ड्रेगन जैसा न हो भारत का विकास

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अरुण तिवारी
राहुल गांधी जी ने चुनाव के वक्त कहा था कि यदि हम पूरी शक्ति से काम में लग जायें, तो अगले कुछ सालों में चीन को पीछे छोङ देंगे। नरेन्द्र मोदी जी ने भी चीन की बराबरी करने की इच्छा जाहिर की है। ड्रेगन की बराबरी करने के लिए उन्होने ’मेक इन इंडिया’ के प्रतीक चिन्ह के रुप में शेर को उतारा है। ड्रेगनऔर शेर… दोनो ही दहशत के प्रतीक हैं। इस पर आह कहें कि वाह! आप तय करें। ’फस्र्ट डेव्लप इंडिया’ का रूप धरकर आया यह शेर, दिल्ली चिङियाघर के टाइगर विजय की तरह न हो जाये। कहीं ऐसा न हो कि निवेश की यह भूख, मकसूद जैसे किसी गरीब की जिंदगी लील जाये और हम उसकी फोटो के लिए फ्लैश ही चमकाते रह जायें।
हम निवेश के भूखे राष्ट्र हैं। अतः हम भारत में निवेश की होड को लेकर खुश तो हों, किंतु इस खुशी में हमें यह कभी न भूलें कि जिस तरह जरूरत से ज्यादा किया गया भोजन जहर है ठीक इसी तरह किसी भी संज्ञा या सर्वनाम का जरूरत से ज्यादा किया गया दोहन भी एक दिन जहर ही साबित होता है। चीन अपनी धरती पर यही कर रहा है। भारत अपने यहां यह न होने दे। चीन निवेश करे, किंतु द्विपक्षीय सहमत शर्तो पर। अभी-अभी गंगा जलमार्ग हेतु भारतीय अंतदेर्शीय जलमार्ग प्राधिकरण द्वारा जारी विज्ञापन में कहा गया है कि परामर्शदाताओं का चयन, रोजगार आदि विश्व बैंक उधारदाताओं के निर्देशों के अनुसार होगा। यह न हो।
लाभ के साथ, शुभ जरूरी
यह भी न हो कि निवेशकों की शर्त पर चलते-चलते भारत की सरकार भी निवेशक जैसी हो जाये। परियोजनाआं में वह भी सिर्फ लाभ ही देखे और सभी का शुभ भूल जाये। पारंपरिक रूप में भारतीय व्यापारी, लाभ के साथ शुभ का गठजोङ बनाकर व्यापार करता रहा है। ’शुभ लाभ’ का यह गठजोङ सरकार कभी न टूटने दे। यह मैं यह इसलिए कह रहा हूं कि चूकि मुझे भारत भी अब  उसी वैश्विक होड में शामिल होता दिखाई दे रहा है, जिसमें चीन और अमेरिका हैं।
भारत के दो शीर्ष दलों के दो शीर्ष नेताओं के साथ-साथ वर्तमान सरकार को भी एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि भारतीय विकास का भावी माॅडल चाहे जो हो, वह चीन सरीखा तो कतई नहीं हो सकता। चीनी अर्थव्यवस्था का माॅडल घटिया चीनी सामान की तरह है जिसका उत्पादन, उत्पादनकर्ता, उपलब्धता और बिक्री बहुत है, किंतु टिकाऊपन की गारंटी न के बराबर। चीन आर्थिक विकास की आंधी में बहता एक ऐसा राष्ट्र बन गया है, जिसे दूसरे के पैसे और सीमा पर कब्जे की चिंता है अपनी तथा दूसरे की जिंदगी व सेहत की चिंता कतई नहीं। यह मैं नहीं कह रहा खुद चीन के कारनामें कह रहे हैं।
समग्र विकास के मानकों की अनदेखी गलत
यह सच है कि चीन ने अपनी आबादी को बोझ समझने की बजाय एक संसाधन मानकर बाजार के लिए उसका उपयोग करना सीख लिया है। यह बुरा नहीं है। ऐसा कर भारत भी आर्थिक विकास सूचकांक पर और आगे दिख सकता है। किंतु समग्र विकास के तमाम अन्य मानकों की अनदेखी करके यह करना खतरनाक होगा। त्रासदियों के आंकङे बताते हैं कि आर्थिक दौङ में आगे दिखता चीन प्राकृतिक समृद्धि, सेहत और सामाजिक मुसकान के सूचकांक में काफी पिछङ गया है। उपलब्ध रिपोर्ट बताती हैं कि चीनी सामाजिक परिवेश में तनाव गहराता जा रहा है। अमेरिका की गैलप नाम अग्रणी सर्वे एजेंसी के मुताबिक, दुनिया के खुशहाल देेशों की सूची में भारत, चीन से 19 पायदान ऊपर है। भारत के 19 फीसदी लोग अपने रोजमर्रा के काम और तरक्की से खुश हैं, तो चीन में मात्र नौ प्रतिशत। जनवरी, 2013 से अगस्त, 2013 के आठ महीनों में करीब 50 दिन ऐसे आये, जब चीन के किसी न किसी हिस्से में कुदरत का कहर बरपा। औसतन् एक महीने में छह दिन! बाढ, बर्फबारी, भयानक लू, जंगल की आग, भूकंप, खदान धंसान और टायफून आदि के रूप में आई कुदरती प्रतिक्रिया के ये संदेशे कतई ऐसे नहीं है कि इन्हे नजरअंदाज किया जा सके। खासतौर पर तब, जब उत्तराखण्ड और कश्मीर के जलजले के रूप में ये संदेशे अब भारत में भी आने लगे हैं।
यह कमाना है या गंवाना ?
सिर्फ छह जनवरी, 2013 की ही तारीख को लें तो चीन में व्यापक बर्फबारी से सात लाख, 70 हजार लोगों के प्रभावित होने का आंकङा है। प्रदूषण की वजह से चीन की 33 लाख हेक्टेयर भूमि खेती लायक ही नहीं बची। ऐसी भूमि मे उत्पादित फसल को जहरीला करार दिया गया है। तिब्बत को वह ’क्रिटिकल जोन’ बनाने में लगा ही हुआ है। खबर है कि अपने परमाणु कचरे के लिए वह तिब्बत को ’डंप एरिया’ के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है। तिब्बत में मूल स्त्रोत वाली नदियों में बहकर आने परमाणु कचरा उत्तर पूर्व भारत को बीमार ही करेगा। ऐसे नजारे संयुक्त राष्ट्र देशों के भी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष-2013 में प्राकृतिक आपदा की वजह से दुनिया ने 192 बिलियन डाॅलर खो दिए। आपदा का यह कहर वर्ष 2014 में भी जारी है। विकसित कहे जाने वाले कई देश स्वयं को बचाने के लिए ज्यादा कचरा फेंकने वाले उद्योगों को दूसरे ऐसे देशों में ले जा रहे हैं, जहां प्रति व्यक्ति आय कम है। क्या ये किसी अर्थव्यवस्था के ऐसा होने का संकेत हैं कि उससे प्रेरित हुआ जा सके ? ऐसी मलीन अर्थव्यवस्था में तब्दील हो जाने की बेसब्री उचित है ? क्या भारत को इससे बचना नहीं चाहिए ?
गौरतलब है कि जिस चीनी विकास की दुहाई देते हम नहीं थक रहे, उसी चीन के बीजिंग, शंघाई और ग्वांगझो जैसे नामी शहरों के बाशिंदे प्रदूषण की वजह से गंभीर बीमारियों के बङे पैमाने पर शिकार बन रहे हैं। चीन के गांसू प्रांत के लांझू शहर पर औद्योगीकरण इस कदर हावी है कि लांझू चीन के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शुमार हो गया है। बीते 11 अप्रैल की ही घटना है। लांझू शहर को आपूर्ति किया जा रहा पेयजल इतना जहरीला पाया गया कि आपूर्ति ही रोक देनी पङी। आपूर्ति जल में बंेजीन की मात्रा सामान्य से 20 गुना अधिक पाई गई यानी एक लीटर पानी में 200 मिलीग्राम! बेंजीन की इतनी अधिक मात्रा सीधे-सीधे कैंसर को अपनी गर्दन पकङ लेने के लिए दिया गया न्योता है। प्रशासन ने आपूर्ति रोक जरूर दी, लेकिन इससे आपूर्ति के लिए जिम्मेदार ’विओलिया वाटर’ नामक ब्रितानी कंपनी की जिम्मेदारी पर सवालिया निशान छोटा नहीं हो जाता। भारत के लिए इस निशान पर गौर करना बेहद जरूरी है। गौरतलब है कि यह वही विओलिया वाटर है, जिसकी भारतीय संस्करण बनी ’विओलिया इंडिया’ नागपुर नगर निगम और दिल्ली जल बोर्ड के साथ हुए करार के साथ ही विवादों के घेरे में है।
यदि चीन जैसे सख्त कानून वाले देश में ’विओलिया वाटर’ जानलेवा पानी की आपूर्ति करके भी कायम है इससे ’पीपीपी’ माॅडल में भ्रष्टाचार की पूरी संभावना की मौजूदगी का सत्य स्थापित होता ही है। बावजूद इसके यदि भारतीय जनता पार्टी के घोषणापत्र में उक्त तीन पी के साथ लोगों को जोङकर चार पी यानी ’पीपीपीपी’ की बात कही गई थी, तो अच्छी तरह समझ लीजिए ’मनरेगा’ की तरह ’पीपीपीपी’ भी आखिरी लाइन में खङे व्यक्ति को बेईमान बनाने वाला साबित होगा। अतः कम से कम बुनियादी ढांचागत क्षेत्र के विकास व बुनियादी जरूरतों की पूर्ति वाले सेवाक्षेत्र में यह माॅडल नहीं अपनाना चाहिए।
कंपनियों से कल्याणकारी निकाय की अपेक्षा गलत
निजी कंपनी का काम मुनाफा कमाना होता है। वह कमायेगी ही। ’कारपोरेट सोशल रिसपोंसबिलिटी’ का कानूनी प्रावधान भले ही हो, बावजूद इसके ’शुभ लाभ’ की जगह ’अधिकतम लाभ’ के इस मुनाफाखोर युग में किसी कंपनी से कल्याणकारी निकाय की भूमिका निभाने की अपेक्षा करना गलत है। एक कल्याणकारी राज्य में नागरिकों की बुनियादी जरूरतों की पूर्ति सरकार की जिम्मेदारी होती है। इसे सरकार को ही निभाना चाहिए। जरूरत प्राकृतिक संसाधनों के व्यावसायीकरण से होने वाले मुनाफे में स्थानीय समुदाय की हिस्सेदारी के प्रावधान करने से ज्यादा, प्राकृतिक संसाधनों का शोषण रोकने की है।
माॅडल ऐसा, जो खुशियों का सूचकांक बढाये
प्राकृतिक संसाधनों का हमारे रोजगार, आर्थिक विकास दर और हमारे होठों पर स्थाई मुसकान से गहरा रिश्ता है। इस रिश्ते की गुहार यह है कि अब भारत ’प्राकृतिक संसाधन समृद्धि विकास दर’ को घटाये बगैर, आर्थिक विकास दर बढाने वाला माॅडल चुने। इस समय की समझदारी और सीख यही है कि सरकारें धन का घमंड छोङ, पूरी धुन के साथ विकास की एक ऐसी रूपरेखा को अंजाम देने में जुट जायेंय ताकि जिसमें कुदरत के घरौंदें भी बचें और हमारी आथिक, सामाजिक व निजी खुशियां भी। वरना् याद रखें कि प्रकृति, सेहत, खेती और रोजगार पर संकट अकेले नहीं आते, अनैतिकता और अपराध को ये साथ लाते हैं।
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1 COMMENT

  1. बिलकुल सही व तार्किक विश्लेषण।
    अंधी अर्थव्यवस्था का विनाशकारी परिणाम होगा यदि हम भी शेष विश्व का अनुकरण करेंगे तो।
    हमारी हज़ारों सालों से जीवित संस्कृति को बचाने की चुनौती है वर्तमान सुविधाभोगी लोलुपता।।।।

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