मनमोहन कुमार आर्य,
वैदिक साधन आश्रम तपोवन, देहरादून के मंत्री श्री प्रेम प्रकाश शर्मा जी ने अपने दून विहार, राजपुर रोड, देहरादून निवास के समीप राधा–कृष्ण मन्दिर में ‘यजुर्वेद पारायण यज्ञ एवं श्री रामकथा’ का आठ दिवसीय आयोजन कराया है। आज कार्यक्रम के चौथे दिन अपरान्ह 4 बजे से यजुर्वेद पारायण यज्ञ आरम्भ हुआ। प्रतिदिन इसी समय कार्यक्रम आरम्भ होता है। यज्ञ के ब्रह्मा आर्यसमाज लक्ष्मणचौक, देहरादून के विद्वान ऋषि भक्त पुरोहित श्री रणजीत शास्त्री थे। उन्होंने कुशलता से यज्ञ का संचालन किया और बीच-बीच में यज्ञ विषयक महत्वपूर्ण टिप्पणियां कीं। अपरान्ह 5 बजे से 7 बजे तक आर्यसमाज के प्रसिद्ध भजनोपदेशक श्री सत्यपाल पथिक जी के द्वारा राम-कथा हुई जिसमें उन्होंने बाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस एवं अन्य कवियों के श्री राम के जीवन पर आधारित पद्यमय प्रसंगों को गाकर प्रस्तुत किया। आज की रामकथा में पंडित सत्यपाल सरल जी ने राम वन गमन से जुड़े प्रसंगों को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने श्री राम के विषय में जो उपदेश किया वह आर्यसमाज के सिद्धान्तों के अनुकूल था। कार्यक्रम के समापन पर सबको जलपान कराया गया। यज्ञ एवं रामकथा में दून विहार कालोनी के लोग बड़ी संख्या में उपस्थित हुए।
यज्ञ के ब्रह्मा ने यज्ञ के मध्य सूक्त समाप्ति पर अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि बाल्मीकि रामायण में श्री राम को जितेन्द्रिय कहा गया है। उनका आचरण उच्च कोटि का था। यज्ञ के ब्रह्मा जी ने कहा कि मन को ईश्वर में केन्द्रित करने पर ही हमें सफलता मिलती है। उन्होंने कहा कि हमारा मन अन्न से बना है। अतः हमें शुद्ध व पवित्र अन्न का भोजन ही करना चाहिये। आचार्य रणजीत शास्त्री ने यज्ञ विषयक एक कथा भी सुनाई। उन्होंने कहा कि एक बार एक राजा ने यज्ञ का आयोजन किया और उसके ब्रह्मा बनने के लिए एक ऋषि को आमंत्रित किया। यज्ञ के दिन ऋषि रूग्ण होने के कारण जा नहीं सके इसलिये उन्होंने अपने एक योग्य शिष्य को वहां भेज दिया। यज्ञ के आरम्भ से पूर्व राजा ने ऋषि के शिष्य से प्रश्न किया कि क्या वह जानता है कि यज्ञ किसमें प्रतिष्ठित है। शिष्य इसका उत्तर नहीं दे सका। इस कारण राजा ने उससे यज्ञ नहीं कराया। वह लौट कर ऋषि के पास आया और ऋषि को पूरा प्रसंग बताया। ऋषि को भी इस प्रश्न का उत्तर ज्ञात नहीं था। इसलिए उसने राजा के पास जाकर इस प्रश्न का समाधान करना चाहा। वह राजा के पास गये और उनसे इस प्रश्न का उत्तर पूछा। राजा ने उत्तर दिया कि यज्ञ वेद में प्रतिष्ठि है। ऋषि ने पूछा कि वेद किसमें प्रतिष्ठि है? इसका उत्तर राजा ने दिया कि वेद वाणी में प्रतिष्ठित हैं। ऋषि के पुनः पूछने पर राजा ने कहा कि वाणी मन में प्रतिष्ठित है। मन को उन्होंने अन्न में प्रतिष्ठित बताया। ऋषि ने फिर पूछा तो राजा बोले के अन्न जल में प्रतिष्ठित है। जल को राजा ने तेज में प्रतिष्ठित बताया। तेज किसमें प्रतिष्ठि है, इसका उत्तर राजा ने यह दिया कि तेज आकाश में प्रतिष्ठित है। आकाश को उन्होंने ब्रह्म में प्रतिष्ठित बताया। इसके आगे ब्रह्म को उन्होंने ब्राह्मण और यज्ञ में प्रतिष्ठित बताया है और कहा कि यज्ञ वेद में प्रतिष्ठित है। श्री रणजीत शास्त्री ने इस प्रसंग को बताते हुए बीच-बीच में महत्वपूर्ण टिप्पणियां भी कीं। इसके बाद यज्ञ प्रार्थना की गई और यजमानों को आशीर्वाद दिया गया।
यज्ञ के समापन के बाद श्री सत्यपाल जी के द्वारा राम कथा आरम्भ की गई। उनसे पूर्व उनके ढोलक वादक ने भी ओजस्वी स्वरों में एक भजन प्रस्तुत किया। सरल जी ने कथा का आरम्भ एक भजन से किया जिसके बोल थे ‘मनुआ ईश्वर के गुण गाना, यदि अपनी जीवन नैया को चाहे पार लगाना, मनुआ ईश्वर के गुण गाना।।’ यज्ञ अभी आधा घण्टा ही हुआ था कि वर्षा आरम्भ हो गई। कथा आरम्भ होने से पूर्व वर्षा हल्की थी परन्तु कथा आरम्भ होने के बाद भीषण वर्षा हुईं। विद्युत का आना भी रूक गया था। इन परिस्थितियों में भी श्री सत्यपाल सरल जी ने कथा को जारी रखा। सत्यपाल जी ने एक अन्य भजन प्रस्तुत किया जिसके बोल थे ‘दुनिया में तू आया है करले प्यार प्रभु से, जो मांगना है मांग ले दातार प्रभु सें’।
आज कथा का चौथा दिन था और राम वन गमन का प्रकरण चल रहा था। आरम्भ में श्री सत्यपाल सरल जी ने राम वन गमन से संबंधित सीता जी व कौशल्या से संबंधित संवादों को प्रस्तुत किया। लक्ष्मण के वहां आ जाने पर राम और लक्ष्मण के बीच जो संवाद हुए उन्हें भी सरल भी प्रभावशाली रूप से प्रस्तुत किया। श्री राम ने लक्ष्मण को को राज्य संचालन में भरत की मदद करने की प्रेरणा की। लक्ष्मण जी ने राम की बात स्वीकार नहीं की। उन्होंने राम के वन जाने का भी विरोध किया। राम ने लक्ष्मण जी को समझाया और वन जाने का एक कारण प्रारब्ध को बताया। राम ने लक्ष्मण को कहा कि न मुझे राज्य मिलने पर प्रसन्नता थी और न वन जाने का कोई दुःख है।
राम चन्द्र जी ने लक्ष्मण जी को क्रोध त्यागने को कहा। लक्ष्मण ने श्री राम से उन्हें अपने साथ वन ले जाने की प्रार्थना की। राम ने उसे स्वीकार करते हुए लक्ष्मण जी को अपनी माता सुमित्रा से अनुमति ले कर आने को कहा। लक्ष्मण सुमित्रा जी के पास पहुंचे और उन्हें सभी बातें बतायी। लक्ष्मण की बाते सुनकर माता सुमित्रा ने लक्ष्मण को वन जाने पर सहमति दी और अपना आशीर्वाद भी प्रदान किया। माता सुमित्रा ने अपने पुत्र लक्ष्मण को जो कहा उसे श्री सरल जी ने रामचरित मानस की चौपाईयां सुना कर बताया। सुमित्रा माता ने लक्ष्मण को कहा कि जब तुम्हें अपनी माता की याद आये तो तुम माता सीता माता के चरण स्पर्श कर लेना। राम को अपने पिता का सम्मान देना। अयोध्या की याद आये तो राम के निवास को ही अयोध्या मानना। पंडित सत्यपाल सरल जी ने कहा कि लक्ष्मण की धर्मपत्नी उर्मिला को बाल्मीकि और तुलसी जी ने अधिक महत्व नहीं दिया। उन्होंने कहा कि हिन्दी कवि मैथिली शरण गुप्त जी ने अपनी पुस्तक साकेत में उर्मिला का प्रशंसनीय चरित्र चित्रण किया है। सरल जी ने लक्ष्मण-उर्मिला संवाद को तुलसी दास जी के शब्दों में प्रस्तुत किया। श्री सरल जी ने कहा कि उर्मिला लक्ष्मण के साथ वन में इस लिये नहीं गई क्योंकि लक्ष्मण जी ने उन्हें बताया कि वह राम के साथ उनके सेवक बन कर जा रहे हैं। यदि उर्मिला लक्ष्मण जी के साथ जातीं तो लक्ष्मण जी राम की सेवा न कर पाते। श्री सरल जी ने राम वन गमन का विस्तार से रोचक शब्दों में वर्णन किया। उन्होंने कहा कि अयोध्या के बाद जो पहला राज्य आया वह निषादराज का श्रृंगवेदपुर था। उन्होंने बताया कि इलाहाबाद का पुराना नाम प्रयागराज था। प्रयाग का अर्थ बताते हुए उन्होंने कहा कि जहां बहुत और अधिक बड़े-बड़े यज्ञ होते हों, उस स्थान प्रयाग कहते हैं।
राम कथाकार आर्य भजनोपदेशक पंडित सत्यपाल सरल ने कहा कि प्रयागराज से 10 किमी. की दूरी पर चित्रकूट है। वह स्थान शान्त था तथा साधना के लिए भी अनुकूल था। राम वहां चले गये और एक सरोवर के किनारे अपनी कुटियां का निर्माण किया और उसमें रहने लगे। राम को वन में छोड़कर सुमन्त्र अयोघ्या लौट आये। सरल जी ने सुमन्त्र जी के अयोध्या लौटने पर वहां की जो स्थिति थी, उसका वर्णन भी किया। सरल जी ने दशरथ व कौशल्या के मध्य हुए वार्तालाप को भी प्रस्तुत किया। दशरथ जी ने प्राण त्यागने से पूर्व कौशल्या जी को युवावस्था में वन में जाने और वहां शब्दभेदी बाण चलाने की घटना भी सुनाई जिससे अनजाने में श्रवण कुमार की हत्या हो गई थी। सरल जी ने यह पूरा प्रसंग भावपूर्ण शब्दों में प्रस्तुत किया। दशरथ जी ने कौशल्या जी को पुरानी बातें स्मरण कराते हुए बताया कि श्रवण के पिता ने कहा था कि जिस तरह से अपने पुत्र के वियोग में वह प्राण त्याग कर रहें हैं, दशरथ को भी उसी प्रकार पुत्र वियोग में प्राण त्यागने पड़ेंगे।
सरल जी ने कहा कि मनुष्यों को अहंकार नहीं करना चाहिये। उन्होंने इससे सम्बन्धित अनेक प्रसंग सुनाये और अनेक कवियों की कुछ पंक्तियां भी सुनाई। दशरथ की मृत्यृ हो जाने पर भरत व शत्रुघ्न को अयोध्या लौटाने के लिए दूत भेजे गये। सरल जी ने कहा कि यदि राज्य में राजा न हो तो वहां अराजकता फैल जाती है। अराजकता फैलने पर राज्य सुरक्षित नहीं रहता। उन्होंने कहा कि अराजकता में यज्ञ, धन, पत्नी आदि कुछ भी सुरक्षित नहीं रहता। विद्वान कथाकार ने सुमन्त्र द्वारा भरत व शत्रुघ्न को लौटाने के लिए जाने और उनके मध्य के संवादों को प्रस्तुत किया। इस अवसर पर भरत के आन्तरिक मनोभावों को भी उन्होंने प्रस्तुत किया। श्री सरल जी ने अयोध्या पहुंचने पर अपनी माता कैकेयी के साथ सम्वादों को गद्य व पद्य दोनों में प्रस्तुत किया। उन्होंने उसके बाद कौशल्या जी के साथ भरत के संवादों पर भी विस्तार से प्रकाश डाला। सरल जी ने कहा कि इस प्रकरण में भरत जी ने कौशल्या को अपने निर्दोष होने का प्रमाण देने के लिए 36 शपथें खाईं थीं। आज की रामकथा के प्रसंग को विराम देते हुए श्री सत्यपाल सरल जी ने एक भजन गाया जिसके बोल थे ‘आओ मिल कर करें नमस्कार साथियों, ओ३म् का वन्दन करें साथियों।’ इसके बाद शान्ति पाठ हुआ और आज की कथा समाप्त हो गई।यज्ञ और रामकथा आगामी चार दिन अपरान्ह/सायं 4 बजे से 7 बजे तक हुआ करेगी। चौथे दिन रविवार 12 अगस्त को यज्ञ एवं कथा का समापन होगा।