गरीबी का माखौल

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-अरविंद जयतिलक-
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रंगराजन कमेटी ने गरीबी का जो नया मापदंड गढ़ा है वह गरीबों के प्रति उसकी क्रूरता और संवेदनहीनता को ही अभिव्यक्त करता है। कमेटी ने सरकार को सुझाव दिया है कि षहरों में रोजाना 47 रुपए और गांवों में रोजाना 32 रुपए से कम खर्च करने वाले लोगों को ही गरीब माना जाए। समझना कठिन है कि महंगाई के इस दौर में जब चावल 40 रुपए किलो, दाल 80 रुपए, दुध 50 रुपए लीटर एवं अन्य खाद्य वस्तुएं अतिषय महंगी हैं, ऐसे में इतने कम रुपए में गुजर-बसर कैसे किया जा सकता है। यह पहली बार नहीं है जब सरकार की किसी समिति या संस्था ने गरीबी का क्रूर उपहास उड़ाया हो। याद होगा मई 2011 में सुरेश तेंदुलकर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर ही डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दायर कर कहा कि शहरों में 33 रुपए और गांवों में 27 रुपए खर्च करने वालों को गरीबों के लिए चलायी जा रही योजनाओं का लाभ नहीं दिया जाएगा। तब इस रिपार्ट पर तब खूब बवाल मचा था और फिर सरकार ने तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट की पुनर्समीक्षा के लिए आर्थिक सलाहकार परिषद के चेयरमैन सी. रंगराजन की अध्यक्षता में कमेटी गठित की। इन दोनों रिपोर्टों पर गौर करें तो एक बात स्पष्ट है कि सरकार की संस्थाएं गरीबी के मापदंड और गरीबों की संख्या को लेकर भ्रमित हैं। अभी गत वर्ष ही राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण कार्यालय (एनएसएसओ) द्वारा उद्घाटित किया गया कि देश के ग्रामीण इलाकों में सबसे निर्धन लोग औसतन 17 रुपए और शहरों में 23 रुपए रोजाना पर गुजर-बसर कर रहे हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की रिपोर्ट के मुताबिक 1993-94 में देश में निर्धनों की संख्या 32.03 करोड़ और 2004-05 में 30.17 करोड़ थी। गौर करें तो एक दशक में सिर्फ दो करोड़ निर्धनों की संख्या में कमी आयी है। दूसरी ओर हाल ही में प्रकाशित मैकेंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट (एमजीआई) की रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में बुनियादी सुविधाओं से महरुम 68 करोड़ लोग ऐसे हैं जो गरीबी का दंश झेल रहे हैं। सच तो यह है कि गरीबों की वास्तविक संख्या और गरीबी निर्धारण का स्पष्ट पैमाना न होना ही गरीबी उन्मूलन की राह में सबसे जबरदस्त बाधा है। भारत में अनेक अर्थशास्त्रियों एवं संस्थाओं ने गरीबी निर्धारण के अपने-अपने प्रमाप बनाए हैं। योजना आयोग द्वारा गठित विशेषज्ञ दल -टास्कफोर्स ऑन मिनीमम नीड्स एंड इफेक्टिव कंजम्पशन डिमांड- की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 2400 कैलोरी प्रतिदिन और शहरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति 2100 कैलोरी प्रतिदिन प्राप्त नहीं होता है, उसे गरीबी रेखा से नीचे माना गया है। जबकि डीटी लाकड़ावाला फार्मूले में षहरी निर्धनता के आकलन हेतु औद्योगिक श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक और ग्रामीण क्षेत्रों में इस उद्देष्य हेतु कृशि श्रमिकों के उपभोक्ता मूल्य को सूचकांक बनाया गया है। गरीबों की संख्या को लेकर दोनों के आंकड़े भी अलग-अलग हैं। लेकिन जो सबसे बड़ा सवाल है वह यह कि आखिर 2400 कैलोरीयुक्त पौष्टिक भोजन हासिल करने के लिए कितने रुपए की जरूरत पड़ेगी, इसे लेकर स्पष्ट राय नहीं है। खुद योजना आयोग भी भ्रम में है। अभी पिछले वर्ष उसने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर कर कहा कि शहरी क्षेत्र में 32 रुपए और और ग्रामीण इलाकों में प्रतिदिन 26 रुपए मूल्य से कम खाद्य एवं अन्य वस्तुओं का उपभोग करने वाले व्यक्ति ही गरीब माने जाएंगे। उसके मुताबिक दैनिक 129 रुपए से अधिक खर्च करने की क्षमता रखने वाला चार सदस्यों का शहरी परिवार गरीब नहीं माना जाएगा। यहां जानना यह भी जरूरी है कि इससे पहले आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा दायर कर कहा था कि ग्रामीण क्षेत्र में 17 रुपए और षहरी इलाकों में 20 रुपए में आसानी से 2400 कैलोरीयुक्त पौश्टिक भोजन हासिल किया जा सकता है। तब न्यायालय ने उसे जमकर फटकारा था। यह सच्चाई है कि देश में तकरीबन 30 करोड़ से अधिक लोगों को भरपेट भोजन नहीं मिल रहा है। आंकड़े बताते हैं कि गरीब तबके के बच्चों और महिलाओं में कुपोषण अत्यंत निर्धन अफ्रीकी देशों से भी बदतर है। भारत के संदर्भ में इफको की रिपोर्ट कह चुकी है कि कुपोषण और भूखमरी की वजह से देश के लोगों का शरीर कई तरह की बीमारियों का घर बनता जा रहा है। अभी गत वर्ष ही विश्व बैंक ने -गरीबों की स्थिति- नाम से जारी रिपोर्ट में कहा कि दुनिया में करीब 120 करोड़ लोग गरीबी से जुझ रहे हैं और इनमें एक तिहाई संख्या भारतीयों की है। रिपोर्ट के मुताबिक निर्धन लोग 1.25 डॉलर यानी 65 रुपए प्रतिदिन से भी कम पर गुजारा कर रहे हैं। अब सवाल यह कि जब विश्व बैंक 65 रुपए रोजाना पर गुजर-बसर करने वाले लोगों को गरीब मान रहा है तो रंगराजन कमेटी 47 और 32 रुपए रोजाना पर जीवन निर्वाह करने वाले लोगों को अमीर कैसे मान सकता है। राष्ट्रीय मानव विकास की रिपोर्ट पर विश्वास करें तो कि विगत वर्षों में देश में व्यय क्षमता में कमी आयी है। यानी निर्धनता बढ़ी है।

दूसरी ओर कैपजेमिनी और आरबीसी वेल्थ मैनेजमेंट द्वारा जारी विश्व संपदा रिपोर्ट (2013 में में करोड़पतियों की संख्या में 22.2 फीसद का इजाफा दिखाया गया है। यह इस बात का संकेत है कि देश में विकास की गति असंतुलित है और योजनाओं का लाभ समाज के अंतिम छोर तक नहीं पहुंच पा रहा है। अन्यथा क्या वजह है कि देश में करोड़पतियों की संख्या में वृद्धि हो रही है उस अनुपात में गरीबों की संख्या में कमी नहीं आ रही है। दरअसल, इसकी कई वजहें हैं। एक गरीबों की संख्या को लेकर कोई स्पष्ट आंकड़ा नहीं है और न ही गरीबी निर्धारण का कोई व्यवहारिक पैमाना है। सरकार इन दोनों को दुरुस्त करके ही लक्ष्य को साध सकती है। निश्चित रूप से गरीबों के कल्याणार्थ चलाए जा रहे सभी कार्यक्रमों के उद्देश्य पवित्र हैं। लेकिन उसके क्रियान्वयन में ढेरों खामियां हैं जिसे दूर किए बिना गरीबी उन्मूलन की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता। यह किसी से छिपा नहीं है कि गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के अंतर्गत आवंटित धनराशि तथा खाद्यान्न भ्रष्ट नौकरशाही-ठेकेदारों और राजनीतिज्ञों की भेंट चढ़ रहा है। इसमें सरकार को सुधार लाना होगा। गरीबी दूर के करने के लिए सरकार को कल-कारखाने व उद्योग-धंधों को गति देनी होगी और साथ ही कृषि के बढ़ावा के साथ भूमि सुधार की दिषा में कारगर प्रयास करना होगा। यह सही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में ऊसर और बंजर जमीन के पट्टे भूमिहीनों में बांटे गए हैं लेकिन समझना होगा कि भू-जोत सीमा का दोषपूर्ण क्रियान्वयन गरीबों का कोई बहुत भला नहीं कर सका है। दूसरी ओर मनरेगा के क्रियान्वयन से भी गरीबी में कमी आने की आस लगायी गयी थी। उचित होगा कि सरकार गरीबी के लिए जिम्मेदार विभिनन पहलूओं पर गंभीरता से विचार करे और उसके उन्मूलन के लिए कारगर रोडमैप तैयार करे। सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी से गरीबी की समस्या का अंत होने वाला नहीं है।

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