अपनी प्यारी बहनों को अब,
भैया कभी सताना मत|
तिरस्कार करके उनका हर,
पल उपहास उड़ाना मत|
एक जमाना था लड़की को,
बोझ बताया जाता था|
दुनियां में उसके आते ही,
शोक जताया जाता था|
हुई यदि लड़की घर में तो,
मातम जैसा छा जाता|
हर पास पड़ोसी घर आकर,
अपना दर्द जता जाता|
ऐसा लगता लड़की ना हो,
कोई आफत गले पड़ी|
ढेरों ताने तो माता को,
सुनना पड़ते घड़ी घड़ी|
किंतु आज परिवर्तन की कुछ,
लहर दिखाई देती है|
परियों जैसी नटखट सी अब,
प्यारी लगती बेटी है|
माता और पिता को अब तो,
लड़की भार नहीं लगती|
जो कठिन काम करते लड़के,
वह लड़की भी कर सकती|
सैनिक बनकर सीमा पर भी,
बम बारूद चलाती है|
बनकर दुर्गा वह रिपुओं का,
शीश काट ले आती है|
उड़ अंबर में भी जाती है,
सागर तल भी छू आती|
पर्वत के सीने छलनी कर,
सिर उसके ध्वज फहराती|
कंधे से कंधा मिलाना अब,
बेटी को चलना आता|
सड़कों पर चलती बाला से,
अब कौन नज़र टकराता|
अब भी कुछ पुरा पंथियों को,
पर लड़की दिखती भारी|
दुर्गा, देवी, काली को भी,
अब तक समझे बीमारी|
बहकावे में आ लड़की को,
पेटों में मरवाना मत|
तिरस्कार करके उनका हर,
पल उपहास उड़ाना मत|
समाज और देश के लिए लड़की का समान रूप से महत्व बताती एवं उसके प्रति उपेक्षापूर्ण व तिरस्कार की भावना त्यागने का सराहनीय संदेश देती सुंदर कविता है। कवि श्री प्रभुदयाल श्रीवास्तव जी को बधाई।
हिन्दी कविता के लिए अंग्रेजी में `Poetry’ शीर्षक देना खलता है। यदि संभव हो तो कलात्मक ढंग से हिन्दी में ही `कविता’ लिखवाएँ।