कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने निश्चित रूप से अपनी स्थिति को पहले से कुछ बेहतर बनाया है । उनके बोलने में कुछ पहले की अपेक्षा गंभीरता आई है और लोगों ने उनको सुनना आरंभ कर दिया है । पिछले साढे 4 वर्ष में उनकी यह बड़ी उपलब्धि है ।यद्यपि इसके पीछे महत्वपूर्ण कारण यह है कि पिछले साढ़े 4 वर्ष में जो लोग मोदी से अधिक अपेक्षाएं पाले हुए थे और उनकी वह अपेक्षाएं पूर्ण नहीं होने के कारण उनके भीतर जो आक्रोश पैदा हुआ है वह आक्रोष स्वाभाविक रूप से राहुल गांधी की ओर झुक चुका है । जिसका परिणाम यह हुआ है कि अब राहुल गांधी की सभा में उनके विरुद्ध ‘ मोदी – मोदी ‘ के नारे नहीं लगते । इसके उपरांत भी यह कहना गलत होगा कि राहुल गांधी देश की आम सहमति का प्रतीक बनकर उभरे हुए जननायक बन चुके हैं । वह जिस प्रकार आतंकवादियों को संरक्षण देते हुए दिखाई दे रहे हैं और भारत के दुश्मन पाकिस्तान जैसे देशों की वकालत करते जान पड़ते हैं , देश के भीतर बैठे राष्ट्र के शत्रुओं और ‘ जयचंदों ‘ को वह जिस प्रकार दूध पिलाने का काम कर रहे हैं — उससे उनकी छवि उतनी ही नकारात्मक रूप से भी प्रभावित हुई है । अभी भी लोग देश के बारे में उन्हें अधिक गंभीर नहीं मानते । राहुल गांधी की सोच कुछ ऐसी बन गई है कि शोर मचाओ और शोर मचाते मचाते एक समय अपने आप ऐसा आ जाएगा जब देश की जनता स्वयं उन्हें नेता मान लेगी । यह सोच कुछ सीमा तक सही हो सकती है , परंतु पूरा सच नहीं हो सकती । जितनी देर में जनता भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी से ऊबेगी उतनी देर में बहुत सी परिस्थितियां परिवर्तित हो चुकी होंगी । बहुत संभव है कि उस समय तक कांग्रेस में भी कोई नया नेतृत्व उभर आए , क्योंकि आज की पीढ़ी में उतना धैर्य नहीं है जितना नेहरू व इंदिरा गांधी के जमाने में हुआ करता था। आज अधिक देर तक कांग्रेसी भी राहुल गांधी को बचा पाएंगे या पचा पाएंगे – इसमें संदेह है ।कई अच्छे चेहरे कांग्रेस के पास युवा चेहरों के रूप में उभर रहे हैं । लोगों की नजरें उन पर चढ़ रही हैं और यदि राहुल गांधी 2019 के चुनाव में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाए तो 2024 से पहले कांग्रेस अपना दूसरा नेता भी चुन सकती है । सचिन पायलट और ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे युवा चेहरे उनका स्थान लेने के लिए तेजी से लोगों की नजरों में चढ़ रहे हैं । निसंदेह राहुल गांधी इस स्थिति को पैदा नहीं होने देंगे , परंतु समय बहुत परिवर्तनशील होता है और राजनीति में कब क्या कुछ हो जाए ? — कुछ कहा नहीं जा सकता है। यहां सब कुछ संभव है और विशेष रूप से तब जब लोग परिवर्तन की इच्छा करने लगे हैं। राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के रूप में लोग कितना पसंद करते हैं – यह हमें 2019 के आम चुनावों से पता चल जाएगा।
आतंकवादी और देशविरोधी शक्तियों के साथ उदारता का दृष्टिकोण अपनाकर और देश की मूल चेतना अर्थात हिंदुत्व के प्रति नासमझी दिखाकर राहुल गांधी जितना ही आगे बढ़ रहे हैं उतना ही वह अपनी स्थिति को हास्यास्पद बनाते जा रहे हैं । प्रधानमंत्री श्री मोदी को उन्होंने हिंदुत्व के बिंदु पर जिस प्रकार घेरने का प्रयास किया है और यह कहा है कि प्रधानमंत्री श्री मोदी को हिंदुत्व के बारे में कोई जानकारी नहीं है- उससे उन्हे लाभ न होकर हानि ही हुई है । यह एक दुर्भाग्यपूर्ण तथ्य है कि वह जो कुछ बोलते हैं उसका उन्हें लाभ कम और हानि अधिक हो जाती है ।राफेल को उन्होंने राष्ट्रीय मुद्दा बनाकर 2019 में अपनी पार्टी की पुनः वापसी का एक हथियार बनाने के रूप में प्रयोग करना चाहा था , परंतु उसे वह सही प्रकार से न तो प्रस्तुत कर पाए हैं और ना ही राष्ट्रीय मुद्दा बना पाए हैं।
भीड़ का आकर्षण कॉंग्रेस के नेता की ओर बढ़ना एक अलग चीज है , परंतु एक विश्वसनीय नेता के रूप में उनका आगे बढ़ना सर्वथा एक दूसरी बात है । वह आगे बढ़ते हुए भी इस बात को लेकर सशंकित हैं कि 2019 उनके लिए अधिक अच्छा नहीं होने वाला । यदि वह 2019 में पार्टी को मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में भी स्थापित कर पाए तो यह भी उनके लिए एक अच्छी बात होगी । पार्टी के भीतर निश्चित रूप से एक बेचैनी है और पार्टी के लोग अभी भी राहुल गांधी को परिपक्व नेता नहीं मान रहे हैं । पार्टी के भीतर अभी कोई ऐसी स्थिति बनती भी नहीं दिखाई दे रही जो मोदी सरकार और भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय विमर्श गढ़ पाने में सक्षम हो और श्री मोदी से अधिक स्वीकार्य नेता के रूप में राहुल गांधी को उतारकर स्थापित कर सकती हो। कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी राफेल सौदे को भी राष्ट्रीय विमर्श बनाने में सफल नहीं हो पाए हैं ।
यद्यपि राहुल गांधी और उनकी पार्टी कांग्रेस की सोच थी कि राफेल के मुद्दे को वह उसी प्रकार भुना लेंगे जिस प्रकार कभी राजीव गांधी के विरुद्ध विपक्ष ने बोफोर्स तोप सौदे को भुना लिया था । जिसके परिणाम स्वरूप कांग्रेस को 1989 में लोकसभा का चुनाव हारना पड़ा था और प्रचंड बहुमत से 1984 में सत्ता में आई कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ गई थी ।
1969 में बैंकों के राष्ट्रीयकरण और कांग्रेस के विभाजन से जूझ रही इंदिरा गांधी ने जब मार्च 1971 में चुनाव कराए तो बांग्लादेश की स्वतंत्रता में भारत की भूमिका को उन्होंने राष्ट्रीय विमर्श बनाने में सफलता प्राप्त कर ली थी और सत्ता के केंद्र में रहकर भी अपने आप को कहीं दुर्बल समझने वाली इंदिरा गांधी को उन चुनावों से बहुत कुछ ऊर्जा मिल गई थी । मार्च 1971 में बांग्लादेश ने पाकिस्तान से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की थी । उसकी स्वतंत्रता में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और भारत की गौरवपूर्ण सेनाओं का जिस प्रकार योगदान रहा था उससे भारत के लोगों के भीतर गौरव की भावना प्रबल हुई थी । जिसका लाभ श्रीमती इंदिरा गांधी को मिला । देश के लोगों ने पहली बार देखा था कि देश की सेना के सामने पाकिस्तान की भारी सेना ने आत्मसमर्पण कर दिया था।इस स्थिति को इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय विमर्श बनाया और बड़ी शानदार सफलता के साथ वह सत्ता में लौट आईं । तब यह स्पष्ट भी हो गया था कि कांग्रेस और देश की नेता श्रीमती इंदिरा गांधी हैं । श्रीमती इंदिरा गांधी से गलती एक हुई कि उन्होंने अपने शासनकाल में देश में आपातकाल की घोषणा कर दी । उनके आपातकाल की घोषणा से 1977 में जब चुनाव हुए विपक्ष ने भारत में फिर एक राष्ट्रीय विमर्श बनाने में सफलता प्राप्त की और इस राष्ट्रीय विमर्श का परिणाम यह हुआ कि श्रीमती इंदिरा गांधी को सत्ता गंवानी पड़ गई । जनता पार्टी ने अपनी सरकार बनाई। जब जनता पार्टी ने आपसी कलह के कारण सत्ता खुद ही खो दी तो इंदिरा गांधी को फिर देश की जनता के सामने इस मुद्दे को राष्ट्रीय विमर्श बनाने में देर नहीं लगी कि सत्ता चलाने का अनुभव केवल कांग्रेस के पास है और वही देश को बचा सकती है । वही देश को अच्छा शासन भी दे सकती है विपक्षी दलों के पास में कोई नेता है ना कोई नीति है , ना उनकी नियत साफ है। ऐसे में विपक्षी दलों की फ़ूट राष्ट्रीय विमर्श बनी और उस राष्ट्रीय विमर्श से फिर एक सशक्त इंदिरा गांधी का जन्म हुआ , वह सत्ता में लौटी।
जब 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो कांग्रेस सहानुभूति के बल पर सत्ता में प्रचंड बहुमत के साथ लौटी और देश के प्रधानमंत्री राजीव गांधी बने । 1984 में कोई राष्ट्रीय विमर्श नही गढ़ा गया । उसके पश्चात देश की राजनीति हिचकोले खाने लगी । इसी काल में 1989 में बोफोर्स तोप सौदे को राष्ट्रीय विमर्श बनाया गया और सत्ता कांग्रेस के हाथों से छीन गई , यद्यपि यह विमर्श लंगड़ा लूला ही था , परंतु फिर भी कांग्रेस को सत्ता से बाहर तो कर ही गया । लंगड़ा लूला हम इसलिए कह रहे हैं कि इसमें किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता नहीं सौंपी गई थी । तत्पश्चात हम 2014 के चुनाव तक कोई सशक्त राष्ट्रीय विमर्श स्थापित करने में सफल नहीं हो पाए । दीर्घकालीन भ्रष्टाचार और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का रिमोट से चल रहा शासन — फिर राष्ट्रीय विमर्श का कारण बना और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन परिस्थितियों में देश की सत्ता नई दिशा देने के संकल्प के साथ प्राप्त की ।उन्होंने भाजपा को प्रचंड बहुमत दिला कर सत्ता सूत्र अपने हाथ में ले लिया । स्पष्ट है कि जब – जब राष्ट्रीय विमर्श को हमने मजबूती से स्थापित कर देश के आम चुनावों को नई दिशा देने का प्रयास किया है , तब – तब केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुए हैं । यदि राहुल गांधी ऐसा ही कोई सशक्त राष्ट्रीय विमर्श गढ़ पाने में सफल होते हैं तो वह निश्चय ही 2014 को 2019 में दोहरा सकते हैं , परंतु अब लगता नहीं कि वह कोई राष्ट्रीय विमर्श दे पाने में सक्षम हो पाएंगे।
राष्ट्रीय विमर्श बनाने का अभिप्राय होता है कि देश को विचारधारात्मक स्तर पर पूर्णतया मथ दिया जाए और राष्ट्र की अंतः चेतना को अपने साथ इस प्रकार से स्थापित कर लिया जाए कि हर कोई वही सोचने लगे जो राष्ट्रीय विमर्श करने वाला व्यक्ति सोच रहा है। हम तनिक 2014 को याद करें जब ‘ घर घर मोदी — हर हर मोदी ‘ का नारा देकर मोदी देश के घर घर में प्रवेश कर गए थे । ऐसा ही कोई राष्ट्रीय मंथन राहुल गांधी की ओर से अभी तक बन नहीं पाया है । वह जिन चीजों को लेकर चल रहे हैं उन पर लोगों का विश्वास नहीं है। अभी देश के जनमानस को यह समझने में असुविधा अनुभव हो रही है कि राहुल गांधी श्री मोदी का बेहतर विकल्प हो सकते हैं।
प्रधानमंत्री श्री मोदी का विकल्प बनने के लिए राहुल गांधी के पास टीम तो है लेकिन वह अपनी टीम का सदुपयोग नहीं कर पाए । बहुत ही अच्छा होता कि ब्रिटेन की तर्ज पर उनके पास एक छाया मंत्रिमंडल होता और प्रधानमंत्री की नीतियों की प्रत्येक क्षेत्र में धज्जियां उड़ाने वाले धुरंधर विशेषज्ञ उनके पास होते । उनके छाया मंत्रिमंडल के मंत्री देश के लोगों को बेहतर विकल्प देते और उन नीतियों से उन्हें समय-समय पर अवगत कराते रहते जो वह मोदी की नीतियों की अपेक्षा उत्तम समझते थे । उन्हें चाहिए था कि वह देश की संसद में उच्च स्तर की चर्चा होने देते और कहीं भटकती हुई मोदी सरकार को अपनी ओर से बेहतर सुझाव और परामर्श देकर देश हित में बेहतर भूमिका निभाते । वह देश की संसद को शोरशाला न बनाकर देश की समस्याओं के समाधान के लिए इसे ध्यानशाला बनाते । इसके विपरीत राहुल गांधी और उनकी टीम ने पूरे लोकसभा काल में केवल मोदी की नीतियों की आलोचना ही की है । उन्होंने नीतियों का स्थानापन्न कोई विचार अपनी ओर से देने का प्रयास नहीं किया । जिसको वह ‘गब्बर सिंह टैक्स ‘ कहते हैं वह उन्हीं की पार्टी की देन है । इसी प्रकार व राफेल के बारे में भी यह सत्य स्थापित नहीं कर पाए कि प्रधानमंत्री मोदी ने राफेल को किस आधार पर महंगा लिया और वह किस आधार पर उसे सस्ता ले रहे थे ? इसी प्रकार वह किसानों को भी यह भरोसा नहीं दिला पाए हैं कि मेरी पार्टी के शासनकाल में किसान आत्महत्या क्यों कर रहे थे ? — और अब जबकि कांग्रेस सत्ता से दूर हो गई है तो हमने किसानों की समृद्धि के लिए अपने भीतर कौन से परिवर्तन किये हैं ? – देश के मतदाताओं को उन्हें यह विश्वास दिलाना चाहिए कि यदि हम सत्ता में लौटते हैं तो पुरानी नीतियों पर नहीं चलेंगे ।
इतना ही नहीं वह नए समय में नए ढंग से सोचने के लिए भी अपने आप को ढालने के लिए तैयार हैं। कांग्रेस के नेता को यह समझना चाहिए कि बीजेपी की वर्तमान सरकार राम मंदिर निर्माण कराने , धारा 370 को हटाने और समान नागरिक संहिता लागू करने के संकल्प के साथ सत्ता में आई थी । अपने इन संकल्पों को भाजपा यथार्थ के धरातल पर पूरा नहीं कर पाई है । मोदी सरकार की सबसे बड़ी असफलता यही है कि वह अपने इन तीनों राष्ट्रीय मुद्दों पर पूर्णतया असफल रही है । राहुल गांधी को भाजपा को घेरने के लिए इन्हीं तीनों मुद्दों पर अपनी पार्टी की स्थिति साफ करनी चाहिए । उन्हें बदलते परिवेश के साथ यह स्पष्ट करना चाहिए कि यदि वह सत्ता में आते हैं तो वह राम मंदिर बनाने की दिशा में ठोस काम करेंगे , साथ ही उन्हें देशवासियों को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वह राम के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं , और समान नागरिक संहिता लागू करने में भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं है । इसी प्रकार वह यह भी स्पष्ट कर दें कि राष्ट्रहित में धारा 370 को हटाने से भी वह भागने वाले नहीं हैं । इन तीनों मुददों पर यदि राहुल गांधी राष्ट्र मंथन की प्रक्रिया आरंभ करें तो निश्चय ही वह देश को नई दिशा देने में सक्षम व सफल हो सकते हैं । उन्हें यह भी स्पष्ट करना चाहिए कि वह धार्मिक तुष्टीकरण की नीति से अलग हटकर काम करेंगे और धर्मांतरण की प्रक्रिया को किसी भी मजहब के मानने वाले लोगों को लागू नहीं करने देंगे । साथ ही ऐसा भी कोई कार्य नहीं करने देंगे जिससे देश का बहुसंख्यक समाज कमजोर होता हो । जैसे ही वह इन बिंदुओं को अपने लिए राष्ट्रीय विमर्श का आधार बनाएंगे , वैसे ही भाजपा की सरकार लड़खड़ाने लगेगी या कहिए कि भाजपा के विरुद्ध राष्ट्रीय परिवेश बनाने में उन्हें सफलता मिल जाएगी हमें ऐसे ही राहुल की आवश्यकता है जो वर्तमान सरकार को व्याकुल कर दे ।
राष्ट्रीय विमर्श की खोज करते राहुल गांधी
राकेश कुमार आर्य