राजस्थान विश्वविद्यालय का सराहनीय निर्णय

rajasthan universityराकेश कुमार आर्य

‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ की रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान विश्वविद्यालय अब अपने विद्यार्थियों को रामायण और गीता के माध्यम से मैनेजमेंट की शिक्षा देगा। अभी तक यह बात सोची ही नही गयी थी कि भारत के वेदादि शास्त्र या रामायण और गीता मैनेजमेंट अर्थात प्रबंधन की कोई सच्ची शिक्षा देने की सामथ्र्य रखते हैं। परंतु अब इस दिशा में सोचने और कार्य करने का समय आ गया है, और इसके लिए राजस्थान सरकार ने और वहां के विश्वविद्यालय ने सोचना-विचारना आरंभ किया है तो यह प्रसन्नता की बात है।

वास्तव में गीता के पढऩे-समझने का अर्थ है-जीवन से प्रत्येक प्रकार की हताशा और निराशा को दूर कर देना। अर्जुन को महाभारत के युद्घ के प्रारंभ में ही जिस हताशा ने आकर घेरा उसे तोडऩे के लिए ही तो कृष्णजी ने अपना अमर उपदेश ‘गीतामृत’ के रूप में अर्जुन को दिया। जिसे पीकर अर्जुन मतवाला हो उठा। आज का अर्जुन अर्थात विद्यार्थी जब जीवन संग्राम रूपी महाभारत में उतरता है तो वह भी कई प्रकार की बाधाओं को देखकर जीवन संग्राम से भाग खड़ा होता है। छोटी-छोटी बाधाओं को देखकर ही विद्यार्थी हथियार फेंक देता है और जीवन संग्राम से मुंह फेरकर कह उठता है-”युद्घ नही करूंगा।” तब उसके लिए किसी कृष्ण की आवश्यकता अनुभव की जाती है जो उसे बताये कि तू अपना कौशल विकास कर और पूर्ण मनोयोग से अपना कत्र्तव्य कर्म कर। कृष्ण जी ने इसीलिए कहा कि ‘योग: कर्मसु कौशलम्’ अर्थात जो कार्य पूर्ण कौशल और पारंगतता के साथ किया जाए वही योग है। इस प्रकार कृष्ण ने योग को जटिलताओं से निकालकर सर्वजनीन बना दिया और ‘कौशल विकास’ (जिस पर मोदी सरकार भी ध्यान दे रही है) को प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य बना दिया। उन्होंने इसी संदेश और उपदेश के साथ लोगों को आदेशित कर दिया कि अपने-अपने कार्य को पूर्णनिष्ठा और बौद्घिक क्षमताओं के पूर्ण प्रदर्शन के साथ संपन्न करिये। यदि आप ऐसा करेंगे तो निश्चय ही आपको अपने कार्य में सफलता मिलेगी और आपका योग (पुरूषार्थ) सफल हो जाएगा।

कृष्णजी ने अर्जुन से यह भी कहा था कि ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ अर्थात तेरा कर्म पर ही अधिकार है, फल पर कदापि तेरा अधिकार नही है।

कृष्णजी की इस वाणी को समझने से भी हमारा युवा वर्ग कर्म के प्रति समर्पित होगा और वह अपने कार्य को पूर्णनिष्ठा से करने के लिए सोचेगा। ऐसी स्थिति हमारे युवावर्ग के लिए आशा का संचार कराने वाली होगी। प्रबंधन का अभिप्राय भी यही है कि अपनी कार्ययोजना को आशाओं से भरे रखकर प्रस्तुत किया जाए और परिणाम चाहे जो आये पर उसको सहर्ष गले लगाया जाए। पश्चिम की उपभोक्तावादी संस्कृति ने युवावर्ग को ऊंचे सपने तो दिखाये पर यदि सपनों के तारों को तोडऩे में युवा असफल रह जाए तो उस स्थिति में स्वाभाविक रूप से हताशा की स्थिति में फंसे युवा को क्या करना चाहिए? यह बताने में पश्चिम का ‘मैनेजमेंट कोर्स’ असफल रहा है। उसी का परिणाम है कि भारत जैसे अध्यात्मवादी देश में भी युवा वर्ग में हताशा और आत्महत्या की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

ऐसे में राजस्थान विश्वविद्यालय का निर्णय बहुत ही प्रशंसनीय माना जाना चाहिए। भारतीय शिक्षा प्रणाली का भारतीयकरण करना समय की आवश्यकता है। शिक्षा का भारतीयकरण करने का अर्थ है कि युवा वर्ग स्वावलंबी बनने के साथ-साथ आत्मविश्वासी और दृढ़ संकल्प शक्ति का धनी भी बने। यह सच है कि आत्मविश्वास और दृढ़ ‘संकल्पशक्ति’ ये दोनों ही व्यक्ति को ईश भक्ति से प्राप्त होती हैं और भारतीय संस्कृति ईशभक्ति को ही अपने लिए सर्वप्रथम पूजनीय मानती है।

रामायण और महाभारत ग्रंथ भी मैनेजमेंट कोर्स में रखा जाना चाहिए। वस्तुत: रामायण हो चाहे महाभारत हो ये एक अव्यवस्था के विरूद्घ उठे आंदोलन के प्रतिष्ठाता ग्रंथ है। अराजकता रूपी अव्यवस्था और निराशाजनक परिस्थितियों को कैसे समाप्त कर व्यवस्था स्थापित की जाए?-इसे स्पष्ट करने वाले ग्रंथ हैं। इनके अध्ययन से स्पष्ट होता है कि प्रबंधन घर से आरंभ होता है और उसकी आवश्यकता राष्ट्रीय स्तर तक निरंतर बनी रहती है। जिस घर में प्रबंधन बिगड़ जाता है, जैसा कि कैकेयी के विद्रोह के कारण दशरथ के घर में बिगड़ा और दुर्योधन के हठ के कारण कौरव कुल में बिगड़ा-वहां कुप्रबंधन व्याप्त हो जाता है, जिसकी अंतिम परिणति महाविनाश के रूप में भोगनी पड़ती है। इसलिए ये दोनों ग्रंथ हमें बताते हैं कि घर से लेकर राष्ट्र तक प्रबंधन करना सीखो। नीतिकार का कहना है कि जो राजा प्रजा की रक्षा नही करता, केवल उसके धन को लूटता खसोटता है, तथा जिसके पास कोई नेतृत्व करने वाला मंत्री नही है, वह राजा नही कलियुग अर्थात अराजकतापूर्ण अव्यवस्था है, वहां कलियुग रूपी कुप्रबंधन है। समस्त प्रजा को चाहिए कि ऐसे राजा को बांधकर मार डाले।

भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं कि-”भारत नंदन तुम्हें तर्कशास्त्र और शब्द शास्त्र दोनों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए।… तुम्हें प्रतिदिन ब्राह्मण ग्रंथ इतिहास, उपाख्यान तथा महात्माओं के चरित्र का श्रवण करना चाहिए।….राजा का परमधर्म है-इंद्रिय संयम, स्वाध्याय, अग्निहोत्र कर्म, दान और अध्ययन। अपराध के अनुसार दण्ड देना, वेद द्वारा क्षत्रिय के लिए उपदिष्ट कर्मों का अनुष्ठान करना व्यवहार में न्याय की रक्षा करना और सत्य भाषण में अनुरक्त होना ये सभी कर्म शासक के लिए धर्म ही है।”

वास्तव में भारत के सारे वांग्मय में धर्म पर बड़ा बल दिया गया है। कुछ लोगों ने धर्म के बाह्य स्वरूप (कर्मकाण्ड, तिलक, चोटी, जनेऊ) को देखकर इसे यहीं तक समझने का प्रयास किया है, इसलिए इसे अध्यात्म से हीनावस्था में रखा है, जबकि अध्यात्म धर्म में समाहित है। अध्यात्म क्षेत्र में भौतिक विज्ञान स्थूल शरीर है अध्यात्म विज्ञान मन है, अर्थात सूक्ष्म है और ब्रह्मविज्ञान आत्मा है। ब्रह्म विज्ञान अध्यात्म से भी श्रेष्ठ है। इसी विज्ञान को पाकर आत्मा-परमात्मा का मिलन होता है। पर ये तीनों ही धर्म में समाहित हैं या कहिए कि धर्म की सीढिय़ां हैं। इसीलिए गीता में कृष्ण जी यह भी कहते हैं कि धर्म की संस्थापना के लिए मैं बार-आर आऊंगा।

आज इसी धर्म को भी प्रबंधन कोर्स में सम्मिलित करने की आवश्यकता है। धर्मशील युवा कर्मशील समाज का निर्माण करता है और कर्मशील समाज शांतिमयी विश्व का पथप्रदर्शक होता है। इस दिशा में राजस्थान विश्वविद्यालय के निर्णय के लिए विश्वविद्यालय प्रबंधन को एक बार पुन: धन्यवाद।

1 COMMENT

  1. गीता को काफी समय से कुछ IIT ने प्रबंधन (मैनेजमेंट) कोर्से में ले रखा है – मेरे बेटे ने 1994 में BHU -IT से B TECH किया था उस समय गीता के दो अध्याय (2 और 3) उस के मैनेजमेंट के पेपर का भाग थे. बाद में उस ने SP jain इंस्टिट्यूट मुंबई से MBA किया वहां भी इसी प्रकार गीता के अन्य अध्याय थे – मैंने तभी सोचा था की कितना अच्छा हो यदि अन्य संस्थान भी ऐसा ही करें – गीता वास्तव में मैनेजमेंट का एक निर्देशिका है .

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