सिद्धार्थ शंकर गौतम
पांच राज्यों के चुनाव परिणामों ने कांग्रेस की संगठनात्मक क्षमताओं पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। पंजाब तथा गोवा में जहां कांग्रेस को विपक्ष में बैठना पड़ रहा है वहीं उत्तराखंड में कांग्रेस अपेक्षानुरूप प्रदर्शन करने में नाकामयाब रही है। मणिपुर के चुनाव परिणाम ज़रूर कांग्रेस को थोड़ी राहत प्रदान कर सकते हैं लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मजबूत विकल्प न होना भी मणिपुर में कांग्रेस की वापसी में सहायक सिद्ध हुआ। सबसे बड़ा झटका तो कांग्रेस को उत्तरप्रदेश में लगा है। राहुल गाँधी की प्रतिष्ठा बन चुके यूपी चुनाव में कांग्रेस की दुर्गति यह बयां करती है कि यहाँ कांग्रेस के संगठन में घुन लग चुका है। अब सवाल यह है कि मीडिया द्वारा घोषित देश का भावी प्रधानमंत्री यूपी में ही फेल हो गया तो देश का भावी नेतृत्व कैसा होगा; समझा जा सकता है। दरअसल, राहुल गाँधी २००८ से ही यूपी की ख़ाक छान रहे थे, दलितों के घर रात गुजारने से लेकर खाना खाने तक का स्वांग रचा रहे थे लेकिन उनकी सारी कवायद जनता की नज़रों में ढोंग ही साबित हुई। यूपीए चेयरपर्सन सोनिया गाँधी ने यूपी चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन पर प्रदेश में पार्टी के संगठनात्मक ढाँचे को जिम्मेदार माना है। यानी परोक्ष रूप सेही सही मगर उन्होंने खुद ही राहुल गाँधी की राजनीतिक विफलता को स्वीकार कर लिया है। कारण जब राहुल २००८ से यूपी फतह का सपना देख रहे थे तो उन्होंने प्रदेश कांग्रेस के लचर संगठन को मजबूत करने हेतु आवश्यक कदम क्यूँ नहीं उठाये? यह अनुमान भी था कि कांग्रेस यदि यूपी में अपेक्षानुरूप प्रदर्शन नहीं करती है तो ठीकरा वरिष्ठ कांग्रेसियों पर फूटना तय है और जीत का सेहरा तो बेशक राहुल के माथे पर ही बंधता। और हुआ भी यही। वैसे देखा जाए तो यूपी में कांग्रेस की करारी हार का एक कारण वरिष्ठ कांग्रेसी नेताओं की बदजुबानी भी रहा। किन्तु यदि राहुल चाहते तो क्या कोई अनावश्यक बयानबाजी कर सकता था? एकल परिवारात्मक सत्ता का बेहतर उदाहरण कांग्रेस में राहुल-सोनिया की मंशा के इतर पत्ता भी नहीं हिलता। तो क्या समझा जाए। क्या राहुल की राजनीतिक अपरिपक्वता कांग्रेस को यूपी में भारी पड़ गई?
अब यह तथ्य स्वीकार्य हो चुका है कि राहुल राजनीति के लिहाज़ से सचमुच अपरिपक्व हैं। उन्होंने यूपी को बेनी बाबू, सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जायसवाल, प्रदीप जैन तथा आयातित दिग्विजय सिंह की आँखों से देखा। ये सभी ऐसे नेता हैं जिनकी स्वयं में प्रदेश में स्वीकार्यता समाप्ति की ओर है। इसे ऐसे भी समझा जा सकता है कि सलमान खुर्शीद की पत्नी लुई खुर्शीद की ज़मानत ज़प्त हो गई तो बेनी बाबू के सुपुत्र चुनाव हार गए। प्रदीप जैन झाँसी-ललितपुर लोकसभा क्षेत्र सेकांग्रेस का एक भी विधायक नहीं जिता पाए। दरअसल इन सभी नेताओं की उपलब्धि मात्र यह है कि ये २००९ का लोकसभा चुनाव जीते थे और फिलहाल केंद्र में मंत्री हैं लेकिन इनके संबंधियों और क्षेत्र के प्रत्याशियों की करारी हारने इनके जनाधार को बखूबी बयां कर दिया है। जहां तक बात दिग्विजय सिंह की है तो मीडिया पिछले ३-४ वर्षों से चीख-चीख कर कह रहा था कि राहुल की राजनीति पर कुठाराघात दिग्विजय सिंह द्वारा ही होगा लेकिन राहुल ने तो बाकायदा दिग्विजय सिंह को गुरु मानते हुए राजनीति में आगे बढ़ने का मंसूबा पाला और जब तक राहुल को दिग्विजय सिंह के साथ से होने वाले नुकसान का भान होता, बहुत देर हो चुकी थी। बाटला हॉउस एनकाउन्टर से लेकर संघ को साम्प्रदायिक साबित करना तथा यूपी में कांग्रेस की सरकार न बनने की सूरत में राष्ट्रपतिशासन की धमकी देना दिग्विजय सिंह की ऐसी भूल थी जिसका खामियाजा कहीं न कहीं राहुल को उठाना पड़ा है। हालांकि दिग्विजय सिंह ने यूपी में कांग्रेस की करारी हार की जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश की है लेकिन कांग्रेस के लिए इस कद्दावर ठाकुर नेता को किनारे करना इतना आसान भी नहीं दिखता। यानी दिग्विजय सिंह आगे भी कांग्रेस की मट्टी पलीत करते रहेंगे।
जहां तक बात यूपी में कांग्रेस की संभावनाओं की थी तो उसकी लड़ाई राज्य में तीसरे या चौथे क्रम के लिए थी जिसमें पार्टी पूर्ववत स्थिति कायम रखने में सफल रही है। हाँ कांग्रेस के वोट-बैंक में ज़रूर इजाफा हुआ है किन्तु राहुल के नाम के अनुरूप नहीं। यहाँ एक बात गौर करने लायक है कि राहुल ने भी प्रचार के दौरान जो गलतियां की वे कांग्रेस की नीतियों के अनुरूप नहीं थीं। जाति, धर्म, संप्रदाय की जिस साम्प्रदायिक राजनीति का आरोप राहुल ने भाजपा-बसपा-सपा पर लगाया, समय आने पर उन्होंने खुद ही साम्प्रदायिक कार्ड खेलना शुरू कर दिया। चाहे वह मुस्लिमों को आरक्षण का मामला हो या सैमपित्रोदा को बढई के रूप में पेश करना, राहुल ने वह सब किया जो कांग्रेस में इतने व्यापक रूप से कभी नहीं हुआ। राहुल की नकारात्मक प्रचार शैली भी यूपी में कांग्रेस के लिए आत्मघाती सिद्ध हुई। चाहे वह सपा का फर्जी चुनावी घोषणा पत्र फाड़ना हो या यूपी की जनता को भिखारी की उपमा देना; जनता ने राहुल को भाव ही नहीं दिया उलटे जनता का कांग्रेस के प्रति असंतोष बढ़ता गया जिसका परिणाम सभी के सामने है।
कुल मिलाकर लब्बो-लुबाव यह है कि राहुल यूपी की सियासी भूमिका में स्वयं की प्रासंगिकता बरकरार रखने में नाकामयाब साबित हुए। कांग्रेस को इससे सबक लेना चाहिए कि मात्र राहुल के करिश्माई नेतृत्व या क्षमताओं का ढिंढोरा पीटे जाने मात्र से पार्टी का भला नहीं होने वाला। पहले बिहार और अब यूपी में राहुल गाँधी की विफलता तो यही बयां करती है कि कांग्रेसियों को राहुल मेनिया से निकल विकासपरक राजनीति को प्रमुखता देनी होगी वरना आगे भी पार्टी की यही दुर्दशा होने वाली है और हमेशा की तरह ठीकरा वरिष्ठ कांग्रेसियों पर ही फूटेगा।