जय जगदीश हरे आरति के रचयिता पण्डित श्रद्धाराम फिल्लौरी

आत्माराम यादव पीव
भारतवर्ष ही नहीं अपितु देश-दुनिया में कई देशों के सनातन धर्मावलम्बियों, वैष्णवों, साधु-संतों व ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम करने वाले भक्तों के हृदयों को पण्डित श्रद्धाराम फिल्लौरी द्वारा सन 1870 में 32 वर्ष की आयु में रचित आरति ’’ओम जय जगदीश हरे, स्वामी जय जगदीश हरे, भक्तजनों के संकट क्षण में दूर करें’’ पिछले 151 वर्षो से भक्ति-प्रेम की त्रिवेणी में स्नान कराकर समस्त दूषित प्रवृत्तियों को विसर्जित करने का मार्ग प्रशस्त करते आ रही है। समाज के हर वर्ग-तबके के अल्पबुद्धि से लेकर आचार्यो, ज्ञानाचार्यो, कृपाचार्यो, भगवतकथाचार्यो जगतगुरूओं, ज्ञान की साक्षात मूर्तितुल्य स्वामियों, आध्यात्म और ईश्वर प्रेम का पंचामृत में अपनी सर्वोत्कृष्टता को आहूत करने वालो के हृदयंगत भावों में ईश्वर का जो भी चित्र प्रतिबिम्बित होता है उसे प्रसन्न करने के लिये भावनाओं को विस्मृत कर आरति भाव में अनुरक्तित होने वाला स्तुतिगान में ’’ओम जय जगदीश हरें’’का भाव सभी के हृदय की सरलता,निष्कपटता का प्रतीक होकर ईश्वर को रिझाकर उसकी कृपाप्रसाद के रूप में लौकिक वस्तु, सुख की प्राप्ति आदि का सरलतम मार्ग है। पण्डित श्रद्धाराम फिल्लोरी की यह आरति ओम जय जगदीश हरे, एक प्रबल प्रार्थना है और हर मनुष्य की व्यक्तिगत प्रार्थना होकर यह आरति भाव बलवती हो गये वही सामूहिक प्रार्थना में स्थान पाकर यह देश, समाज और राष्ट् की सामूहिक प्रार्थना बनने से यह आरति एक शक्तिउत्पन्न करने वाली श्रद्धा,भक्ति, प्रेम की प्राप्ति का उल्लास बन गयी है जहॉ तल्लीनता और एकाग्रता और शांन्ति का भाव लिये व्यक्ति इसे फलदायक बना देता है।
श्रेष्ठ साहित्यकार श्रद्धाराम जी का जन्म पंजाब के जालन्धर जिले के फुल्लौर नामक ग्राम में 30 सितम्बर सन 1837 में आश्विन मास की शुक्ल प्रतिपदा गुरूवार को नवरात्रि की मंगलबेला ब्रम्हमुर्हुत में 4-5 बजे सुबह उच्च ब्राम्हण कुल के जोशी परिवार में हुआ था। माता का नाम विष्णुदेवी और पिता का नाम जयदयाल था। इनके पिता शक्ति के उपासक एवं उच्च कोटि के ज्योतिषाचार्य थे जिन्हें गायन-कला में सभी राग-रागनियों का पूर्णज्ञान होने से वे गायन-विद्या के कुशल ज्ञाता थे। बचपन में ही पिता से मिली इस विरासत को पाकर श्रद्धाराम की इन विद्याओं में गहन अभिरूचि के शोक का ही परिणाम रहा कि वे इन सब कलाओं में पारंगत हो गये। उन्होंने बाल्यावस्था में सतलज नदी की गोद में तैरना सीखा और तैरते समय शवासन, वीरासन आदि आसन लगाकर घन्टों पानी में योग कर लोगों को अचंभित करते रहे। इनके द्वारा बचपन में ही बाजीगरी एवं जादूगरी का कर्तव्य सीख कर दिखाने का काम शुरू कर दिया था। इसी तरह वे गाने बजाने के रूबाई, ठुमरी के स्वरूप के लक्षण विवेद को कंठस्थ कर चुके थे और सभी रागों को सीखकर निपुण हो गये थे तब इनके पिता के द्वारा संवत 1907 में ब्रम्हवेत्ता स्वामी मइयाराम के हाथों इनका उपनयन संस्कार कराया गया। श्रद्धाराम जी की बुद्धि इतनी पैनी और धारणाशक्ति इतनी प्रबल थी कि ये वर्षो में प्राप्त की जाने वाली विद्या को कुछ ही दिनों में ग्रहण कर लेते थे। इन्होंने 10 वर्ष की अवस्था में संस्कृत भाषा में अपूर्व योग्यता प्राप्त कर व्याकरण, न्याय वेदान्त का अध्ययन करते हुये उपनिषदों, महाभारत, भागवत पुराण आदि का परिशीलन कर सभी के रहस्यमय तत्वों का सूक्ष्मतम परिचय पा लिया और स्वयं कथावाचक बनकर कथावाचकों में श्रेष्ठ स्थान रखने लगे। युवावस्था में इन्होंने उर्दू-फारसी, अरबी, अंग्रेजी का ज्ञान प्राप्त कर इन भाषाओं पर पूर्णाधिकार रखने लगे। रसायनी साधुओं के सम्पर्क में आने पर इनके द्वारा रसायनी विद्या का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया वहीं संवत 1923 में ये ज्योतिष विद्या के सूक्ष्म से सूक्ष्म रहस्यों के ज्ञात बन गये और कपूरथला नरेश के साथ कश्मीर यात्रा के समय रमलविद्या का विशेष अध्ययन कर आजीवन विद्योपार्जन में लगे रहे।
परमानन्दी गंभीर सागर महर्षि श्रीमद् पण्डित श्रद्धाराम जी महाराज अठवंश योगी सारस्वत ब्राम्हण थे और उन्हें ब्रम्हश्रोति, ब्रम्हनेष्ठि, तत्ववेत्ता,वेदशास्त्रपारगामी, सर्व मतमतान्तर के मर्मज्ञाता,सत-पथ प्रदर्शक, आप्त वक्ता, सदाचार के अवतार,मोहन उपदेष्टा तथा जिन महान आत्माओं ने वेद-वेदान्त रचे, अनेक विद्या प्रगट की, उसी अमोघ देवीमेघा के उच्चत्तर निगमागमकार के रूप में उन्हें तत्समय राजा और प्रजा में गौरव हासिल था। संवत 1914 में पण्डित श्रद्धाराम जी के द्वारा सुनाई जाने वाली कथाओं में महाभारत के प्रति लोगों को गहन रूचि थी और हजारों लोग उन्हें सुनने आते थे तब अंग्रेजों को लगा कि यह पण्डित लोगों को अंग्रेज सरकार के खिलाफ भड़काने का काम कर विद्रोह की तैयारी कर रहा है तब अंग्रेजों ने उनकी लोकप्रियता को देखते हुये कठोर दण्ड देने से जनता में विद्रोह होने के भय से उन्हें बुलाकर फिल्लौर से दो वर्षो के लिये बाहर निकाल दिया । इस प्रतिबन्ध को लुधियाना के पादरी न्यूटन साहिब ने हटवाया तब तक वे इन दो वर्षो मेंं हरिद्वार और ऋषिकेश में संस्कृत के ग्रन्थों के भाषान्तर के अलावा पादरी न्यूटन के आग्रह पर ईसाई धर्म की पुस्तकों का हिन्दी और उर्दू में अनुवाद करने में लगे रहे जो संवत 1918 तक जारी रहा इसके बाद वे संवत 1930 तक देश के विभिन्न हिस्सों में भ्रमणकर धर्मोपदेश देते रहे। कपूरथला के नरेश महाराजा रणधीरसिंह अंग्रेज पादरियों के प्रभाव के वशीभूत होकर ईसाई धर्म अपनाने की तैयारी में थे जिससे पूरे कपूरथला राज्य में प्रजा के भी धर्मान्तरण की तैयारी शुरू हो गयी जिसकी जानकारी पण्डित श्रद्धाराम जी को हुई तब उन्होंने कपूरथला नरेश को एक पत्र लिखकर बिना उनसे मिले, ईसाई धर्म अपनाने से रोका तब उन्होंने श्रद्धाराम जी को आमंत्रित किया। श्रद्धाराम जी आये और हिन्दू धर्म से अपना विश्वास गॅवा चुके नरेश से भेंट की तब उनके व नरेश के बीच लगातार 18 दिन तक विवाद चला जिसमें पण्डित श्रद्धाराम जी की विजय हुई और नरेश की हिन्दू धर्म के प्रति आस्था और गहरी होने से वे हिन्दू बने रहे तथा उनके प्रभाव के कारण हजारों लोग ईसाई धर्म अपनाने को तैयार हुये थे उन्हें राहत के साथ अपने स्वधर्म में बने रहने पर अपार खुशी हुई और पूरा प्रान्त ईसाई होने से बच गया। महाराज रणधीरसिंह ने श्रद्धानन्द जी की प्रकाण्ड विद्ववता के समक्ष नतमस्तक होकर उनका सम्मान करते हुये 500 रूपये वार्षिक वृत्ति से सम्मानित किया। चूंकि उनकी आजीविका का साधन कथावाचन व ज्योतिष रहा था जिसमें वह दौर भी आया जब संवत 1931 में फिल्लौर में होने वाली उनकी नियमित कथा आयोजन में प्रबन्धकों के बीच कहासुनी हो गयी तब उनके द्वारा कथा में आने वाली भारी मात्रा में चढ़ोत्तरी लेने से इंकार कर दिया। तब श्रद्धाराम जी ने लेखन का कार्य अपना लिया और 22 पद्यों के संस्कृत में लिखे संकलन को नित्यप्रार्थना नाम से प्रकाशित कर उसमें लिखे पद्य जो महिमन स्त्रोत की शैली के थे, के माध्यम से अपनी देशव्यापी लोकप्रियता की ओर अग्रसर हुये जिसमें उनका दूसरा संस्कृत संस्करण आत्मचिकित्सा संवत 1934 तथा तीसरा संस्कृत का ही संस्करण सत्यामृत प्रवाह प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त भृगुसंहिता, हरितालिका व्रत एवं कृष्णनाम संकीर्तन के अलावा तत्वदीपक, सत्यधर्म मुक्तावली, भाग्ववती उपन्यास, रमल कामधेनु, आदि का लेखन किया जिसमें सत्यधर्म मुक्तावली में आरति आदिक भजनों का संकलन था जिसे तत्समय हर नर-नारीगण उमंग से कंठ करते और प्रेम से नृत्य करते हुये गाकर आत्मविभोर हो जाते थे-
पण्डित श्रद्धाराम ने स्त्रोत ठुमरी में भगवान राम के तीनों लोकों में बसे होने तथा किसी भी प्रकार के शोक आदि में न होने का भाव प्रगट किया है और उन्हें आदि,अनंत और अगोचर तथा पूर्ण परमात्मा बतलाया है। उनके द्वारा की गयी यह स्तुति भक्ति की पराकाष्ठा है-
जय राम रमे तिहुॅ लोकन में, पड़ते कबहॅॅू नहीं शोकन में
वह आदि अनंत अगोचर है, उस पूरण का सबमें घर है।
वह एक अखण्डित आतम हैं, परमेश्वर है परमातम है
वह श्याम न लाल सुपेद नहीं, नित मंगल मूरति खेद नहीं।।
निरवैर निरंजन नायक हो, तुम संतन संग सहायक हो।।
तुम मात पिता हम बाल सबी,तुमको तजके हम जाये कहॉ
तुमरे बिन शीश झुकाये कहॉ, तुम आप ही पंथ दिखाओ हमें।।
तुमको तजके हम जाये कहॉ, तुमरे बिन सीस झुकायें कहॉ
तुम आप ही पंथ दिखाओं हमें, अपने मग आप चलाओ हमें।।
तुम माधव मंगलरूप हरी, सबकी विपदा तुम दूर करी
तुम पाप निवारण कारण हो, मदमोह म्लेछ के मारण हो।
तुम जानत हो सबके मन की, सुध भूलत न हमरे तन की
तुम सदचित आनन्द रूप प्रभु, कलिकाल विनाश अनूप प्रभु।।
जब से जन्मे हम पाप भरे, छल से बल से हम चित्त धरें
तब भी तुम दृष्टि न फेरत हो, नित मात पिता बन टेरत हो।।
तुमरे सम कौन दयाल सदा, तुम ही सब ठौर कृपाल सदा
हमरे सब पाप विनाश करो, श्रद्धा निज भक्ति हृदय में धरों।।
श्रद्धाराम जी ने सर्वेश्वर ईश्वर की महान सत्ता का परिचय देते हुये उनका गुणानुवाद कर उनकी महिमा का सुन्दर चित्रण करते लिखा है कि राम की महिमा अपरम्पपार है जिसका यशगान स्वयं बुद्धिप्रदाता शारदा तक गाते गाते थक चुकी है लेकिन वह उनका भेद नहीं जान सकी और चारों वेदपुराण उनके नाम का महत्व बखान करते है और भगबवान शंकर और सनकादि मुनि जिन्हें नित्य ध्याते है-
नहीं प्रभु अंत तुम्हारों पायो
महिमा गाई थकित भई शारद, नारद मनहि सकुचाओं।
शेषनाग नित रटत अनेक मुख, तबहुं पार न पाओ।।
चारहॅू वेद अनंत कहे नित, शिव सनकादि चुपाओं
भरसत फिरे सदा शशि सूरज, चहुॅू दिशि चित्त चलाओ।
तुम्हरी यिती की ठौर न पाई, अन्त अथाह बताओ।।
कहत न बने न लिखित समावे,यश ताको जग छाओ।।
कहो समान कौन के श्रद्धा, हरि सब सो अधिकाओं।।
यह संसार चार दिनों का मेला है जिसमें जन्म लेने वाले जीव कभी पिता के रूप मेंं तो कभी बेटे के रूप में तो कोई गुरू के रूप में पैदा होतो है। श्रद्धाराम जी यहॉ इस नश्वर शरीर की गति का वर्णन करते हुये संसाररूपी माया में पदार्थो के मोह से मुक्त होने की बात कहते हुये भगवान के चरणों में प्रीति करने की बात कहते है ताकि अगर उनके चरणों में सच्ची प्रीति हो जाये तो सभी बंधनों से मुक्त हुआ जा सकता हैः-
जगत मों चार दिनन को मेलो
कोउ बाप कोउ सुत बन बैठो, कोउ गुरू कोउ चेलो
जल का बूंद गरभ मा बैठत, नख शिख अंग दिखावे।
ब्राम्हण वैश्य देह को मानत है, माटी को ढेलों।
भूपन वस्त्र विविध विधि भोजन, जा तन हेत बटोरे
सो तन श्वासविहीन होत तब, मोल न परत अधेलों
देस्या जगत घूम को बादर,विनसत विलग न लागे
श्रद्धा सो हरि के पद पकरो, फेर न मिले है बेलों।।
श्रद्धाराम जी द्वारा जहॉ अनेक पदों में प्रभु भक्ति के मार्ग का अनुसरण कर उन्हें प्राप्ति के लिये जीव के कर्म की सुन्दरतम व्याख्या करते है वहीं वे कुटुम्ब-परिवार में मिले नाते-रिश्तों की अहमियत को भी प्रकट करते है ताकि सदियों से सोये हुये मानव को अपने मोक्ष के लिये सुझाये साधन से मुक्ति मिल सके। इसके लिये वे सरल शब्दों में कहते है कि कोई भाई-बंधु मित्र नहीं है जिस प्रकार पक्षी एक पेड़ पर आकर रात काटकर चले जाते है, एक नाव में अनेक लोग एक़त्र हो नदी पार करते ही अपनी-अपनी राह ले लेते है उसी प्रकार व्यक्ति अर्थ-काम में लिप्त होकर भगवान के विमुख हो जाता हैः-
रे मन करत का पर मान
कौन तेरो मित्र जग मो कौन बंधु सुजान
एक तरू पर अनेक पंछी रात काटत आन।
कौन का को मीत कहिये, करत गमन विहान।।
चढ़त एक ही नाव बहु जन, होत छनक मिलान।।
पीठ दै दे चलति सब ही, रहति नाहि पछांन
अरथ पर सब होत अपने, कहित प्राण समान
अंत बेमुख होई श्रद्धा सिमिर श्रीभगवान।।

आचार्य श्रद्धाराम ने अपने प्रत्येक भजन-गीत, आरति के अंत में अपने आधे नाम केवल ’’श्रद्धा’’ का प्रयोग किया है चूॅूकि श्रद्धा शब्द द्वार्थ वाचक होने से कर्ता होने का बोध विलुप्त हो जाता है जिसमें रचने वाले का बोध नहीं होता कि किसने रचा है। उनकी लिखी आरति ’ जय जगदीश हरे, भक्त जनों के संकट छिन मूं दूर करें।’’ ने भारत ही नहीं अपितु देश-दुनिया में खूब प्रचार पाकर अमरता पाई है। दुनिया के किसी भी कोने में बसे किसी भी सनातनी हिन्दू धर्मावलम्बी के हृदय में बचपन से ही संस्कारित ओम जय जगदीश हरे आरति की छाप उसके मन में बस गयी और उन्हें कुछ याद रहे या रहे किन्तु सहज-सरल शब्दों में भावपूर्ण होकर इस आरति को याद रखकर गाना उनका नित्यकर्म बन गया। आज देश के हर मंदिर में, कथाकारों के उपदेशों मेंं, साधु-संत महात्माओं के संत्सगों में, गायक-गंधर्वो तथा भजन-मण्डलियों में, साधारण-असाधारण जनों में, जय जगदीश हरे आरति का गायन में कोई भेद न कर सभी एकस्वर में प्रेम से भरे इस आरति को गाकर भक्ति और श्रद्धा से भर जाते है। सत्यधर्म मुक्तावली के मंगलाचरण में पण्डित श्रद्धाराम जी निवेदित करते है कि-
नमो नमो करता पुरूष, भवभय भंजनहार।
नमो नमो परमात्मा, पाप हरण सुखकार। ।
आदि अंत जिसका नहीं, पूरण है सब ठौर।
श्रद्धा नेक प्रणाम है, ताके तुल्य न ओर।।
पण्डित श्रद्धाराम जी ने हिन्दी के अलावा उर्दू, पारसी और पंजाबी में भी अनेक रचनायें लिखी है जिसमें दुर्जन मुख चपेटिका, धर्म कसौटी, धर्म रक्षा, धर्मसंवाद, उपदेशक संग्रह तथा असूले मजाहिब, विशेषरूप से उल्लेखित है। सामाजिक परिस्थितियों एवं धार्मिक विश्वासों के इतिहास की दृष्टि से उनकी रचनायें महत्वपूर्ण है वहीं काव्यरूप भाषा एवं शैली के विकास की दृष्टि से उनका महत्व कम नहीं है। सत्यामृत प्रवाह की भाषा की प्रौढ़ता एवं सम्पन्नता उस युग में हिन्दी गद्यकार की अभिव्यंजना सामर्थ का परिचायक है इसलिये निसन्देह श्रद्धाराम जी को अपने समय का सच्चा हिन्दी हितैशी और लेखक कहने में गर्व होता है।पण्डित श्रद्धाराम शर्मा के विषय में ’’हिन्दी साहित्य के इतिहास’’ के लेखक पण्डित रामचन्द शुक्ल पृष्ठ 515-17 में लिखते है कि आपकी हिन्दी सदा ही अनुपम थी। वर्तमान हिन्दी के गद्य साहित्य के प्रवक्ता में आप भी एक थे। हिन्दी साहित्य की अक्षय निधि के ऐसे ऋषितुल्य पण्डित श्रद्धाराम जी शर्मा का 43 वर्ष की उम्र में ही आषाढ़ वदी 13 संवदत 1938 तदनुसार 24 जून 1881 को देहान्त हो गया। आज भले वे हमारे बीच नहीं है। फिल्लोरी नगरपरिषद में उनकी मूर्ति 20 वर्षो तक अंधेरे कमरे में पड़़ी रही जिसे 1995 में बेअंत सरकार ने गंभीरता से लेते हुये सम्मानित कर फिल्लौर शहर मे ंउनकी मूर्ति लगायी गयी है। यह सुखद ही है कि फिल्लौर शहर में उनके नाम से एक टस्ट काम करता है जो प्रतिवर्ष उनकी जयंती एवं पुण्यतिथि मनाकर उन्हें फिल्लौर में जीवित रखे हुये है जबकि वे ओम जय जगदीश हरे आरति के रूप में हर दिल में जिंदा है।

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