राजनीतिक दलों का साझा चूल्हा…!!
तारकेश कुमार ओझा
अपने देश में गठबंधन की राजनीति के लड़ाई – झगड़े बिल्कुल पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद जैसे होते हैं। एक ही समय में दोनों पक्षों के कर्णधार आपस में हाथ मिला रहे होते हैं, तभी सीमा पर दोनों तरफ के सैनिक दांत पीसते नजर आते हैं। कभी हुआ कि अब लड़े … कि अब लड़े, फिर पलक झपकते आपसी सामंजस्य बढ़ाने का साझा बयान जारी हो गया। लेकिन लड़ाई कभी – कभी असली भी होती है। बिल्कुल भाजपा – शिवसेना या कांग्रेस – एनसीपी गठबंधन की तरह। इन दलों के बीच न जाने कितनी बार एेसी परिस्थितियां उत्पन्न हुई कि लगा कि अब दोनों को अलग हुए बिना कोई नहीं रोक सकता है। लेकिन जैसे – तैसे गठबंधन चलता रहा। गठबंधन की राजनीति का सबसे पहला व सफल प्रयोग पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट दलों के बीच देखने को मिला। वाममोर्चा के घटक दल तमाम किंतु – परंतु के साथ लगातार 34 साल तक सरकार में बने रहे। एेसा नहीं कि इनके बीच हमेशा सौहार्द ही बना रहा। कार्यकर्ताओं के बीच खूनी लड़ाई – झगड़े तक हुए। बैठकों में तनातनी और आंखें तरेरने का सिलसिला भी लगातार चलता रहा। यह तनातनी समय और परिस्थतियों के हिसाब से नरम – गरम होती रही । वाम शासन काल के बिल्कुल अंतिम दौर में नंदीग्राम हिंसा को लेकर जब माकपा बुरी तरह से घिर गई थी, तब घटक दलों ने भी इसकी खूब लानत – मलानत की। लेकिन गठबंधन आज भी कायम है। सत्ता परिवर्तन के बाद भी प्रदेश में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस का गठबंधन रहा, लेकिन यह बमुश्किल एक साल ही चल पाया। लगभग अच्छे दिनों में ही दोनों दलों ने अपने – अपने चूल्हे अलग कर लिए। 90 के दशक में पूर्व प्रधानमंत्री स्व. वी. पी. सिंह के दौर के कथित तीसरे मोर्चे को आखिर कोई कैसे भूल सकता है। जिसमें तमाम बेमेल विचारधारा वाले दल कुछ समय के लिए एक छत के नीचे रहने को मजबूर रहे। लेकिन जल्द ही उनमें अलगौझी हो गई। आज भी लगभग हर चुनाव के दौरान चौथे मोर्च की चर्चा उसी दौर की याद दिलाता है। महाराष्ट्र में भी सत्ता व विरोधी दोनों खेमों का गठबंधन टूट गया। अस्तित्व में आने के बाद से अब तक न जाने कितनी बार भाजपा – शिवसेना और कांग्रेस – एनसीपी के बीच लट्ठ -लट्ठ की नौबत आई। लेकिन किंतु – परंतु के साथ कुनबा बरकरार रहा। कदाचित यह प्रेशर पॉलिटिक्स का ही परिणाम रहा कि अच्छे और बुरे दिन वाले दोनो खेमों की दोस्ती टूट गई। शायद दबाव की राजनीति दोधारी तलवार की तरह होती है, जो दोनों तरफ से काटती है। जब कोई दल सत्ता में होता हैं तब भी साझेदार अधिक सीटों के लिए दबाव बनाते हैं कि ये अच्छे दिन सिर्फ आपकी वजह से नहीं आए, इसमें हमारा भी कुछ योगदान है। और जब बुरा दौर चलता है तब भी कि बात नहीं मानी गई तो हमारा रास्ता अलग। वैसे भी अब आपकी हैसियत ही क्या है।