अक्सर बैंक डाकघर में कलम मांगते लोग दिख जाते

(लेखनी पुस्तक भार्या परो हस्तो गतो गता:)
—विनय कुमार विनायक
अक्सर बैंक डाकघर स्टेशन परिसर में
कलम मांगते कुछ लोग दिख जाते
ऐसे लोग बड़े मतलबी गैरजिम्मेदार होते!

उन्हें पता है बैंक डाकघर टिकट काउंटर पर
बिना लेखनी काम नही चलता
उन्हें यह भी ज्ञात है जिनकी जेब में कलम है
वे उनकी अपनी जरूरत के लिए होती!

मगर बड़ी बेहयाई से
ऐसे शख्स दूसरों से कलम मांग ही लेते
ऐसे में बड़े पेशोपेश में पड़ जाते भले लोग
कुछ बहाना बना नहीं सकते
किसी को ना कहकर निराश नहीं कर पाते!

नियमित रूप से जेब में कलम रखने वाले
नरम मिजाज के परिपक्व उम्र के बुजुर्ग होते
जो किसी शातिर दिमाग के मांगने की अदा पर
फिदा होकर अपनी लेखनी देकर टुक टुक निहारते!

उस अधकचरे कलमबाज को
जो बैंक डाकघर के कई सरकारी फार्म को
चीस चासकर डस्टबीन में फाड़ फेंक रहे होते!

एक वाकया है ट्रेन के रिजर्व बोगी में
एक ऐसा ही कलम मांगते लोग मिले
जिसने मुझसे यह कहते हुए मेरी कलम मांगी
कि दूसरी बोगी से एक सीट संख्या लिखकर
फिर आपकी सीट में आकर कलम लौटा दूंगा!

मेरे मन में तत्क्षण विचार आया
जब वो बिना लिखे अपनी सीट याद नही रख पाते
तो मुझे कलम लौटाने के लिए
मेरी सीट संख्या क्या खाक याद रख पाएगा?

फिर दूसरा वाकया मेरे साथ एक बैंक में हुआ
जहां मैं एक मित्र के साथ बिना काम गया था
और किसी ने मेरी कलम मांग ली!

मैं चूंकि बिना काम यूं ही बैठा था
भलमनसाहत में कलम उसे देकर भूल गया
और बिना कलम वापस लिए घर लौट आया!

अब सोचता हूं बैंक डाकघर में
जब भी कोई कलम मांगता दिखेगा
उसे पांच का सिक्का थमाकर कहूंगा
जाओ बाहर खरीद लो एक लिखो फेंको कलम!

और कलम बच जाने की खुशी में आश्वस्त हो लूंगा
कि एक अपरिचित को एक भांड़ चाय पिला दिया
चाय पर खर्च किए गए पैसे पर मलाल नहीं होता
जितना कि एक सुन्दर कलम खो जाने पर होता!
—-विनय कुमार विनायक

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