दीपशिखा अमर कर गया ।
धन्य है करुणाकलित मन
हर हृदय में घर कर गया ।
ज्योति ज्तोतिर्मय तभी तक
जब तक तिमिर तिरोहित नहीं ।
जगति का लावण्य तब तक
जब तक नियन्ता मोहित नहीं ।
पंच कंचुक विस्तीर्ण जब तक
तब तक सृष्टि प्रपञ्च साकार ।
बालुकाभित्ति सी ढह जायेगी
जैसे होगा उसका विस्तार ।
सृष्टि संकुचन उस महाशक्ति का
प्रलय है विस्तार उसका ।
बुलबुले सी मिटेगी लीला
होगा जैसे प्रसार उसका ।
अपनी इच्छा से ही उसने
उकेरा यह सुन्दर चित्र ।
समेटेगा अपनी ही इच्छा से,
यही शाश्वत सत्य विचित्र ॥
माँ सरस्वती आप को देश प्रेम एवं राष्ट्रभाक्ति लिखने का वर दें
निराला के बाद इस तरह की दार्शनिक शैली की कविता मैंने आज पहली बार पढी है। अच्छी कविता है मैम आपकी……
सुन्दर अभिब्यक्ति … हार्दिक बधाई ……….
बहुत सुन्दर कविता है .सम्पूर्ण है