स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती का आर्यसमाज के इतिहास में गौरवपूर्ण स्थान

1
270

आर्यसमाज के महाधन स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती-
-मनमोहन कुमार आर्य
स्वामी दर्शनानन्द जी का आर्यसमाज के गौरवपूर्ण इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। आपका जन्म माघ मास कृष्ण पक्ष की दशमी के दिन व्रिकमी संवत् 1918 को 158 वर्ष पूर्व लुधियाना जिले के जगरांवा कस्बे में पिता पं0 रामप्रताप शर्मा जी के यहां 160 वर्ष पूर्व हुआ था। इस वर्ष आपकी जयन्ती 27 जनवरी को है। स्वामी दर्शनानन्द जी की माता का नाम हीरा देवी था। जन्म के समय स्वामी जी का नाम नेतराम रखा गया। आपके पितामह व प्रपितामह द्वारा बाद में आपका नाम बदल कर कृपाराम रख दिया गया। आपकी एक बड़ी बहिन कृष्णा जी थी तथा तीन अनुज पं0 कर्त्ताराम शर्मा, पं0 रामजी दास शर्मा तथा पं0 मुनिश्वर शर्मा थे। स्वामी जी की मिडल तक की शिक्षा फिरोजपुर में अपने मामा जी के यहां पर हुई। आपका विवाह पिता पं0 रामप्रताप जी ने कुल परम्परा के अनुसार 11 वर्ष की आयु में ही अमृतसर के एक कस्बे वीरवाल के निवासी पं0 सुन्दरदास जी की सुपुत्री पार्वती देवी के साथ सम्वत् 1929 में सम्पन्न करा दिया था। बचपन में स्वामी जी को पठन-पाठन सहित खेल-कूद, व्यायाम तथा पतंग उड़ाने का शौक था। स्वामी जी का एक पुत्र भी हुआ जिसका नाम नृसिंह रखा गया था।

स्वामी जी धर्म के विषय में चिन्तन मनन करते रहते थे। इन्हीं दिनों वह वेदान्ती बन गये। वेदान्त से प्रभावित पं0 कृपाराम जी विरक्त हो गये और गृहस्थ का त्याग कर एक वेदान्ती का वैराग्यपूर्ण जीवन बिताने लगे। पं0 कृपाराम जी ने हिमाचल प्रदेश की कुल्लु घाटी में प्रथमवार संन्यास लिया था। उन्होंने 18 जून सन् 1878 को अमृतसर में सरदार भगवान सिंह जी के गृह पर पौराणिक विद्वानों के साथ शास्त्रार्थ के अवसर पर ऋषि दयानन्द के साक्षात दर्शन किये थे। इस शास्त्रार्थ में पौराणिकों के लाये गये बालक व युवकों ने स्वामी जी पर पत्थर व ईंटों का प्रहार किया था। एक ईंट का टुकड़ा पं0 कृपाराम जी के पैर में भी लगा था जिसके घाव का निशान जीवन भर बना रहा। पं0 कृपाराम जी यदा-कदा अपने मित्रों को यह निशान दिखाया करते थे। पं0 कृपाराम जी ने इन्हीं दिनों पंजाब के कुछ स्थानों पर ऋषि दयानन्द के लगभग 37 व्याख्यान सुने। इसके प्रभाव से आप वेदान्त मत की विचारधारा का त्याग कर ऋषि दयानन्द के वेदानुयायी भक्त बनेे। पं0 कृपाराम जी आरम्भ में स्वामी दयानन्द जी से शास्त्रार्थ करने के इरादे से उनके पास गये थे परन्तु वहां स्वामी दयानन्द जी का व्याख्यान सुन कर उनको शास्त्रार्थ की आवश्यकता नहीं पड़ी थी और वह वैदिक धर्म के अनुयायी बन गये। पं0 कृपाराम जी की जीवनी पढ़कर यह भी विदित होता है कि उनके पं0 लेखराम आर्य-मुसाफिर से गहरे मैत्रीपूर्ण व आत्मीय सम्बन्ध थे। पं0 कृपाराम जी ने अपने परिवार के साथ जगरावां में रहते हुए ही घर पर एक संस्कृत की पाठशाला खोली थी। उनकी प्रेरणा से पिता पं0 रामप्रताप जी ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को पढ़ कर वैदिक धर्मी बन गये थे। आपके चाचा जी सहित कुछ परिवारजन आर्यसमाजी बने थे। 

दिनांक 30 अक्टूबर सन् 1883 को ऋषि दयानन्द का अजमेर में निधन हुआ था। पं0 कृपाराम जी ने महाप्रयाण की इस घटना के पश्चात कुछ लघु ग्रन्थों का प्रकाशन किया। उन्होंने ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का वितरण भी किया। आपने स्थान-स्थान पर जाकर मौखिक प्रचार किया। पं0 कृपाराम जी ने अपने ग्राम जगरांवा में वेद प्रचार के लिये अपने व्यय से एक प्रचारक रखा था। काशी में रहते हुए पं0 कृपाराम जी के पितामह की मृत्यु हुई। आपने उनकी अन्त्येष्टि वैदिक रीति से कर एक इतिहास रचा। उन दिनों वैदिक रीति से अन्त्येष्टि करना सामाजिक बहिष्कार को आमंत्रण देना होता था। पं0 कृपाराम जी ने इसी अवसर पर ‘तिमिरनाशक’ साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन भी आरम्भ किया था। काशी में रहते हुए आपका भाद्रपद के शुक्लपक्ष की चतुर्थी, विक्रमी संवत् 1946 को देवता विषय पर काशी के लगभग एक सौ पण्डितों से शास्त्रार्थ हुआ। पण्डितों का नेतृत्व पं0 शिवकुमार शास्त्री जी ने किया था। इसमें काशी के पण्डितों की पराजय हुई थी। पं0 जी का तिमिरनाशक प्रैस काशी विश्वनाथ मन्दिर के समीप था। वहां आर्यसमाज और एक संस्कृत पाठशाला का संचालन भी पं0 कृपाराम जी द्वारा किया जाता था। पाठशाला में तीन अध्यापक रखे गये थे। आर्यसमाज में पं0 शिवशंकर शर्मा का नाम अमर है। आप पं0 कृपाराम जी की ही देन थे। पं0 शिवशंकर शर्मा जी पं0 कृपाराम जी के काशी के पंडितों के साथ शास्त्रार्थ में तर्क व युक्तियों से प्रभावित होकर आर्यसमाज के अनुयायी व ऋषिभक्त बने थे। 

आचार्य नरदेव शास्त्री आर्यसमाज बच्छोवाली के सन् 1894 के उत्सव में पं0 कृपाराम जी के उपदेशों से प्रभावित होकर आर्यसमाज के अनुयायी बने थे। एक प्रतिभाशाली युवक को आर्यसमाज का सहयोगी बनाना पं0 कृपाराम जी के प्रभावशाली व्यक्तित्व व कृतित्व का ही परिणाम था। पं0 नरदेव शास्त्री के आचार्यात्व में गुरुकुल महाविद्यालय ने अनेक उपलब्धियां प्राप्त की हैं। पं0 कृपाराम जी पंजाब के आर्यसमाजों में अनेक अवसरों पर पं0 लेखराम जी के साथ उपस्थित हुए थे। दोनों विद्वानों में परस्पर गहरी आत्मीयता थी। पं0 कृपाराम जी ने अनेक पौराणिक विद्वानों से अनेक शास्त्रार्थ किये जिसमें सामान्य जन सम्मिलित होते थे। इसमें आर्यसमाज के पक्ष की विजय से प्रभावित होकर अनेक लोग आर्यसमाज की विचारधारा को ग्रहण कर आर्यसमाजी बनते थे। 

मालेरकोटला पंजाब में लुधियाना के निकट है। यह मुस्लिम रियासत थी। यहां सन् 1895 में आर्यसमाज के उत्सव में स्वामी श्रद्धानन्द, पं0 लेखराम जी तथा स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती जी पहुंचे थे। इस उत्सव में इन तीन विभूतियों के वहां के लोगों को एक साथ दर्शन होने से सुखद आश्चर्य हुआ था। इन विद्वानों के वहां व्याख्यान भी हुए। पं0 कृपाराम जी आर्यसमाज लुधियाना के प्रधान भी रहे। इस समाज में भी स्वामी श्रद्धानन्द और स्वामी दर्शनानन्द जी के एक ही दिन प्रवचन हुए थे। हम अनुमान लगा सकते हैं कि आर्यसमाज के अनुयायियों के लिए वह दृश्य स्वर्ग के समान सुखद रहा होगा। स्वामी दर्शनानन्द जी के प्रचार की सर्वत्र धूम थी। वह पंजाब के अनेक आर्यसमाजों में उत्सवों पर वेद प्रचार के लिये जाते थे। यह भी बता दें कि पंडित कृपाराम जी तेज गति से व्याख्यान देते थे। उनके व्याख्यान में संस्कृत शब्दों की प्रचुरता होती थी। पंडित जी ने सन् 1898 में धामपुर में आर्यसमाज की स्थापना भी की थी। पं0 जी ने एक ट्रैक्ट ‘हम निर्बल क्यों?’ सन् 1900 में लिखा था। आपने आगरा में ‘धर्मसभा से प्रश्न’ शीर्षक से एक ट्रैक्ट भी लिखा था जिसमें पौराणिकों से 64 प्रश्न किये गये थे। आपके बारे में यह प्रसिद्ध है कि आप प्रतिदिन एक ट्रैक्ट लिखा करते थे। आपके ट्रैक्ट का एक संग्रह स्वामी जगरीश्वरानन्द सरस्वती, दिल्ली ने कुछ वर्ष पहले प्रकाशित किया था। यह ग्रन्थ वर्तमान समय में भी इसके प्रकाशक एवं आर्य पुस्तक विक्रेताओं से उपलब्ध है। स्वामी जी आर्यसमाज में आने से पहले वेदान्ती थे। तब आपने संन्यास लेकर साधु नित्यानन्द नाम धारण किया था। आर्यसमाजी बनने पर यह साधुत्व वा संन्यास अप्रभावी हो गया था। आपने सन् 1901 में पुनः संन्यास लेकर स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती नाम धारण किया था। स्वामी जी हिन्दी व उर्दू के कवि भी थे। आप हिन्दी, संस्कृत, उर्दू, अरबी व फारसी भाषाओं के विद्वान थे। हिन्दी व उर्दू में आपने अनेक कवितायें व गीत लिखे हैं। स्वामी जी पर दो बार न्यायालय में अभियोग भी चले। 

स्वामी दर्शनानन्द जी ने अपने जीवन में अनेक गुरुकुलों की स्थापना की। सन् 1899 में स्वामी जी ने गुरुकुल सिकन्दराबाद, जनपद बुलन्दशहर की स्थापना की थी। स्वामी जी ने एक गुरुकुल बदायूं के सूर्यकुण्ड क्षेत्र में तपोभूमि गुरुकुल के नाम से सन् 1903 में स्थापित किया था। इस गुरुकुल का अपना बड़ा भवन आरम्भ के दो तीन वर्षों में बनकर तैयार हो गया था। सन् 1906 में इस गुरुकुल में 60 ब्रह्मचारी अध्ययन करते थे। सन् 1905 में स्वामी जी ने गुरुकुल विरालसी की स्थापना की थी। इस गुरुकुल ने भी अपने आरम्भिक दिनों में प्रशंसनीय उन्नति की और आर्यसमाज को अच्छे विद्वान मिले। स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती जी द्वारा स्थापित सबसे प्रसिद्ध गुरुकुल ‘गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर’ है। सम्वत् 1964 में गंगा के तट पर इस गुरुकुल की स्थापना की गई थी। पं0 गंगादत्त जी, पं0 भीमसेन जी तथा आचार्य नरदेव शास्त्री जी ने आरम्भ में ही इस गुरुकुल के लिये अपनी सेवायें प्रदान की थी। कुछ वर्ष पहले हम अपने कुछ मित्रों के साथ इस गुरुकुल के उत्सव में सम्मिलित होने जाया करते थे। 

पं0 प्रकाशवीर शास्त्री जी इस गुरुकुल के यशस्वी स्नातक रहे।  आप कई बार सांसद रहे। आपने कांग्रेस के कई दिग्गज नेताओं को निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़कर अपने व्यक्तित्व एवं भाषण कला में निपुणता के गुण के आधार पर हराया। हमने कई बार पं0 प्रकाशवीर शास्त्री जी के दर्शन किये। उन पर विस्तृत लेख भी लिखे। उनके अनुज भ्राता डा0 सत्यवीर त्यागी से भी हमारा सम्पर्क रहा है। पं0 प्रकाशवीर शास्त्री जी आर्य प्रतिनिधि सभा, उत्तर प्रदेश के प्रधान रहे। उन्होंने सांसद रहते हुए अनेक स्मरणीय कार्य किये। हरिद्वार में गंगा तट पर उनके द्वारा बहुमंजिला एवं होटलनुमा आर्यसमाज बनाया गया था। वेदों के अंग्रेजी भाष्य कराने व उसके प्रकाशन में भी आपकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। सन् 1978 में रिवाड़ी के पास एक रेल दुर्घटना में उनकी मृत्यु हुई थी। मृत्यु के समय वह संसद सदस्य थे। 

गुरुकुल ज्वालापुर से सन् 1909 में एक मासिक पत्र ‘भारतोदय’ का प्रकाशन आरम्भ किया गया था जिसके सम्पादक सुप्रसिद्ध हिन्दी साहित्यकार पं0 पद्मसिंह शर्मा थे। भारत के प्रथम राष्ट्रपति श्री राजेन्द्र प्रसाद जी बड़े गौरव से कहा करते थे उनका प्रथम लेख भारतोदय पत्रिका में ही प्रकाशित हुआ था। स्वामी दर्शनानन्द जी ने रावलपिंडी के निकट मुसलिम बहुल पर्वतीय स्थान में गुरुकुल चोहाभक्तां की स्थापना की थी। इस गुरुकुल की स्थापना 22 दिसम्बर, सन् 1908 को की गई थी। स्वामी आत्मानन्द सरस्वती जी इस गुरुकुल के आचार्य रहे। हम अनुमान भी नहीं कर सकते कि इन गुरुकुलों में 100 वर्ष पहले एक सौ से अधिक छात्र अध्ययन करते थे। इस गुरुकुल से स्वामी आत्मानन्द जी ने ‘वैदिक फिलासफी’ नामक एक उच्चस्तरीय मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया था। इस गुरुकुल चोहाभक्तां को ही गुरुकुल पोठोहार भी कहा जाता था। आर्यसमाज के गुरुकुल वैदिक धर्म की रक्षा व प्रचार के कार्य में शरीर में रीढ़ की हड्डी के समान रहे हैं। स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज को अनेक गुरुकुल स्थापित पर बड़ी संख्या में विद्वान दिये। वैदिक धर्म के प्रचार में स्वामी जी का योगदान अविस्मरणीय एवं अतुलनीय है। 

स्वामी दर्शनानन्द जी का शरीर काम करते करते पेट के रोग से ग्रस्त हुआ। उनको आराम नहीं हो रहा था। वह दृण प्रारब्धवादी थे। ईश्वर पर विश्वास रखते थे तथा औषधियों का सेवन नहीं करते थे। वह आगरा होते हुए आर्यसमाज अजमेर के उत्सव में गये। वहां उनका स्वास्थ्य अधिक खराब हो गया। गुरुकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर से पं0 गंगादत्त जी, पं0 नरदेव शास्त्री तथा गुरुकुल सिकन्दराबाद से पं0 मुरारीलाल शर्मा, स्वामी जी के पुत्र श्री नृसिंह शर्मा आदि अनेक लोग अजमेर पहुंचे। वहां से उन्हें स्वास्थ्य लाभ हेतु गुरुकुल महाविद्यालय ज्वालापुर लाया गया। यहां वह कुछ दिन रहे। इसके बाद पं0 मुरारी लाल शर्मा जी आपको गुरुकुल सिकन्दराबाद उपचारार्थ ले गये। इसी बीच उनके प्रिय भक्त डा0 कृष्णप्रसाद जी (हाथरस) सिकन्दराबाद पहुंचे और उन्हें अपने साथ हाथरस ले आये। वहां आर्यसमाज का उत्सव चल रहा था। आर्यसमाज के शीर्ष विद्वान पं0 तुलसी राम स्वामी, पं0 घासीराम जी आदि वहां आये हुए थे। स्वामी जी की आज्ञा पर उन्हें उत्सव के पण्डाल में शय्या पर ही ले जाया गया जिससे वह अपने भक्तों से मिल सकें। शरीर छूटने में 6 घंटे थे। इस अवस्था में भी वह रुक रुक कर धीमे स्वर में बोले ‘जिस किसी को भी शास्त्रार्थ करना हो, कर ले। फिर न कहना।’ स्वामी जी का अन्तिम समय बहुत निकट आ गया था। अन्तिम समय में उन्होंने कहा ‘भद्र पुरुषों! हमारा अन्तिम नमस्ते स्वीकार कीजिए। ऋषि दयानन्द के 37 व्याख्यान हमने सुने थे। 37 वर्ष ही कार्य किया। ईश्वर आप लोगों को साहस दे कि आप अपने धर्म को समझें।’ यह कह कर उन्होंने शरीर छोड़ दिया। यह 11 मई सन् 1913 का दिन था। इस प्रकार आर्यसमाज का एक जाज्वल्यमान नक्षत्र अपनी आभा बिखेर पर ईश्वर की व्यवस्था से परमगति को प्राप्त हो गया। स्वामी जी ने आर्यसमाज को अपने कार्यों से सुदृण किया व उसके यश को बढ़ाया था। आज देश, धर्म और आर्यसमाज को स्वामी दर्शनानन्द जी के समान समर्पित ऋषिभक्त विद्वानों एवं प्रचारकों की आवश्यकता है जो लेखन, व्याख्यान तथा शास्त्रार्थ आदि से वैदिक धर्म का प्रचार कर सकें। इसी के साथ हम लेख को विराम देते हैं। हमने इस लेख में पं0 राजेन्द्र जिज्ञासु जी लिखित स्वामी दर्शनानन्द जी की जीवनी से सहायता ली है। उनका धन्यवाद है।

1 COMMENT

  1. मनमोहन आर्य जी क्या आपका फोन नंबर मिल सकता है एक बार आपसे बात करने की मैं महर्षि दयानंद योग फाउंडेशन से

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

* Copy This Password *

* Type Or Paste Password Here *

12,767 Spam Comments Blocked so far by Spam Free Wordpress