भरत का विनम्र आग्रह
भरत जी जब अपने भाई श्री राम जी के पास पहुंच जाते हैं तो उन्हें देखकर रामचंद्र जी अत्यंत प्रसन्न होते हैं। उन्होंने महात्मा भरत को अपनी गोद में बैठाकर उनका आलिंगन किया। तत्पश्चात भरत जी ने प्रसन्नता व्यक्त करते हुए और अपना नाम उच्चारण करते हुए लक्ष्मण और सीता जी को प्रणाम किया।
उन्होंने विभीषण जी का भी बहुत आत्मीयता से स्वागत सत्कार किया। उनसे कहा कि हे विभीषण ! बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम्हारी सहायता से श्री राम ने यह कठिन कार्य पूर्ण कर डाला।
श्री राम जी ने अपनी माता के समीप जाकर उनके चरणों में शीश झुकाकर प्रणाम किया । उसके पश्चात सुमित्रा और कैकेई को प्रणाम कर अन्य सब मातृसम स्त्रियों को भी उन्होंने प्रणाम किया। उसके पश्चात वह वशिष्ठ जी की ओर मुड़े और उन्हें प्रणाम कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया।
भरत जी ने रामचंद्र जी से कहा कि आप अपने कोष , धान्यशाला और सेना का निरीक्षण कीजिए । आपके प्रताप से मैंने इन सबको 10 गुना अधिक बढ़ा दिया है। जब भरत इस प्रकार विनम्रता के साथ अपने भाई से वार्तालाप कर रहे थे, तब राक्षस राज विभीषण और वानरों की आंखों से आंसू निकल रहे थे।
बोले भरत श्री राम से – नहीं राज्य से मोह।
आपके ही सान्निध्य में , आनंद मिलता मोय।।
बहुत ही पश्चाताप है , जो कुछ हुआ अतीत।
बहुत ही मुझको खेद है , जो कुछ गया है बीत।।
चल नहीं सकता है गधा , कभी घोड़े की चाल।
कौआ चल सकता नहीं , कभी हंस की चाल।।
भ्राता बड़े को मानिए , जग में पिता समान।
संरक्षक होता वह, शास्त्र करें गुणगान।।
देख भरत की नम्रता , गदगद थे मेहमान।
वानर राज प्रसन्न थे , मंत्र – मुग्ध हनुमान।।
रथारूढ हुए राम जी, जन गण करे जयकार।
शोभा यात्रा चल पड़ी , सब देख रहा संसार।।
दीप हर घर में जले, हर घर से बिखरे फूल।
बाजे – नगाड़े बज रहे, पकड़ लिया निज मूल।।
दीप खुशी के जल गए, जल गए दुष्ट विचार।
कैकेई वंदन कर रही , राम का बारंबार।।
जो कुछ हुआ अतीत में , बेटा जाओ भूल।
कालचक्र के कारने , हो गई मुझसे भूल।।
विनम्र भाव से राम ने , किया मां का सत्कार।
क्यों लज्जित मुझे कर रहीं , माता बारंबार।।
ज्येष्ठ श्रेष्ठ जन जो खड़े , सभी से ले आशीष।
विनम्रता से झुका दिया , राम ने अपना शीश।।
डॉ राकेश कुमार आर्य