मौत के वायरस का उत्पादन?

0
127

प्रमोद भार्गव

चीन में नोबेल कोरोना नाम के जिस वायरस ने कोहराम मचाया हुआ है, दुनिया के वैज्ञानिकों ने उसे चीन के महानगर वुहान स्थित वायरस प्रयोगशाला पी-4 में उत्सर्जित किए जाने की आशंका व्यक्त की है। दरअसल आजकल जीवाणु व विषाणुओं की मूल संरचना में जेनेटिकली परिवर्तन कर खतरनाक जैविक हथियार बनाए जाने लगे हैं। यह आशंका इसलिए जताई गई है क्योंकि चीन ने एक महीने तक इस बीमारी के फैलने की जानकारी किसी को नहीं दी। बीमारी फैलने के बाद चीन करीब डेढ़ महीने तक इसे मामूली बीमारी बताता रहा। जब बीमारी बेकाबू होती चली गई तब चीन ने इस जानकारी को विश्व स्वास्थ्य संगठन के साथ दुनिया के अन्य देशों से साझा किया। लेकिन तबतक 3 दिसंबर 2019 से शुरू हुई यह बीमारी दुनिया के 35 से ज्यादा देशों को अपनी चपेट में ले चुकी थी।दरअसल, यह आशंका इसलिए भी है क्योंकि कोरोना के पहले भी चीन में ही कई वायरस पहली बार पाए गए। 1996 में बर्ड फ्लू चीन से ही फैला और 440 लोग इसके शिकार हुए। 2003 में दक्षिण चीन से सार्स नामक वायरस फैला और इसने दुनिया के 26 देशों के 800 लोगों की जिन्दगी ले ली। 2012 में चीन से ही मर्स नाम का वायरस फूटा और इसने 27 देशों में कहर ढाकर करीब 800 लोगों को मौत की नींद सुला दिया। इन सभी वायरसों का उत्सर्जन उसी वुहान शहर से हुआ, जहां चीन की वायराॅलोजी पी-4 प्रयोगशाला है। इसलिए यह शक वैज्ञानिकों को है कि कोरोना वायरस किसी अन्य वायरस के जीन में वंशानुगत परिवर्तन करते समय भूलवश प्रयोगशाला से निकला और दुनिया को महामारी के संकट में डालने का सबब बन गया।प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाॅकिंग ने मानव समुदाय को सुरक्षित रखने की दृष्टि से जो चेतावनियां दी हैं, उनमें एक चेतावनी जेनेटिकली इंजीनियरिंग अर्थात आनुवांशिक अभियंत्रिकी से खिलवाड़ भी है। खासतौर से चीन और अमेरिकी वैज्ञानिक विषाणु (वायरस) और जीवाणु (बैक्टीरिया) से प्रयोगशालाओं में छेड़छाड़ कर एक तो नए विषाणु व जीवाणुओं के उत्पादन में लगे हैं, दूसरे उनकी मूल प्रकृति में बदलाव कर उन्हें और ज्यादा सक्षम व खतरनाक बना रहे हैं। इनका उत्पादन मानव स्वास्थ्य के हित के बहाने किया जा रहा है लेकिन ये बेकाबू हो गए तो तमाम मुश्किलों का भी सामना करना पड़ सकता है। कई देश अपनी सुरक्षा के लिए घातक वायरसों का उत्पादन कर खतरनाक जैविक हथियार भी बनाने में लग गए हैं। कोरोना वायरस के बारे में यह शंका स्वाभाविक है कि कहीं यह वायरस किसी ऐसे ही खिलवाड़ का हिस्सा तो नहीं?आनुवांशिक रूप से परिवर्धित किए विषाणु व जीवाणुओं के प्रकोप को लेकर हॉलीवुड में कई फिल्में बनी हैं। फिल्मों की यह परिकल्पना अब प्रयोगशालाओं की वास्तविकता में बदल गई है। 2014-15 में फैले इबोला वायरस ने हजारों लोगों के प्राण लील लिए थे। जबकि इबोला प्राकृतिक वायरस था। इबोला की सबसे पहले पहचान 1976 में सूडान और कांगों में हुई थी। अफ्रीकी देश जैरे की एक नन के रक्त की जांच करने पर नए विषाणु इबोला का ज्ञान हुआ था। यह नन पीले ज्वर (यलो-फीवर) से पीड़ित थी। करीब 40 साल तक शांत पड़े रहने के बाद एकाएक इस विषाणु का संक्रमण सहारा अफ्रीका में फैलना शुरू हुआ। इसके बाद इसका हमला पश्चिम अफ्रीका के इबोला में हुआ। जहां से यह बीमारी अन्य अफ्रीकी मुल्कों में फैली। इबोला के विषाणु संक्रमित जानवर से मनुष्य में फैलते हैं। हालांकि यह महामारी में बदलता इससे पहले इसे काबू में ले लिया गया। जब इबोला वायरस बड़ा तांडव रचने में कामयाब हो सकता है तो जेनेटिक इंजीनियार्ड वायरस तो वर्णसंकर होने के कारण भयंकर तबाही मचा सकता है? बावजूद प्रयोगशालाओं में विषाणु-जीवाणु उत्पादित करने के प्रयोग चल रहे हैं।अमेरिका के विस्कोसिन-मेडिसन विवि के वैज्ञानिक योशिहिरो कावाओका ने स्वाइन फ्लू के वायरस के साथ छेड़छाड़ कर उसे इतना ताकतवर बना दिया है कि मनुष्य शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। मसलन मानव प्रतिरक्षा तंत्र उसपर बेअसर रहेगा। यहां सवाल उठता है कि खतरनाक विषाणु को आखिर और खतरनाक बनाने का औचित्य क्या है? कावाओका का दावा है कि उनका प्रयोग 2009 एच-1, एन-1 विषाणु में होने वाले बदलाव पर नजर रखने के हिसाब से नए आकार में ढाला गया है। वैक्सीन में सुधार के लिए उन्होंने वायरस को ऐसा बना दिया है कि मानव की रोग प्रतिरोधक प्रणाली से बच निकले। मसलन रोग के विरुद्ध मनुष्य को कोई संरक्षण हासिल नहीं है।हम आए दिन नए-नए बैक्टीरिया व वायरसों के उत्पादन के बारे खबरें पढ़ते रहते हैं। हाल ही में त्वचा कैंसर के उपचार के लिए टी-वैक थैरेपी की खोज की गई है। इसके अनुसार शरीर की प्रतिरोधक क्षमता को ही विकसित कर कैंसर से लड़ा जाएगा। इस सिलसिले में स्टीफन हाॅकिंग सचेत किया था कि इस तरीके में बहुत जोखिम है। क्योंकि जीन को मोडीफाइड करने के दुष्प्रभावों के बारे में अभीतक वैज्ञानिक खोजें न तो बहुत अधिक विकसित हो पाई हैं और न ही उनके निष्कर्षों का सटीक परीक्षण हुआ है। उन्होंने यह भी आशंका जताई थी कि प्रयोगशालाओं में जीन परिवर्धित करके जो विषाणु-जीवाणु अस्तित्व में लाए जा रहे हैं, हो सकता है, उनके तोड़ के लिए किसी के पास एंटी-बायोटिक एवं एंटी-वायरल ड्रग्स ही न हों?कुछ समय पहले खबर आई थी कि जेनेटिकली इंजीनियर्ड अभियांत्रिकी से ऐसा जीवाणु तैयार कर लिया है, जो 30 गुना ज्यादा रसायनों का उत्पादन करेंगे। जीन में बदलाव कर इस जीवाणु के अस्तित्व को आकार दिया गया है। माना जा रहा है कि यह एक ऐसी खोज है, जिससे दुनिया की रसायन उत्पादन कारखानों में पूरी तरह जेनेटिकली इंजीनियर्ड बैक्टीरिया का ही उपयोग होगा। विस इंस्टीट्यूट फाॅर बाॅयोलाॅजिकली इंस्पायर्ड इंजीनियंरिंग और हावर्ड मेडिकल स्कूल के शोधकर्ताओं के दल ने यह शोध किया है। अनुवांशिकविद जाॅर्ज चर्च के नेतृत्व में किए गए इस शोध के तहत बैक्टीरिया के जींस को इस तरीके से परिवर्धित किया गया, जिससे वे इच्छित मात्रा में रसायन का उत्पादन करें। बैक्टीरिया अपनी मेटाबाॅलिक प्रक्रिया के तहत रसायनों का उत्सर्जन करते हैं। इस शोध के लिए वैज्ञानिकों ने ई-काॅली नामक बैक्टीरिया का इस्तेमाल किया है। इसमें बदलाव के लिए इवोल्युशनरी मैकेनिज्म को उपयोग में लाया गया।दरअसल जीवाणु एक कोशकीय होते हैं, लेकिन ये स्वयं को निरंतर विभाजित करते हुए अपना समूह विकसित कर लेते हैं। वैज्ञानिक इन जीवाणुओं पर ऐसे एंटीबायोटिक्स का प्रयोग करते हैं, जिससे केवल उत्पादन क्षमता रखने वाली कोशिकाएं ही जीवित रहें। इन कोशिकाओं के जीन में बदलाव कर ऐसे रसायन उत्पादन में सक्षम बनाया जाता है, जो उसे एंटीबायोटिक से बचाने में सहायक होता है। ऐसे में एंटीबायोटिक का सामना करने के लिए बैक्टीरिया को ज्यादा से ज्यादा रसायन का उत्पादन करना पड़ता है। रसायन उत्पादन की यह रफ्तार एक हजार गुना ज्यादा होती है। यह खोज ‘सर्वाइवल ऑफ फिटेस्ट‘ के सिद्धांत पर आधारित है। इस सिद्धांत के अनुरूप यह चक्र निरंतर दोहराए जाने पर सबसे ज्यादा उत्पादन करने वाले चुनिंदा जीवाणुओं की कोशिकाएं ही बची रह जाती हैं। मानव शरीर में उनका उपयोग रसायनों की कमी आने पर किया जा सकेगा, ऐसी संभावना जताई जा रही है। इस खोज से फार्मास्युटिकल बायोफ्यूल और अक्षय रसायन भी तैयार होंगे। लेकिन मानव शरीर में इसके भविष्य में क्या खतरे हो सकते हैं, यह प्रश्न फिलहाल अनुत्तरित ही है। इसीलिए इन विषाणु व जीवाणुओं के उत्पादन पर यह सवाल उठ रहा है कि क्या वैज्ञानिकों को प्रकृति के विरुद्ध वीषाणु-जीवाणुओं की मूल प्रकृति में दखलदांजी करनी चाहिए? दूसरे यह कि प्रयोग के लिए तैयार किए गए ऐसे जीवाणु व विषाणु कितनी सुरक्षा में रखे गए हैं? यदि वे जान-बूझकर या दुर्घटनावश बाहर आ जाते हैं तो इनके द्वारा जो नुकसान होगा, उसकी जबावदेही किसपर होगी? ऐसे में वैज्ञानिकों की ईश्वर बनने की महत्वाकांक्षा पर यह सवाल खड़ा होता है कि आखिर वैज्ञानिकों को अज्ञात की खोज की कितनी अनुमति दी जानी चाहिए? यदि वाकई वायरसों से छेड़छाड़ जैविक हथियारों के निर्माण के लिए की जा रही है तो यह स्थिति बेहद खौफनाक है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

13,025 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress