मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना : मजहब और क्रूसेड युद्ध अर्थात धार्मिक युद्ध

क्रूसेड युद्ध अर्थात धार्मिक युद्ध

मजहब के नाम पर ईसाइयों, यहूदियों और मुसलमानों के बीच एक से एक बढ़कर खूनी संघर्ष हुए हैं। जिनमें मानवता का भारी अहित हुआ है । लाखों लोगों को इन युद्धों में या तो अपने प्राण गंवाने पड़े या फिर विस्थापित होने के लिए विवश होना पड़ा। बड़ी संख्या में लोगों के धर्मांतरण किए गए और जिन लोगों ने धर्म परिवर्तन से मना किया ,उनके साथ अमानवीय और पैशाचिक अत्याचार किए गए। इनकी वीभत्सता को देखकर मानवता भी कराह उठी।


ध्यान रहे कि ईसाइयत और इस्लाम दोनों ही अपने आपको शांति का धर्म कहते हैं और इस बात के लिए अपनी पीठ को स्वयं ही थपथपाते रहते हैं कि उन्होंने ही संसार को सभ्यता और संस्कृति सिखाई है। ये दोनों ऐसा भी दावा करते हैं कि संसार में मानवता और मानवीय मूल्यों को भी उन्होंने ही स्थापित किया है और इन सब बातों को लेकर उनका एक गौरवपूर्ण अतीत है । जबकि 300 वर्ष तक इन दोनों ने जिस प्रकार मानवता का संहार किया है। जिसकी जिम्मेदारी लेने से ये भागते हैं । यद्यपि यह इतिहास का एक क्रूर सत्य है।
‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ – का राग अलापने वाले लोगों को इन धर्मयुद्धों में हुए भारी विनाश को अवश्य पढ़ना व समझना चाहिए।
‘विकिपीडिया’ के अनुसार यूरोप के ईसाइयों ने 1095 और 1291ई0 के बीच अपने धर्म की पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उसकी राजधानी जेरूसलम में स्थित ईसा की समाधि का गिरजाघर मुसलमानों से छीनने और अपने अधिकार में करने के प्रयास में जो युद्ध किए उनको सलीबी युद्ध, ईसाई धर्मयुद्ध, क्रूसेड  अथवा क्रूश युद्ध कहा जाता है। इतिहासकार ऐसे सात क्रूश युद्ध मानते हैं।

जेरूसलम नगर की स्थिति

जेरूसलम नगर में एक बड़ा गिरजाघर था जिसे रोम के प्रथम ईसाई सम्राट् कोंस्टेंटैन की माँ ने ईसा की समाधि के पास चौथी सदी में बनवाया था।
वास्तव में जेरूसलम या कोई अन्य ऐतिहासिक स्थल हो ये सभी कभी न कभी आर्य राजाओं के अधीन रहे हैं । जब आर्य राजाओं का शासन, प्रशासन और अनुशासन ढीला पड़ा तो यहाँ पर विभिन्न संप्रदायों ने विकास करना आरम्भ किया। कालांतर में जब यह स्थान ईसाई सम्प्रदाय के अधीन हुए तो यहाँ पर उन्होंने अपने अपने ढंग से अपने धर्म स्थल स्थापित किए।
जब यह क्षेत्र रोम के साम्राज्य का हिस्सा बना तो उसके शासक चौथी सदी से ईसाई मतावलम्बी हो गए थे। इसके पश्चात अगले 300 वर्ष तक यहाँ पर ईसाई लोग अपने ढंग से शासन करते रहे और यहाँ के समाज को अपने धार्मिक रीति रिवाज और मान्यताओं के आधार पर शासित करते रहे। आगे चलकर जब 610 ईसवी में इस्लाम की स्थापना हुई तो ईसाइयत और संसार में उस समय प्रचलित अन्य सम्प्रदायों और उनकी सत्ताओं के लिए खतरे की घंटी थी, क्योंकि इस सम्प्रदाय ने प्रारम्भ से ही अपने प्रचार- प्रसार और विस्तार पर कार्य करना आरम्भ कर दिया था । जिसके चलते इन दोनों सम्प्रदायों के मध्य टक्कर होनी ही थी। सातवीं शताब्दी में इस्लाम ने अपनी विस्तारवादी योजना पर बड़ी तीव्रता से काम करना आरम्भ किया । पैगम्बर के उत्तराधिकारी खलीफाओं ने अपने निकटवर्ती और दूरस्थ देशों पर अपना शासन स्थापित करने में अप्रत्याशित रूप से सफलता प्राप्त करनी आरम्भ की । जिससे उनका मनोबल बढ़ता गया और उनकी लूट व डकैती की भावना भी बलवती होती चली गई । जब इस्लाम के नाम पर साम्प्रदायिक अत्याचार करता हुआ मुसलमानों का यह बेड़ा फिलिस्तीन की ओर बढ़ा तो उसे फिलिस्तीन को अपने अधीन करने में मात्र 10 वर्ष का ही समय लगा।

टकराव की प्रारंभिक अवस्था

इस प्रकार ईसाइयों का यह पवित्र धर्मस्थल मुसलमानों के अधिकार क्षेत्र में आ गया। कुछ समय तक तो मुसलमानों ने यहूदियों को अपने इस धर्म स्थल पर अपनी पूजा पाठ करने में कोई किसी प्रकार की विशेष बाधा उत्पन्न नहीं की, परन्तु धीरे-धीरे जब उनका चारों ओर वर्चस्व स्थापित हो गया तो 11वीं सदी में यह स्थिति बदल गई। जब मुसलमानों ने अपनी जनसंख्या में पर्याप्त वृद्धि कर ली तो उन्होंने यहूदियों को आंखे दिखानी आरम्भ कर दीं। मुसलमानों की यह विशेषता प्रारम्भ से ही रही है कि वे जब कहीं किसी क्षेत्र विशेष में कम संख्या में होते हैं तो शांतिवादी बनकर रहते हैं और जैसे ही उनकी संख्या बढ़ती है तो वे विपरीत धर्मावलंबियों को जीना कठिन कर देते हैं।
इस समय सल्जूक ( तुर्कों का एक सेनापति ) तुर्कों ने कैस्पियन सागर से जेरुशलम तक अपनी शक्ति पर्याप्त वृद्धि कर ली । सल्जूकों ने कई देशों के साथ- साथ फिलिस्तीन पर भी कब्जा किया और जेरूसलम तथा वहाँ के पवित्र स्थान 1071 ई. तक उसके अधीन हो गए। मुसलमानों ने जैसे ही इन स्थानों पर अपना साम्प्रदायिक शिकंजा कसा तो उसका परिणाम यह हुआ कि ईसाइयों की यात्रा कठिन और संकटभरी हो गई।
उस समय नार्मन लोग इंग्लैंड के शासक थे। फ्रांस के एक भाग पर पहले से ही उनका आधिपत्य था ।1070 ईसवी के लगभग उन्होंने अपनी शक्ति में और अधिक वृद्धि करते हुए सिसिली, द्वीप मुसलमानों से जीत लिया। उससे मिला हुआ इटली का दक्षिणी भाग भी अपने अधिकार में लेने में सफलता प्राप्त की। फलस्वरूप, भूमध्यसागर, जो उत्तरी अफ्रीका के मुसलमान शासकों के दबाव में था, इस समय के ईसाइयों के लिए खुल गया।
395 ई. में रोमन साम्राज्य दो भागों में बँट गया था। पश्चिमी भाग की राजधानी रोम थी। यह साम्राज्य 476 ई0 में उत्तर की बर्बर जातियों के आक्रमण से टूट गया। ईसाई जगत् के पूर्वी भाग की राजधानी कुस्तुंतुनियाँ ( इस्तांबुल नगर) में थी और वहाँ ग्रीक (यूनानी) जाति के सम्राट् शासन करते थे। पूर्वी यूरोप के अतिरिक्त उनका राज्य एशिया माइनर पर भी था। तुर्को ने एशिया माइनर के अधिकांश भाग पर कब्जा कर लिया था, केवल राजधानी के निकट का और कुछ समुद्रतट का क्षेत्र रोमन (जाति से ग्रीक) सम्राट् के पास रह गया था। सम्राट् ने इस संकट में पश्चिमी ईसाइयों की सहायता माँगी। रोम का पोप स्वयं ही पवित्र भूमि को तुर्को से मुक्त कराने का इच्छुक था।
वास्तव में ईसाई और मुस्लिम इस्लामिक शासकों की इस प्रकार की सोच व दृष्टिकोण से पता चलता है कि वह एक दूसरे की भूमि और संपत्ति पर षड़यंत्र पूर्ण ढंग से कब्जा करने की योजनाओं में लगे हुए थे। इनका उद्देश्य जनहित नहीं था, बल्कि स्वार्थ और धनहित के दृष्टिकोण से यह ऐसा करते जा रहे थे। निश्चित रूप से इस प्रकार की स्वार्थी प्रवृत्ति किसी बड़े विनाश का कारण बनती है । साम्प्रदायिक राजाओं ने साम्प्रदायिक आधार पर जब-जब इस प्रकार के स्वार्थपूर्ण खेल रचे हैं , तब – तब ही मानवता को भारी विनाश का सामना करना पड़ा है।अब जबकि ईसाई और इस्लाम के शासक इस प्रकार के खेलों में लगे हुए थे तो इनके बीच भी किसी बड़े विनाश की भूमिका तैयार हो रही थी।
इस प्रकार की परिस्थितियों को विस्फोटक बनाने में साम्प्रदायिक आधार पर एक दूसरे के विपरीत विरुद्ध विषवमन करने वाले धर्म प्रचारकों ने भी अपनी अहम भूमिका का निर्वाह किया। अब अमिया निवासी पीटर सन्यासी ने फ्रांस और इटली में धर्म युद्ध के लिए जनता को उकसाना आरम्भ कर दिया। निश्चित रूप से इस धर्म प्रचारक का यह उद्देश्य साम्प्रदायिक आधार पर दो समुदायों की टक्कर करवाना ही था। उसकी सोच थी कि इस्लाम नाम के सम्प्रदाय का विनाश किया जाए। उधर इस्लाम के धर्म प्रचारक भी अपने अनुयायियों को बहुत लम्बे समय से ऐसी परिस्थितियों के लिए उकसाते चले आ रहे थे।
ईसाई धर्म प्रचारकों के प्रयास से छह लाख क्रूसधर मजहब के नाम पर अपना बलिदान देने को तैयार हो गए। यद्यपि ईसाइयों की पूर्वी और पश्चिमी साम्राज्यों की फूट ने इन क्रूशयुद्धों को गहराई से प्रभावित किया, क्योंकि उनकी इस प्रकार की फूट देर तक बनी रही।

डॉ राकेश कुमार आर्य

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here