प्रबंधन कौशल के तीन वर्ष

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डॉ राजू पाण्डेय

लोकप्रिय सरकार का संचालन करने की दो विधियाँ हैं, पहली तो यह कि जनाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अधिकतम प्रयास किया जाए और दूसरी जरा असम्भव और अविश्वसनीय सी लगने वाली विधि है कि जनाकांक्षाओं को ही परिवर्तित कर दिया जाए। मोदी जी के चुनाव अभियान,उनकी विजय एवं उसके बाद उनके तीन वर्ष के शासन काल को राजनीति में कॉर्पोरेट प्रबंधन के बेहतरीन नमूने के रूप में देखा जा सकता है। जब हम राजनीति में कॉर्पोरेट प्रबंधन जैसी अभिव्यक्ति का उपयोग करते हैं तो इसे आलोचना तो कतई न समझा जाना चाहिए। यह एक नया प्रयोग है जो अमेरिका जैसे अनेक देशों में थोड़े बहुत संशोधन के साथ चल रहा है।
मोदी जी का तीन वर्ष का कार्यकाल इस बात को रेखांकित करता है कि जनता के लिए काम करने से भी अधिक महत्वपूर्ण है -जनता के लिए काम करते दिखना। इन तीन वर्षों में सरकार हिंदुत्व आधारित राष्ट्रवाद की स्वीकार्यता बढ़ाने में आश्चर्यजनक रूप से सफल रही है। इसी राष्ट्रवाद का एक आर्थिक पक्ष भी है जो आपसे बलिदान माँगता है, अपनी सुविधाओं का, अपने द्वारा अर्जित धन का, अपनी आर्थिक स्वतंत्रता का और आर्थिक जीवन को अनुशासित करने के बाद यह राष्ट्रवाद आपको अच्छे नागरिक की भाँति विरोध के नकारात्मक स्वरों का परित्याग कर एक अनुशासित नागरिक बनने के लिए प्रशिक्षित भी करता है। सांस्कृतिक-सामाजिक क्षेत्र में देश के प्रत्येक नागरिक से यह आशा की जाती है कि वह सनातन हिन्दू धर्म के संस्थागत स्वरुप की मान्यताओं के अनुसार आचरण करेगा।
मोदी जी ने अपने तीन वर्ष के कार्यकाल में बहुत कुशलता से अपने एजेंडे को लागू किया है। अपने पैतृक संगठन आर एस एस के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को साकार करने के लिए उन्होंने अद्भुत कौशल और साहस दिखाया है। बावजूद भविष्य में स्वयं मोदी जी का प्रतिद्वंद्वी बनने की क्षमता रखने के आज योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश के सी एम बनाए गए हैं और वे अपने पूरे रंग में हैं। मीडिया में भी उन्हें पर्याप्त समय और ध्यान दिलाया जा रहा है। गो रक्षा, मंदिर निर्माण, तीन तलाक, नाम परिवर्तन, पाठ्यक्रम परिवर्तन, इतिहास पुनर्लेखन, लव जिहाद, जैसे मुद्दे ट्रेंड कर रहे हैं। और बहुत सारे लोग इस भाव से इस घटनाक्रम के साक्षी बन रहे हैं कि एक बार जो हो रहा है हो ही जाने दो। धर्म निरपेक्षता और सर्वधर्म समभाव जैसे गाँधी जी और पंडित नेहरू द्वारा बड़े परिश्रम से अनिवार्य बनाए गए मूल्य इतनी आसानी से शंका के घेरे में ला दिए गए हैं कि भ्रम होता है कहीं ये आरोपित, अवास्तविक और अप्राकृतिक तो नहीं थे। पूरे विश्व को आक्रांत करने वाले इस्लामिक कट्टरपंथ पर रहस्यमय मौन धारण करने वाली भारत की सेक्युलर शक्तियों के व्यवहार के कारण उपजी छद्म धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण जैसी व्याख्याएँ बहुसंख्यक हिन्दू समाज को आकर्षक भी लग रही हैं क्योंकि बैक फुट पर रहने वाला अहिंसक और सहिष्णु हिन्दू समाज पहली बार हिंसात्मक आक्रामकता का आनंद ले रहा है। पहली बार बहुसंख्यक बड़े भाई को साधिकार ज्येष्ठांश मांगने का मौका मिला है और अपने अल्पसंख्यक प्रतिद्वंद्वियों (पहले आर्थिक,राजनीतिक,सामाजिक प्रतिद्वंद्वी, किन्तु अब धार्मिक प्रतिद्वंद्वी) को भय से पीछे हटते और शरणागत होते देखना उसके लिए नया और सुखद अनुभव है। किन्तु क्या यह अनुभव शेर के मुँह में खून लगने जैसा खतरनाक भी है, यह आने वाला समय बताएगा। ईसाई धर्म और इस्लाम धर्म का संस्थागत स्वरुप युद्ध और बल प्रयोग द्वारा धर्म प्रचार का हिमायती रहा है और राजनीति से इसकी निकटता भी रही है किन्तु हिन्दू धर्म बल प्रयोग और राजनीतिक सत्ता दोनों को श्रेयस्कर नहीं मानता था। वर्तमान में जो परिवर्तन आ रहे हैं वे ईसाई और इस्लाम धर्म के संस्थागत स्वरुप की असहिष्णुता और आक्रामकता तथा धर्म प्रचार हेतु राजसत्ता के उपयोग की प्रवृत्ति का समावेश हिन्दू धर्म में कर रहे हैं। हिन्दू धर्म की मौलिक प्रवृत्ति में लाया जा रहा यह परिवर्तन वैश्विक प्रभाव उत्पन्न कर सकता है जिसकी सकारात्मकता या नकारात्मकता का निर्धारण मूल्यांकनकर्ता की मूल्य मीमांसा के आधार पर परिवर्तनशील होगा।
कश्मीर और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में स्थिति को उस बिंदु तक पहुँचने दिया जा रहा है जहां लोकप्रिय सैनिक समाधान अनिवार्य हो जाएगा। दर्शक राष्ट्रभक्तों के लिए यह रोमांचकारी अवश्य होगा किन्तु अपना प्राणोत्सर्ग करने वाले वीर जवानों और इन क्षेत्रों की जनता के लिए तो यह जीवन में ऐसे परिवर्तनों का जनक बनेगा जिनका प्रभाव दुःखपूर्ण और चिरस्थायी होगा।
2014 के लोकसभा चुनावों के पूर्व जिस तरह देश और दुनिया में सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में श्री नरेंद्र मोदी जी को देश की समस्त समस्याओं के सर्वमान्य,सर्वस्वीकृत स्थायी हल के रूप में प्रस्तुत करने का अभूतपूर्व और अतुलनीय अभियान चला था वह इस बात का स्पष्ट संकेत था कि कॉर्पोरेट शक्तियाँ कांग्रेस से हताश हो गई हैं और देश को नव उदारीकरण एवं ग्लोबलाइजेशन के मार्ग पर उनकी मनोवांक्षित द्रुत गति से ले जाने के लिए उन्हें एक सशक्त प्रशासक चाहिए है। बाबा रामदेव एवं अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन कॉर्पोरेट मीडिया की सकारात्मक भूमिका से विशाल जनांदोलन में परिवर्तित हुए और कांग्रेस के भ्रष्टाचार की भयानकता को उजागर कर इन्होंने मोदी जी की उज्जवल छवि को और चमकीले ढंग से स्पष्ट किया।
2014 के चुनावों में विजय के बाद मोदी जी के सम्मुख बड़ी कठिन चुनौती थी। एक ओर उन्हें उन हिंदुत्ववादी संगठनों की अपेक्षाओं पर खरा उतरना था जिन्होंने उनके लिए घोर परिश्रम कर उन्हें सत्ता तक पहुंचाया था। दूसरी ओर उन कॉर्पोरेट्स की उम्मीदों को भी पूर्ण करना था जो उनके लिए देश क्या पूरी दुनिया में स्वीकार्यता का वातावरण बनाने में लगे थे। यदि धार्मिक कट्टरवाद के कारण साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलता तो वाणिज्यिक गतिविधियां प्रभावित होतीं जो कॉर्पोरेट्स को नागवार गुजरता और कॉर्पोरेट्स के एजेंडे को लागू करने पर आर एस एस का स्वदेशी और कृषि प्रधान ग्रामीण अर्थव्यवस्था का दर्शन हाशिए पर चला जाता। दोनों को संतुष्ट करने हेतु उन्होंने राष्ट्रवादी शासकीय नियंत्रण की विलक्षण युक्ति अपनाई। यह देखने में कोटा परमिट और इंस्पेक्टर राज की वापसी का आभास देती थी जो मुक्त वाणिज्यिक गतिविधियों हेतु बाधक होता है। किन्तु जिसका मूल उद्देश्य वाणिज्यिक गतिविधियों को लघु और मध्यम वर्गीय व्यापारियों के हाथों से निकालकर कॉर्पोरेट्स तक पहुँचाना था। सर्वप्रथम आयकर की पहुँच से दूर अपने धन को अनुत्पादक रूप से तिजोरियों में बंद रखने वाले, भ्रष्टाचार और काला बाजारी के आदिम युगीन अपरिष्कृत मॉडल को पसंद करने वाले अशिक्षित,अर्धशिक्षित छोटे मझोले व्यापारियों और पारंपरिक बचतों पर विश्वास करने वाले नौकरी पेशा लोगों को आयकर के दायरे में लाने के लिए और इनकी बचतों को मार्केट में बैंकिंग सिस्टम के माध्यम से प्रविष्ट कराने के लिए नोट बंदी की गई। ताकि इस राशि का उपयोग कॉर्पोरेट्स के माध्यम से कॉर्पोरेट्स की ही परिभाषा के अनुसार देश की अर्थव्यवस्था में जान फूंकने हेतु किया जा सके। जन असन्तोष को सीमित करने हेतु अनेक राष्ट्रवादी कारणों का उपयोग किया गया और नोट बंदी को काले धन और जाली नोटों के विरुद्ध,आतंकवाद और नक्सलवाद के खिलाफ मुहिम का एक हिस्सा बताया गया और जनता के त्याग को राष्ट्रोत्थान के लिए एक महान कदम बताया गया। यह भी एक प्रशासनिक युक्ति ही थी कि भ्रष्टाचार की समाप्ति के लिए आधुनिक तकनीक को आवश्यक बताते हुए कानूनी रूप से अनिवार्य न होते हुए भी आज आधार को पिछले दरवाजे से बैंकिंग और आयकर भुगतान तथा अन्य सभी जीवनोपयोगी सेवाओं हेतु अपरिहार्य बना दिया गया है। आधार की गोपनीयता का आलम यह रहा है कि सरकार की डिजिटल क्रांति में महान योगदान देने वाली एक निजी कंपनी का सिम प्राप्त करने के लिए आपको अपना आधार नंबर बताकर हैण्ड हेल्ड डिवाइस पर अंगूठा भर लगाना है और आपके आधार के सारे डिटेल्स कंपनी के रिटेलर की मोबाइल स्क्रीन पर प्रकट हो जाते हैं और आपको सिम देने हेतु आवश्यक जानकारी अपने आप कंपनी तक पहुंच जाती है। वान्नाक्राई रैनसमवेयर जैसे वायरस पूरे विश्व की डिजिटल अर्थव्यवस्था को संकट में डाल रहे हैं और हम स्वयं को तकनीकी के हवाले करने में घातक हड़बड़ी कर रहे हैं चाहे वह डिजिटल लेनदेन हो या ई वी एम हो। डिजिटल भुगतान हेतु कोई आपको बाध्य नहीं कर रहा है किंतु जब बैंक और इनके द्वारा संचालित ए टी एम कैश की कमी से जूझ रहे हों, कैश लेनदेन पर अनेक प्रकार के कर लगाए जा रहे हों और टैक्सेस का विवरण ऐसे फॉर्मेट्स में माँगा जा रहा हो जो डिजिटल एकाउंटिंग को सपोर्ट करते हों तो डिजिटल ट्रांसैक्शन आपके लिए बाध्यकारी हो जाता है। लेकिन चर्चा आपको डिजिटल ट्रांसैक्शन की ओर धकेलने की नहीं भीम, आधार पे आदि का उपयोग करने वाले और लाटरी जीत कर डिजिटल लेनदेन के माध्यम से अपनी तकदीर चमकाने वाले लोगों की हो रही है जो सकारात्मक सोच वाले मीडिया को करनी भी चाहिए। चाहे स्मार्ट सिटी हो चाहे स्मार्ट रेलवे स्टेशन हों कॉर्पोरेट्स ही देश का भविष्य बना रहे हैं। रेल मंत्री और किसी कॉर्पोरेट कंपनी के सी ई ओ की कार्यप्रणाली में यदि कोई अंतर है तो वह नीतियों के क्रियान्वयन की विधि में है, कॉर्पोरेट बॉस जो डंके की चोट पर कर रहे हैं,रेलमंत्री वही पिछले दरवाजे से नजर बचाकर कर रहे हैं। जनता के छोटे छोटे त्यागों से देश बदल रहा है। जनता खुशी खुशी रसोई गैस की, रेल टिकट की और भी तरह तरह की सब्सिडी छोड़ रही है। जनता और उसके लोकप्रिय प्रधानमंत्री के बीच मन की बात कार्यक्रम के माध्यम से सीधे संवाद हो रहा है। आत्मपीड़क धर्मभीरु भारतीय नागरिक के अवचेतन में प्रवेश कर चुके त्याग के विचार को कॉर्पोरेट हितों की पूर्ति हेतु प्रयुक्त किया जा रहा है।
भ्रष्टाचार देश की व्यवस्था के रग रग में व्याप्त है। सार्वजनिक जीवन में रहने वाला ऐसा कोई भी व्यक्ति न होगा जिससे अपने जीवन के किसी मोड़ पर भ्रष्टाचार की भेंट न हुई होगी। यदि दोनों में मित्रता न हुई हो तो एक दूसरे का विरोध न करने की संधि तो अवश्य हुई होगी। पूर्ववर्ती सरकारों के भ्रष्ट नेताओं ने वर्तमान सरकार को भ्रष्टाचार का इतना मसाला दे दिया है कि उसके उपयोग से वह अपनी भ्रष्टाचार विरोधी छवि की रक्षा और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों का भयादोहन सरलतापूर्वक कर सकती है। बारंबार स्वयं को भ्रष्टाचारमुक्त और भ्रष्टाचार के लिए जीरो टॉलरेंस रखने वाली सरकार का प्रमाण पत्र दिया जा रहा है। अनेक अनोखे तर्क विमर्श में हैं जिनमें एक यह भी है कि अविवाहित और परिवार त्यागी व्यक्ति आखिर किस लिए भ्रष्टाचार करेंगे। अथवा देश में पहली बार हिन्दू धर्म की विजय पताका फहराने वाला सशक्त नेता सत्ता में है,उसका विरोध किया तो आजीवन बहुसंख्यक होने के बावजूद अल्पसंख्यक की भांति रहना होगा। नोट बंदी और डिजिटल इकॉनॉमी आम नागरिक के लिए भ्रष्टाचार के अवसर कम करने के उपाय हैं किंतु नॉन परफार्मिंग एसेट्स की रीस्ट्रक्चरिंग तो वह अनूठी सूझ है जो कॉर्पोरेट्स की सहूलियत के लिए गढ़ी गई है।
देशवासियों को स्वच्छ,सभ्य एवं अनुशासित बनाने के लिए शौचालय, रसोई गैस के कनेक्शन और ढेर सारे आर्थिक नियंत्रण के नियमों का अभ्यस्त बनाया जा रहा है। भूख, गरीबी, बेकारी, बीमारी,कुपोषण,अशिक्षा जैसे आउटडेटेड मुद्दों का स्थान नई चुनौतियों ने लिया है-जन धन खातों को आधार से कैसे जोड़ें, अपने स्मार्ट मोबाइल पर गैस सब्सिडी के अलर्ट कैसे प्राप्त करें, श्रमिक स्वयं को आधार से कैसे जोड़ें आदि आदि। स्वच्छ पेयजल उपलब्ध न करा पाने वाले देश में प्रति फ्लश 13 लीटर पानी की आवश्यकता रखने वाले शौचालय बिना सीवर सिस्टम के बन रहे हैं,चल रहे हैं और ग्राम ओ डी एफ घोषित हो रहे हैं, यह किसी करिश्मे से कम नहीं है। छतविहीन झोपड़ियों में उज्ज्वला योजना के सिलिंडर शोभायमान होकर यह सिद्ध कर रहे हैं कि अब रेडियो और टी वी के विज्ञापनों की दुनिया का अवतरण हर घर में हो गया है। मनरेगा के तालाबों में जल लबालब भरा हुआ है बस इसे देखने के लिए किसी भ्रष्टाचारी की नजर चाहिए।
फील गुड फैक्टर तब तो साकार न हो पाया था पर अब हो गया है। हिन्दूवादी शक्तियाँ इस प्रत्याशा में हैं कि आततायी आक्रांताओं के प्रतीकों का ध्वंस होकर नए मंदिर, नए स्मारक, नए नाम और नया इतिहास रचा जाएगा।अडानी और अंबानी जैसे कॉर्पोरेट्स इस प्रत्याशा में हैं कि जन प्रतिरोध को शून्य कर देश की अर्थव्यवस्था थाली में सजाकर उनके सम्मुख पेश कर दी जाएगी। निर्धन इस प्रत्याशा में हैं कि उनकी निर्धनता पर दया कर सरकार उदारतापूर्वक उन्हें दान देती रहेगी और उनकी निर्धनता को जीवित रखेगी। सवर्ण इस प्रत्याशा में हैं कि उनका स्वर्ण युग लौटेगा और आरक्षण का अंत होगा। दलित यह सोच बैठे हैं कि चुनाव जीतकर सत्ता सुख भोगनेवाले और आरक्षण का लाभ ले उच्च पदों पर बैठे उनके स्वजन ही जब ब्राह्मणवादी सोच का शिकार हो जाते हैं तो घोषित ब्राह्मणवादी कौन से बुरे हैं? मुस्लिम यह सोच रहे हैं कि धर्म की सर्वोच्चता की आड़ में जो मुट्ठी भर लोग सारे लोगों पर हुकूमत कर उनका दमन करते हैं उन्हें सबक सिखाने के लिए हिन्दू वादी शक्तियों की मदद लेना ही उत्तम कूटनीति है। देशभक्त एक युद्ध चाहते हैं और जमाखोर और मुनाफाखोर इनके सुर में सुर मिला रहे हैं क्योंकि युद्ध होगा तो महंगाई, गरीबी और अराजकता फैलेगी और इनके दिन बहुरेंगे।
प्रधानमंत्री जीवित किंवदंती में बदलते जा रहे हैं। देश में जो कुछ अच्छा हुआ है और जो कुछ अच्छा होगा वह उनके अतिमानवीय बल्कि दैवीय गुणों के कारण हुआ है एवं होगा। अब विरोध शब्द ही अर्थहीन और अप्रासांगिक हो गया है। आइए बाहुबली 2 क्या देखते हैं, साक्षात चमत्कार को घटित होते देखिए।

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