर वैदिक धर्म की श्रेष्ठता का ज्ञान होने के साथ अन्य मतों की अपूर्णता व अंधविश्वासों पर आधारित मान्यताओं का ज्ञान पाठकों को होता है। अतः वेदों का सत्य स्वरूप व उसकी मान्यतायें ही धर्म हैं और मत-मतान्तर मनुष्यों द्वारा चलाये गये मत हैं। धर्म तो ईश्वर द्वारा चलाया जाता है और वह वेद धर्म ही है। यह विशेषता अन्य किसी मत में नहीं है, कहने को कोई कुछ भी कहे।

 

आर्यसमाज पौराणिक सनातनी मत का कवच है। जब तक आर्यसमाज है कोई विधर्मी पौराणिक मत व पौराणिक बन्धुओं को किसी प्रकार की क्षति नहीं पहुंचा सकता। आर्यसमाजी और पौराणिक एक पिता की दो सन्तानों के समान हैं। आर्यसमाज ने अतीत में भी पौराणिक मत की रक्षा की है आज भी कर रहा है और आगे भी करेगा। यह उसका कर्तव्य भी है। यह भी बता दें कि आर्यसमाज किसी मत व व्यक्ति का विरोधी नहीं है परन्तु आर्यसमाज यह अवश्य चाहता है कि सभी मनुष्य असत्य का त्याग कर सत्य का ग्रहण करें। सभी अविद्या का नाश कर विद्यावान हों। सभी ईश्वर की मिथ्या उपासना व पूजा को छोड़कर सरल व सही वैदिक विधि से उपासना करें और धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति की ओर अग्रसर हों। सत्यार्थ प्रकाश ऋषि दयानन्द जी का ऐसा कालजयी ग्रन्थ है जिसने अपने जन्मकाल से ही वैदिक धर्म का पुनरुद्धार करने के साथ असत्य मतों को अपनी मान्यताओं पर पुनर्विचार करने के लिए विवश किया है और उन्होंने न्यूनाधिक व नाममात्र का कहीं कहीं सुधार किया भी है। अज्ञान व स्वार्थ मनुष्य व समाज को सत्य को ग्रहण करने कराने में बाधक है। जब तक अविद्या रहेगी, मत-मतान्तर बने रहेंगे और लोगों में विवाद बने रहेंगे। ईश्वर ही इसे दूर कर सकते हैं। इसी के साथ इस लेख को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

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