भारत में न्यायिक प्रणाली, समस्याएं और सुधार 

एडवोकेट डा. राधेश्याम द्विवेदी
लोकतांत्रिक भारत सरकार की तीन स्वतंत्र शाखाएं हैं – कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका। भारतीय न्यायिक प्रणाली अंग्रेजों ने औपनिवेशिक शासन के दौरान बनाई थी। इसको आम कानून व्यवस्था के रुप में जाना जाता है जिसमें न्यायाधीश अपने फैसलों, आदेशों और निर्णयों से कानून का विकास करते हैं। देश में कई स्तर की विभिन्न तरह की अदालतें न्यायपालिका बनाती हैं। भारत की शीर्ष अदालत नई दिल्ली स्थित सुप्रीम कोर्ट है और उसके नीचे विभिन्न राज्यों में हाई कोर्ट हैं। हाई कोर्ट के नीचे जिला अदालतें और उसकी अधीनस्थ अदालतें हैं जिन्हें निचली अदालत कहा जाता है। इसके अलावा ट्रिब्यूनल, फास्ट ट्रेक कोर्ट , लोक अदालत आदि न्यायपालिका के अंग के रुप में कार्य करते हैं। कानून को बनाए रखने और चलाने में न्यायपालिका की बहुत अहम भूमिका है। यह सिर्फ न्याय नहीं करती बल्कि नागरिकों के हितों की रक्षा भी करती है। न्यायपालिका कानूनों और अधिनियमों की व्याख्या कर संविधान के रक्षक के तौर पर काम करती है। अदालतें, ट्रिब्यूनल और नियामक, यह सब मिलकर देश के हित में एक एकीकृत प्रणाली बनाते हैं। कानून को बनाए रखने और चलाने में न्यायपालिका की बहुत अहम भूमिका है। यह सिर्फ न्याय नहीं करती बल्कि नागरिकों के हितों की रक्षा भी करती है। न्यायपालिका कानूनों और अधिनियमों की व्याख्या कर संविधान के रक्षक के तौर पर काम करती है। अदालतें, ट्रिब्यूनल और नियामक, यह सब मिलकर देश के हित में एक एकीकृत प्रणाली बनाते हैं।
भारत का सुप्रीम कोर्ट :- 28 जनवरी 1950 को भारत में सुप्रीम कोर्ट अस्तित्व में आया। उसके आने पर भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान की सुप्रीम न्यायिक प्रणाली के न्यायिक समिति की प्रिवी कांउसिल और संघीय अदालत खत्म हुए। सुप्रीम कोर्ट में राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त एक मुख्य न्यायाधीश और 30 अन्य न्यायाधीश होते हैं। इन न्यायाधीशों का रिटायरमेंट 65 साल की उम्र में होता है। शीर्ष कोर्ट भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों के लिए बड़े पैमाने पर काम करता है। देश की विभिन्न सरकारों के बीच विवाद के कारण यह एक सुप्रीम अधिकारी भी है। इसके पास अपने द्वारा पहले दिए गए किसी भी फैसले या आदेश की समीक्षा का भी अधिकार है, साथ ही यह किसी एक हाई कोर्ट से दूसरी या एक जिला कोर्ट से दूसरी में मामलों को हस्तांतरित भी कर सकता है।
राज्यों में उच्च न्यायालय :- राज्य स्तर पर सबसे कड़ी न्यायिक शक्ति देश में हाई कोर्ट के पास होती है। देश में 24 हाई कोर्ट हैं, जिनका क्षेत्राधिकार राज्य, केंद्र शासित प्रदेश या राज्यों के समूह पर होता है। सन् 1862 में स्थापित होने के कारण कलकत्ता हाई कोर्ट देश का सबसे पुराना न्यायालय है। राज्य या राज्यों के समूह की अपीलीय प्राधिकारी होने के नाते हाई कोर्ट के पास शीर्ष कोर्ट की तरह अधिकार और शक्तियां हैं । हाई कोर्ट के तहत सिविल और आपराधिक निचली अदालतें और ट्रिब्यूनल कार्य करते हैं। सभी हाई कोर्ट भारत की सुप्रीम कोर्ट के तहत आते हैं।
जिला और अधीनस्थ न्यायालय :- जिला और अधीनस्थ अदालतें उच्च न्यायालय के तहत आती हैं। इन अदालतों का प्रशासन क्षेत्र भारत में जिला स्तर का होता है। जिला अदालत सभी अधीनस्थ अदालतों के उपर लेकिन उच्च न्यायालय के नीचे होती हैं। जिले का क्षेत्राधिकार जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पास होता है। सिविल मामलों का संचालन करते हुए जिला जज और आपराधिक केसों के न्याय का संचालन करते समय उसे सत्र न्यायाधीश कहा जाता है। राज्य सरकार द्वारा मेट्रोपोलिटन के रुप में मान्यता प्राप्त शहर या इलाके की जिला अदालत में अध्यक्षता करने पर उसे मेट्रोपोलिटन सत्र न्यायाधीश के तौर पर संबोधित किया जाता है। जिला न्यायाधीश हाई कोर्ट के न्यायाधीश के बाद सबसे बड़ा न्यायिक प्राधिकरण रहता है। जिला अदालतों का भी अधीनस्थ अदालतों पर अधिकार रहता है। निचली अदालतों में सिविल मामलों को देखने के लिए आरोही क्रम में जूनियर सिविल जज कोर्ट, प्रिंसिपल जूनियर सिविल जज कोर्ट, वरिष्ठ सिविल जज कोर्ट देखते हैं। निचली अदालतों में सिविल मामलों को देखने के लिए आरोही क्रम में द्वितीय श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट की कोर्ट, प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत और मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट अदालत होती है।
ट्रिब्यूनल :-सामान्य तौर पर ट्रिब्यूनल एक व्यक्ति या संस्था को कहा जाता है, जिसके पास न्यायिक काम करने का अधिकार हो चाहे फिर उसे शीर्षक में ट्रिब्यूनल ना भी कहा जाए। उदाहरण के लिए एक न्यायाधीश वाली अदालत में भी हाजिर होने पर वकील उस जज को ट्रिब्यूनल ही कहेगा।
फास्ट ट्रेक कोर्ट :-भारत में फास्ट ट्रेक कोर्ट यानि एफटीसी का लक्ष्य जिला और सैशन अदालतों में केसों के बैकलाग दूर करने का है। इन अदालतों के काम करने कर तरीका भी सत्र और ट्रायल कोर्ट जैसा है। शुरुआत मे फास्ट ट्रेक कोर्ट को लंबे समय से लंबित पड़े मामलों को देखने के लिए बनाया गया था पर बाद में उन्हें विशिष्ट मामले देखने के लिए निर्देशित किया गया जो कि मुख्य तौर पर महिलाओं और बच्चों से जुड़े थे।
लोक अदालत :-लोक अदालत की अवधारणा वैकल्पिक विवाद समाधान के तौर पर की गई है। यह ग्राम पंचायत और पंच परमेश्वर के गांधीवादी सिद्धांतों पर आधारित है। ‘लोक‘ का मतलब लोग और ‘अदालत’ यानि कोर्ट है। लोक अदालतें विभिन्न मामले अच्छी तरह निपटाती हैं, जैसे मोटर दुर्घटना मुआवजे के मामले, वैवाहिक और पारिवारिक विवाद, भूमि अधिग्रहण के विवाद और विभाजन के दावे आदि।
न्यायिक प्रणाली की समस्याएं :- भारतीय न्यायिक प्रणाली दुनिया की सबसे पुरानी न्यायिक प्रणालियों में से एक है। देश का सर्वोच्च कानून यानि भारतीय संविधान आज के दौर के कानूनी और न्यायिक प्रणाली की रुपरेखा देता है। भारतीय न्यायिक प्रणाली ‘आम कानून प्रणाली’ के साथ नियामक कानून और वैधानिक कानून का पालन करती है। हमारी न्याय प्रणाली की एक महत्वपूर्ण विशेषता है कि यह विरोधात्मक प्रणाली पर आधारित है, यानि इसमें कहानी के दो पहलुओं को एक तटस्थ जज के सामने पेश किया जाता है जो तर्क और मामले के सबूतों के आधार पर फैसला सुनाता है।
न्यायिक प्रणाली की चुनौतियां :- हमारी न्यायिक प्रणाली में कुछ निहित समस्याएं हैं जो इस प्रणाली के दोष और कमजोरियां दिखाती हैं और इन्हें तुरंत सुधारों और जवाबदेही की आवश्यकता है।
1. न्यायपालिका में भ्रष्टाचार:- सरकार की किसी भी अन्य संस्था की तरह भारतीय न्यायिक प्रणाली भी समान रुप से भ्रष्ट है। हाल ही में हुए विभिन्न घोटालों जैसे सीडब्ल्यूजी घोटाला, 2जी घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला और बलात्कार सहित समाज में हो रहे अन्य अत्याचारों ने नेताओं और गणमान्य व्यक्तियों और आम जनता सभी के आचरण पर जोर डाला है और भारतीय न्यायपालिका के काम के तरीकों में भी कमियां दिखाई हैं। यहां जवाबदेही की कोई व्यवस्था नहीं है। मीडिया भी अवमानना के डर से साफ तस्वीर पेश नहीं करता है। रिश्वत लेने वाले किसी जज के खिलाफ बिना मुख्य न्यायाधीश की इजाजत के एफआईआर दर्ज करने का कोई प्रावधान नहीं है।
2. लंबित मामलों का बैकलाग:- भारतीय कानून प्रणाली में दुनिया में सबसे ज्यादा लंबित मामलों का बैकलाॅग है जो कि लगभग 30 मिलीयन मामलों का है। इनमें से 4 मिलीयन हाई कोर्ट में, 65000 सुप्रीम कोर्ट में हैं। यह आंकड़े लगातार बढ़ते जा रहे हैं और इसी से कानून प्रणाली की अयोग्यता का पता चलता है। जजों की संख्या बढ़ाने, और ज्यादा कोर्ट बनाने की बात हमेशा की जाती है पर इसे लागू करने में हमेशा देर या कमी होती है। इसके पीडि़त सिर्फ गरीब और आम लोग ही होते हैं क्योंकि अमीर लोग महंगे वकीलों का खर्च वहन कर सकते हैं और कानून अपने पक्ष में कर सकते हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय और बड़े निवेशक भारत में व्यापार करने से हिचकिचाते हैं। इस बैकलाग के कारण ही भारतीय जेलों में बंद कैदी भी पेशी के इंतजार में रह जाते हैं। यह भी बताया गया है कि भारत के आर्थिक हब मुंबई में अदालतें सालों पुराने जमीनी मामलों के बोझ तले दबी हैं जिससे शहर के औद्योगिक विकास में भी बड़ी रुकावट आती है।
3. पारदर्शिता की कमी :- भारतीय न्यायिक प्रणाली की एक और समस्या उसमें पारदर्शिता की कमी है। यह देखा गया है कि सूचना के अधिकार को पूरी तरह से कानून प्रणाली से बाहर रखा गया है। इसलिए न्यायपालिका के कामकाज में महत्वपूर्ण मुद्दों, जैसे न्याय और गुणवत्ता को ठीक से नहीं जाना जाता है। विचाराधीन कैदियों की मुश्किलें: भारतीय जेलों में बंद कैदियों में से ज्यादातर विचाराधीन हैं जो कि उनके मामलों के फैसले आने तक जेल में ही बंद रहते हैं। कुछ मामलों में तो ये कैदी अपने उपर दायर मामलों की सजा से ज्यादा का समय सिर्फ सुनवाई के इंतजार में ही जेल में निकाल देते हैं। इसके अलावा अदालत में खुद के बचाव का खर्च और दर्द वास्तविक सजा से भी ज्यादा होता है। वहीं दूसरी ओर अमीर लोग पुलिस को अपनी ओर कर लेते हैं जिससे पुलिस अदालत में लंबित मामले के दौरान गरीब व्यक्ति को परेशान या चुप कर सकती है।
4. समाज से परस्पर संवाद नहीं:- किसी भी देश की न्यायपालिका समाज का अभिन्न अंग होता है। उसका समाज से नियमित और प्रासंगिक परस्पर संवाद होता है। कुछ देशों में न्यायिक निर्णयों में आम नागरिकों की भी भूमिका होती है। भारत में न्यायिक प्रणाली का समाज से कोई संबंध नहीं है जो कि इसे ब्रिटिश न्यायिक सेट-अप से विरासत में मिला है। लेकिन 70 सालों में कुछ बात बदल जानी चाहिए। आज भी कानून अधिकारी लोगों से मिलने के लिए करीब नहीं आते हैं। हम देखते हैं कि सूचना और संचार में इतनी तरक्की से देश के लोगों के जीवन में बड़ा बदलाव आया है, लेकिन इसके बाद भी भारतीय कानून प्रणाली अब भी ब्रिटिश असर वाली दबंग और कपटी लगती है जो कि अमीर लोगों के लिए है और देश और आम लोगों से बहुत दूर है। सच तो यह है कि वर्तमान न्याय प्रणाली लोकतांत्रिक प्रक्रिया, मानदंड और समय के अनुकूल नहीं है और सिर्फ समाज के एक वर्ग को खुश करने और उनके निहित स्वार्थ के लिए काम करती है। इसलिए इसके तुरंत पुनर्गठन की आवश्यकता है।
न्यायिक सुधार :– दशकों से भारतीय न्यायतंत्र में सुधारों की आवश्यकता महसूस की जा रही है क्योंकि सस्ता एवं शीघ्र न्याय कुल मिलाकर भ्रामक रहा है। अदालतों में लंबित मामलों को जल्दी निपटाने के उपायों के बावजूद 2 करोड़ 50 लाख मामले लंबित हैं। विशेषज्ञों ने आशंका प्रकट की है कि न्याय तंत्र में जनता का भरोसा कम हो रहा है और विवादों को निपटाने के लिए अराजकता एवं हिंसक अपराध की शरण में जाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। वे महसूस करते हैं कि इस नकारात्मक प्रवृत्ति को रोकने और इसके रुख को पलटने के लिए न्याय तंत्र में लोगों का भरोसा तुरंत बहाल करना चाहिए। पिछले 7 दशकों से भारतीय विधि आयोग, संसदीय स्थायी समितियों और अन्य सरकार द्वारा नियुक्त समितियों, उच्चतम न्यायालय की अनेक पीठ, प्रतिष्ठित वकील और न्यायाधीश, विभिन्न कानूनी संघ संगठन और गैर सरकारी संगठनों जैसे विभिन्न कानूनी स्थापित सरकारी प्राधिकरणों ने न्याय तंत्र में समस्याओं की पहचान की है और उनको जल्दी दूर करने का आह्वान किया है।
न्याय में देरी न्याय देने से इंकार है इस बात को मानते हुए उच्चतम न्यायालय की संवैधानिक पीठ ने पी. रामचंद्र राव बनाम कर्नाटक (2002) मामले में हुसैनआरा मामले की इस बात को दोहराया कि, शीघ्र न्याय प्रदान करना, आपराधिक मामलों में तो और भी अधिक शीघ्र, राज्य का संवैधानिक दायित्व है, तथा संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 21, 19, एवं 14 तथा राज्य के निर्देशक सिध्दांतों से भी निर्गमित न्याय के अधिकार से इंकार करने के लिए धन या संसाधनों का अभाव कोई सफाई नहीं है। यह समय की मांग है कि भारतीय संघ और विभिन्न राज्य अपने संवैधानिक दायित्वों को समझें और न्याय प्रदान करने के तंत्र को मजबूत बनाने की दिशा में कुछ ठोस कार्य करें। 120वें विधि आयोग की रिपोर्ट में इस बात की ओर संकेत किया गया है कि भारत, दुनिया में आबादी एवं न्यायाधीशों के बीच सबसे कम अनुपात वाले देशों में से एक है। केंद्र सरकार ने फरवरी 2007 में बेहतर प्रबंधन के लिए न्याय प्रदान करने के तंत्र में सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग के लिए देश की सभी जिला एवं अधीनस्थ अदालतों के कम्प्यूटरीकरण और उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी के बुनियादी ढांचे को उन्नत करने के लिए योजना मंजूर की थी। 442 करोड़ रुपए की यह योजना दो वर्ष में पूरी की जानी थी। इस परियोजना के तहत अब तक न्यायिक अधिकारियों को 13,365 लेपटॉप, करीब 12,600 न्यायिक अधिकारियों को लेज़र प्रिंटर उपलब्ध कराए जा चुके हैं तथा 11,000 न्यायिक अधिकारियों एवं अदालतों के 44,000 कर्मियों को सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी उपकरण इस्तेमाल करने का प्रशिक्षण दिया जा चुका है। 489 जिला अदालतें और 896 तालुका अदालतों के परिसर में ब्रॉडबैण्ड संपर्कता उपलब्ध कराई गई है। इस परियोजना के तहत, देश में सभी अदालत परिसरों में कम्प्यूटर कक्ष स्थापित किए जाने हैं। सरकार को समग्र न्याय प्रक्रिया को भी दिमाग़ में रखना होगा जो मुकदमों को निपटाने में बाधा डालने के लिए अंतहीन जिरह संबंधी अपील और देरी करने वाले वकीलों की भूमिका को अनुमति देती है।

3 COMMENTS

  1. क्या कोई व्यक्ति सरकार के चुनावी घोषणा पत्र के मुद्दे को कोर्ट में चुनौती दे सकता है क्योंकि सरकार कुछ मुद्दे अपने चुनावी घोषणा पत्र में रखे थे ओर अब सरकार उन मुद्दों से इंकार करने लगी है

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