रच कौन क्या गया है सृष्टि, कौन देखता;
कितना अनन्त उसके शून्य, वही झाँकता;
गुणवत्ता आँकता है वही, सत्ता परखता;
अलवत्ता उसे कोई कभी, ही है समझता !
संज्ञान उसका लेता जो भी, वो है थिरकता;
अणु अपना अहं करके वही, उसमें सिमटता !
अपना विराट रूप वही, जगती में पाता;
हर प्राण परश उर में हुलस, सोहं होता !
सारे बहम औ व्याधि भय से, मुक्ति वो पाता;
रिश्ता ‘मधु’ के प्रभु से स्वत:, वो है बनाता !
गोपाल बघेल ‘मधु’