कलम पर सत्ता का कहर

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upअरविंद जयतिलक

याद होगा २०१२ के विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान जब अखिलेश यादव ने बाहुबली डीपी यादव को समाजवादी पार्टी में लेने का विरोध किया तो देश भर में संदेश गया कि वह राजनीति में अपराधीकरण के खिलाफ हैं। लोगों के मन में युवा अखिलेश से ढ़ेरों उम्मीद जगी और मीडिया ने उन्हें क्षण भर में नायक बना दिया। परिणामतः उत्तर प्रदेश की जनता जाति-धर्म के केंचुल से बाहर निकल समाजवादी पार्टी के पक्ष में मतदान की और बहुजन समाज पार्टी को सत्ता से बेदखल कर दिया। सिर्फ इस उम्मीद में कि अखिलेश यादव के नेतृत्व में राज्य में कानून का राज स्थापित होगा और घपले-घोटाले तथा भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगा। अपराधी सलाखों के पीछे होंगे और लोगों को न्याय मिलेगा। सुरक्षा एवं शांति के माहौल में राज्य का विकास होगा और बेरोजगारों को काम मिलेगा। लेकिन अखिलेश यादव की सरकार ने लोगों को निराश किया। सत्ता का भोग लगाते उसे तीन साल से अधिक हो गए लेकिन राज्य में कानून का शासन न के बराबर है। अपराधियों का हौसला बुलंद है और शासन-प्रशासन उनके आगे नतमस्तक। हद तो यह है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया भी निशाने पर है। समझा जा सकता है कि जब राज्य में मीडिया के लोग सुरक्षित नहीं हैं तो फिर आमजन की सुरक्षा का क्या हाल होगा। शाहजहांपुर के पत्रकार जागेंद्र सिंह की हत्या जिसका आरोप सरकार के ही मंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा पर लगा है न तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दिया है और न ही इस हत्याकांड में शामिल अन्य आरोपियों की गिरफ्तारी हुई है। सिर्फ कुछ पुलिस वालों को सस्पेंड किया गया है। जबकि मृत्यु से पहले जागेंद्र सिंह बयान दे चुके हैं कि मंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा और उनके गुर्गे जिसमें पुलिस भी शामिल है, ने उन्हें आग के हवाले किया। क्या सरकार को अपने मंत्री पर कार्रवाई के लिए इससे भी अधिक पुख्ता सबूत की जरुरत है? शायद नहीं। लेकिन तमाशा है कि अखिलेश यादव की सरकार मृत्यु पूर्व दिए जागेंद्र सिंह के बयान को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं। सरकार की यह असंवेदनशीलता है। हद तो यह है कि पार्टी के एक महासचिव तर्क दे रहे हैं कि़ महज एफआइआर होने से कोई गुनाहगार नहीं हो जाता। निश्चित रुप से यह तर्क सही है। लेकिन यह भी गौर करना होगा कि जगेंद्र सिंह ने मृत्यु पूर्व बयान दिया है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वैसे भी मरने वाला कभी झुठ नहीं बोलता। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश की सत्ता मौन है तो मतलब साफ है कि वह अपने मंत्री का बचाना चाहती है।

अगर सरकार जनदबाव में आकर मंत्री को बर्खास्त कर भी देती है तब भी यकीन के साथ कहना मुश्किल है कि पत्रकार जगेंद्र के परिजनों को न्याय मिल सकेगा या उनके हत्यारे सलाखों के पीछे होंगे। इसलिए कि सरकार की मंशा देश-दुनिया के सामने आ चुकी है। सरकार तनिक भी लज्जित नहीं है कि पत्रकार जगेंद्र सिंह हत्याकांड को पत्रकारों के अधिकारों की रक्षा करने वाली अमेरिकी समिति ‘कमेटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट’ यानी सीपीजे ने भी संज्ञान लिया है और उसने शीध्र, विश्वसनीय और पारदर्शी जांच की मांग की है। उच्च न्यायालय में भी इस हत्याकांड के सीबीआई जांच की याचिका दाखिल की गयी है। यानी सीधा अर्थ यह हुआ सरकार पर जागेंद्र के परिजनों का भरोसा नहीं है कि वह इस हत्याकांड की ईमानदार जांच कराएगी। दुर्भाग्य यह कि जागेंद्र हत्याकांड के बाद भी उत्तर प्रदेश में पत्रकारों पर हमले थम नहीं रहे हैं। कानपुर और बस्ती में पत्रकारों पर हमले हुए हैं। इस हमले के पीछे सत्ता से जुड़े लोगों का नाम सामने आ रहा है।

सरकार के एक अन्य मंत्री भी अपनी कारस्तानी को लेकर चर्चा में हैं। उन पर मिर्जापुर के एक आरटीओ को धमकाने का आरोप है। हालांकि यह कोई नई बात नहीं है। अखिलेश सरकार के कई मंत्री पहले भी इस तरह के कृत्यों में बदनाम हो चुके हैं। पता नहीं अखिलेश सरकार को भान है भी कि नहीं कि वह ऐसी घटनाओं से जनता के बीच तेजी से अलोकप्रिय हो रही है और उसकी साख व विश्वसनीयता लगातार दरक रही है। उत्तर प्रदेश में कलम पर सत्ता का कहर शुभ नहीं है। बेहतर होगा कि उत्तर प्रदेश की सरकार मीडिया पर हमला बोलने वाले अपने मंत्रियों को बचाने के बजाए उनकी खबर ले। अखिलेश सरकार को सतर्क हो जाना चाहिए कि अब उसकी तुलना उस पूर्ववर्ती मायावती सरकार के दौरान कानून-व्यवस्था से होने लगी है जिसकी असफलता के बूते समाजवादी पार्टी सत्ता में आयी। लोगों की धारणा बनने लगी है कि कानून-व्यवस्था के मामले में पूर्ववर्ती मायावती सरकार बेहतर रही। बतौर मुख्यमंत्री मायावती ने अपने दल के आरोपी सांसद को अपने आवास पर बुलाकर गिरफ्तार कराया। इसके अलावा उन्होंने कई ऐसे मंत्रियों-विधायकों को मंत्रिमंडल व पार्टी से बाहर किया जिनपर गंभीर आरोप लगे। समय रहते अखिलेश सरकार भी अपने मंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा को बर्खास्त कर कड़ा संदेश दे सकती थी। लेकिन उसने अवसर को हाथ से निकल जाने दिया। यह उसकी नाकामी है। सरकार की ढि़लाई का नतीजा है कि आज उत्तर प्रदेश में कानून-व्यवस्था बदतर है।

स्वाभाविक तौर पर जब पार्टी के विधायकों, सांसदों, मंत्रियों और कार्यकर्ताओं को लगेगा कि सरकार उनकी ज्यादतियों की अनदेखी और बचाव को तैयार है तो वे फिर निरंकुश क्यों नहीं होंगे? अखिलेश सरकार का यह तर्क ठीक नहीं कि विरोधी दल उसे बदनाम कर रहे हैं। स्वयं सपा सुप्रीमों मुलायम सिंह यादव द्वारा भी अखिलेश सरकार को कई बार कठघरे में खड़ा कर चुके हैं। उन्होंने यहां तक कहा है कि सरकार के मंत्री दलालों से घिरे हैं। अखिलेश सरकार की नाकामी की वजह से उत्तर प्रदेश रोज लहूलुहान हो रहा है। राज्य में व्याप्त अराजकता से विकास कार्य ठप है। नतीजा कोई भी निवेषक और औद्योगिक समूह उत्तर प्रदेश में आने को तैयार नहीं। स्वाभाविक है कि जब राज्य में उद्योग-धंधे नहीं लगेगें तो रोजगार घटेगा और पढ़े-लिखे नौजवानों में निराशा पनपेगी। निराशा ही अपराध को जन्म देती है। राज्य सरकार को समझना होगा कि राज्य में शांति स्थापित किए बिना विकास को गति नहीं दी जा सकती। अखिलेश सरकार को चिंतित होना चाहिए कि आज उत्तर प्रदेश प्रति व्यक्ति आय के मामले में २६ वें स्थान पर है। कृषि विकास दर में १७ वां और औद्योगिक विकास दर में २० वें स्थान पर है। यहां गौर करने वाली बात यह भी कि राज्य सरकार की साख केवल कानून-व्यवस्था के मोर्चे पर ही धुमिल नहीं हो रही है बल्कि भ्रष्टाचारियों को संरक्षण देने के साथ उस पर भेदभाव के भी आरोप लग रहे हैं। पिछले दिनों जिस तरह राज्य स्तरीय प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक हुए और सरकार के चहेतों पर ही ऊंगलियां उठी उससे सरकार कठघरे में हैं। पढ़े-लिखे नौजवान असहज हैं और अपने भविष्य को लेकर भयभीत भी। वे प्रतियोगी परीक्षाओं की शुचिता बनाए रखने और परीक्षाओं में व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार आयोगों के अध्यक्षों व अधिकारियों पर कार्रवाई की मांग कर रहे हैं लेकिन सरकार अपनी आंख-कान बंद की हुई है। यह उत्तर प्रदेश की मेधा से छल है। जब सरकार को शासन-प्रशासन में भ्रष्ट किस्म के लोग ही पसंद हैं तो फिर प्रतियोगी परीक्षाएं कराने का क्या मतलब है? बेहतर होगा कि अखिलेश सरकार आपराधिक और भ्रष्टाचारी तत्वों को संरक्षण पर उर्जा खपाने के बजाए कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने और प्रदेश के विकास पर अपना ध्यान केंद्रित करे। विकास और समुचित सुरक्षा से ही उसकी छवि सुधरेगी। दो राय नहीं कि अखिलेश यादव एक उर्जावान मुख्यमंत्री हैं और प्रदेश के विकास को लेकर गंभीर भी। लेकिन बात तब बनेगी जब उनकी सरकार को लेकर लोगों के मन में सकारात्मक धारणा बनेगी। अखिलेश सरकार को याद रखना होगा कि २००७ में मुलायम सिंह यादव की सरकार को जनता ने इसीलिए सत्ता से बेदखल कर दिया कि वह जनता के हित संवर्धन के बजाए आपराधिक तत्वों को संरक्षण देने में मशगुल रही। अखिलेश सकार को इससे सबक लेना होगा। उत्तर प्रदेश विधानसभा के कुल ४०३ सदस्यों में ४७ फीसद दागी हैं।

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