राजभवन। महामहिम राज्यपाल। यह शब्द स्वयं अपने आप में एक आदर सम्मान एवं वैशिष्ट्य लिए हुए होते हैं। किसी भी राज्य का संवैधानिक प्रमुख होना एक गौरव की अनुभूति जो पद पर आसीन है, उसे तो होती ही है, उस प्रदेश की जनता को भी होती है। यही कारण है कि जब कभी सत्ता निरंकुश हो जाती है या संवैधानिक संकट होता है, प्रदेश की निगाह राजभवन की ओर होती है। यह राजभवन एक आश्वस्ति देता है कि निरपेक्ष भाव से संविधान सम्मत नीति युक्त न्याय होगा। मध्यप्रदेश का यह सौभाग्य रहा है कि स्वाधीनता के पश्चात् प्रदेश को ऐसे विशिष्टजन राज्यपाल के रूप में प्राप्त हुए हैं, जिन्होंने प्रदेश के हित में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, पर दुर्भाग्य से विगत निकट के इतिहास में राजभवन की दीवारों ने जो सहा है वह आज यह सिसक-सिसक कर कह रही हैं कि अंतत: एक काले अध्याय की आज समाप्ति हुई।
राज्यपाल रामनरेश यादव आज पूर्व राज्यपाल हो गए। वे कब तक सींखचों से बाहर रहते हैं, यह आज राजनीतिक एवं प्रशासनिक हलकों में चर्चा का विषय है। वे संभवत: न केवल प्रदेश के अपितु देश में इकलौते ऐसे राज्यपाल होंगे जिनकी गिरफ्तारी को लेकर अटकलें लगातार चलती रहीं। व्यापमं घोटाले से लेकर तमाम घोटालों के तार सीधे-सीधे राजभवन से जुड़े। उनके बेटे शैलेष का नाम व्यापमं घोटाले में दर्ज हुआ। स्वयं रामनरेश यादव पर प्राथमिकी दर्ज होने की नौबत आ गई। यही नहीं कांग्रेस ने उनके इस्तीफे की यहां तक कि बर्खास्तगी की मांग की, पर जिन्हें स्वयं संविधान की रक्षा करनी थी, जो संविधान की शपथ दिलाते हैं ने एक संवैधानिक पद का सुरक्षा कवच पहन कर राजनीतिक निर्लज्जता का खेल पूरी बेशर्माई से खेला यह भी समझ से परे है कि आखिर किन बाध्यताओं के चलते केन्द्र सरकार ने उन्हें अपने कार्यकाल को पूर्ण करने का अवसर दिया।
यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर आज हर उस व्यक्ति के पास है जो राजनीति का कखग भी नहीं जानता है। पर यकीनन यह प्रश्न प्रदेश सरकार को भी आने वाले लंबे समय तक कठघरे में खड़ा रखेगा। राज्यपाल, राज्यपाल के साथ-साथ कुलाधिपति होते हैं इस कारण उच्च शिक्षा के क्षेत्र में इनका मार्ग दर्शन एवं कुलपतियों की नियुक्तियों में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पर इस बीच कुलपतियों के चयन को लेकर जो गंभीर सवाल खड़े हुए और जो चर्चाएं सामने आईं वह सारी प्रक्रिया को कठघरे में खड़ा रही थीं और राजभवन को दागदार। इसी तरह कार्यपरिषद के सदस्यों की नियुक्तियों में भी शैक्षणिक योग्यता के अलावा जिन गुणों (?) को वरीयता दी गई वह भी दुखद है।
मध्यप्रदेश सौभाग्यशाली है कि उसे श्री बी. पट्टाभि सीता रमैया जैसे पहले राज्यपाल मिले जो स्वाधीनता सेनानी थे। दक्षिण भारत में आजादी की लड़ाई लडऩे वाले श्री सीता रमैया ने अपना चिकित्सा व्यवसाय भी छोड़ दिया। प्रदेश को हरि विनायक पाटस्कर जैसे राज्यपाल मिले जो पद्म विभूषण थे। आन्ध्र मद्रास (अब चेन्नई) सीमा विवाद महाराष्ट्र मैसूर सीमा विवाद जैसे गंभीर विषय आपने सुलझाए। प्रदेश को भगवत दयाल शर्मा जैसे महामहिम भी मिले जो आदिवासी वंचितों की सहायता के लिए जाने गए। उड़ीसा में राज्यपाल के दौरान कई सामाजिक धार्मिक संस्थाओं के संरक्षक रहे।
प्रदेश के राज्यपाल के इतिहास में एक आदरणीय नाम भाई महावीर का भी है, जो स्वाधीनता सैनानी भाई परमानन्द के पुत्र थे। विलक्षण प्रतिभा के धनी डॉ. भाई महावीर राज्यपाल के पद पर शालीनता शुचिता एवं प्रामाणिकता की मिसाल बन कर उभरे। प्रदेश को एक मात्र महिला राज्यपाल श्रीमती सरला ग्रेवाल भी मिली। भारतीय प्रशासनिक सेवा की अधिकारी श्रीमति ग्रेवाल ने यूनेस्को में भारत का प्रतिनिधित्व किया और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर विशेषकर महिला साक्षरता के क्षेत्र में भारत को ख्याति दिलाई।